Sunday, November 29, 2015

तमाशा - जरूर देखिएगा।



तो साईलॉक ने कहा...
इस बात का मतलब समझने के लिए आपको वेनिस और उसके मर्चेंट के बारे पता होना चाहिए। नहीं तो शेक्सपियर और उनका
मरचेंट ऑफ वेनिस तो पता होना ही चाहिए।

तमाशा ऐसी ही उच्च स्तरीय फिल्म है। जिसे भारत के गांव की और छोटे कस्बों की आबादी तो नहीं ही समझ पाएगी, ज्यादातर आम शहरी मध्यवर्गीय आबादी के भी समझ ये फिल्म नहीं आएगी। ये वही आबादी है जो आमिर खान को दो टके का अभिनेता और फिल्मकार बतलाकर गरियाना जानती है। सिनेमा, साहित्य और कला की औकात इसके लिए बस सौ रुपये का टिकट है।


छोटी से छोटी सूचनाओं के लिए गूगल के भरोसे निर्भर हो गई पीढ़ियों को तो बिना संदर्भ के कोई बात ही समझ नहीं आती है उसे संदर्भ रहित चीजे कैसे समझ आएगी?

एस्ट्रिक्स कौन है
?
गॉल विलेज कहां है?  उजरडो कौन हैं?  मोनिहर क्या है?

अगर ये नहीं मालूम है तो तमाशा की बहुत सी बातें नहीं समझ आएंगी, ना ही उनका मतलब।

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हमारे विचारों में हमेशा ही अ-निरंतरता होती है। हम किसी भी एक बात पर लगातार एक मिनट से ज्यादा नहीं सोच सकते। कुछ देर बाद हम वापस उसी विचार पर भले आ जांए लेकिन एक मिनट के बाद ही हमारे विचार कहीं और चले जाते हैं, अगले मिनट वो फिर कहीं और चले जाते हैं। ये भटकाव एकदम स्वभाविक और निश्चित है। व्यक्ति को अपना ये व्यवहार कभी पता नहीं चलता कि वो उसी में डूबा रहता है। जैसे मछली को कभी पता नहीं चलता कि वो पानी में है।

तमाशा का मुख्य पुरुष किरदार वेद (रणवीर कपूर) अपने विचार की इस स्वाभाविक अनिरंतरता को
अस्वभाविक रूप से मुखर होकर अभिव्यक्त करता है। वो हम सब की तरह अस्वभाविक रूप से सहज रहने की कोशिश करने का ढ़ोंग तो करता है पर उससे हो नहीं पाता ऐसा। इसी से गंभीर बात बोलते-बोलते वो गाने लगता है... डॉन बनते-बनते वो पुलिस बन जाता है। प्यार से बातें करते, अचानक जोर से चीख उठता है। बेहद सम्मान से भरे होने पर अचानक अपमान कर बैठता। अपमान करते-करते, इज्जत से भर जाता है।  

वैसे ये हमारा स्वाभाविक रवैया होता है, लेकिन दिमाग के भीतर। कोई डांट रहा हमको, तो हम एक साथ विचारों की कई परतों से गुजर रहे होते हैं। सामनेवाले से सहमत होते हैं, असहमत होते हैं, उसपर गुस्सा आता है, उसकी चाल समझ आती है, उनपर दया आती है। उनके प्रति सम्मान होता है मन में, उससे डर लगता है... उसकी संवेदना, उसकी सहानुभूतियां, सबमें तैरते हुए हम उसके सामने खड़े रहते हैं। ये सब हमारे दिमाग के भीतर होता है, लेकिन अपनी छवि और बाहरी दुनिया के डर से हम उसकी अभिव्यक्ति नहीं करते। 

हां, जब ये डर नहीं होता, तो हम वैसे ही अभिव्यक्ति करते हैं। बेहद खुशी के वक्त और बेहद अवसाद या दुख की घड़ी में हम अपनी छवि की परवाह नहीं करते और अपने विचार ईमानदारी से अभिव्यक्त करते हैं, जैसे वो हैं।

वेद का ये किरदार जबरदस्त खूबसूरत और मौलिक है, कमाल का है। 

लेकिन उससे भी कमाल उसकी दोस्त, प्रेमिका या जो भी कहिए वो है... तारा। दुनिया की हर औरत को होना ऐसा ही चाहिए। पर रामायण से लेकर तमाशा तक, हम एक बुद्धिमान औरत की बस कल्पना ही करते आए हैं और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। जो चीजें मौजूद नहीं हैं, हम उसकी कल्पना करके ही उसकी मौजूदगी का सुख उठाते हैं। तारा वैसा ही किरदार है... जो सच में है तो नहीं, पर होना चाहिए हर किसी को वैसा ही।

एक लड़की को एक लड़का मिलता है। ठीक वैसा ही, जैसा और कोई नहीं है, जिसके लिए वो बनी है या जो, उसके लिए बना है। वो हैरान रह जाती है। और बस उसके साथ हो लेती है, बिना उस लड़के के अपने साथ होते, वो उस लड़के के साथ रहने लगती है। लगातार... चौबीस घंटे... जैसे इंसान, भगवान के साथ रहता है, वैसे ही। 

बाद में पता चलता कि ये लड़का तो मजूबर है, बेबस कोई और जीवन जीने के लिए अभिशप्त। तो वो ये सच्चाई उस लड़के को बताती है कि तुम क्यों शापित जीवन जी रहे, क्यो कर रहे ये पाप... वो लड़की उसे उस पाप से मुक्त करना चाहती ताकि वो पावन हो सके, आजाद, उनमुक्त। आखिरकार वो ऐसा कर लेती है।

विचित्र बात है कि कहानी तारा की है,  पर लगती है कि वेद की है।

कमाल ये है कि जैसे कहानियों में खुश होने के लिए, खुशियां भरे दृश्य और परिस्थितियों का इस्तेमाल होता। तकलीफ के दुख भरे हालात होते हैं। गुस्सा और बेबसी के लिए वैसे ही मौके बनाए जाते है। इन मौकों के चलते ही हम उन भावों की यात्राएं करते हैं। वैसे ही एक और भाव है बोरियत, एकरसता, एक रूपता। जीवन एक बोरिंग यात्रा हो गई है एकरसता से भरी... ये कैसे फील कराया जाय। ये फील कराया जा सकता है... वैसे ही हालात पैदा कर... अगर मूर्ख कहानीकार है तो आप इस बोरियत को, कहानी के किरदारों की बोरियत मान लेंगे। लेकिन कहानीकार अगर अदभुत हो, वो बोरियत आप मानेंगे नहीं, देखेंगे नहीं, उसे महसूस करने लगेंगे।


इंटरवल के पहले ऐसी ही बोरियत मसहूस होती है। ये वो हिस्सा है, जब कहानी, किरदार के जीवन की बोरियत की बात कर रही है। और आप सीट पर बैठे वो बोरियत इस तरह महसूस करते हैं, कि आपको फिल्म ही बोरिंग लगने लगती है। दरअसल फिल्म बोरिंग नहीं, वो फिल्म का प्रभाव है कि आप बोरियत अनुभव कर रहे। दरअसल ये तो उस कहानी के उस हिस्से की जबरदस्त कामयाबी है। ये सिनेमा का एक अदभुत आयाम है।

बैकग्राऊंड म्यजिक अदभुत है। फ्रांस तो कमाल दिखा है। दिल्ली ऐसी दिखती है, ये तो बेजोड़ बात है। रणवीर कपूर गजब के अभिनेता है, ये कहना बेमतलब है। लेकिन दीपिका के लिए सम्मान का ये आलम है कि आपको उनसे प्यार हो जाए। जबरदस्त।

सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा धाकड़, गजब और महान निर्देशक... बिहारी है। इम्तियाज अली दरंभगा में पैदा हुए हैं और बिहार, झारखंड में ही पढ़े हैं। एकदम दार्शनिक फिल्म है। आपको सच्चाई उसमें दिखेगी। दुनिया के बेहतरीन फिल्मों का असर और वैसी ही है तमाशा।  

'मेरा नाम जोकर' अपने वक्त में स्वीकार नहीं की गई क्योंकि वो अपने वक्त से पहले की फिल्म थी। गुरूदत्त की फिल्मों में भी यही बात थी। 'कागज के फूल' और 'प्यासा' अपने वक्त में नहीं स्वीकार की गई, जबकि आज ये दोनों फिल्में भारतीय सिनेमा की पहचान हैं।

'तमाशा' वैसी ही एक फिल्म है...
अभी तो नहीं, लेकिन आनेवाली पीढ़ियों का हर व्यक्ति इसे जरूर देखेगा। वो इससे हमारे वक्त की विंडबनाओं के बारे में समझे, बूझेगा। 

बेहतर है कि आप भी इसे देख लीजिए...
सिनेमा हॉल में बस देख लीजिए। सिनेमा के बारे में किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त होकर एक झूले पर बैठे व्यक्ति की तरह देख लीजिए। फिल्म खत्म होने के बाद अपने और आसपास के जीवन से उसके दृश्यों, संवादों और परिस्थितियों को जोड़िए... आप हैरान रह जाएंगे।

आप विश्वास नहीं कर पाएंगे कि आप जो देखकर आए हैं, वो इतना अदभुत था। तो तमाशा उस लतीफे की तरह है जिसका पंच, कुछ देर के बाद समझ आता है।

रणवीर का किरदार वेद, एक किस्सागो से अपने जीवन की कहानी का भविष्य जानने पहुंचता है। जैसे हम अंगूठी, जन्मकुंडली और पता नहीं क्या-क्या से अपने जीवन की कहानी जानना चाहते हैं। तो वो किस्सागो रणवीर को जबरदस्त लताड़ता है... कि अपनी कहानी मुझसे पूछ रहा है, वो तो तुम्हारे ही भीतर है, मूर्ख। जबरदस्त विचार है।

पेड़ कैसा होगा, ये तो बीज और उस पेड़ के भीतर छुपी बात है, नहीं क्या
? भविष्य की कहानी तो वर्तमान और अतीत में दबा रहता है। कमाल है।  

मटरगश्ती गाने में देवानंद क्यों हैं
? सोचिएगा।
तारा जब वेद से अलग होती है तो कार में अपना सिर झटकती है... क्यों?

ऐसे कई सवाल हैं जिनका कई मतलब है... अब वो आप जानिए कि आपको अपने जीवन का कैसा और क्या अनुभव है, फिल्म से भी आप वहीं पा सकेंगे।


2 comments:

Bharat Shrivastava said...

फ़िल्म का क्या स्तर है ये तो देखने पर पता चलेगा और आपके सभी बिन्दुओ से भी सहमत है पर आपने आमिर खान को लेकर जो कहा उससे सहमत नहीं।
जरुरी नहीं की जो आमिर के बयान के खिलाफ हो उसे ये फ़िल्म ही समझ ना आये और ये भी जरुरी नहीं की जो अपने 100 रुपये की कीमत करता हो उसे भी ये फ़िल्म समझ नहीं आये।
ये दोनों स्टेटमेंट फ़िल्म के बजाय आपके विचार अन्य लोगों के लिए व्यक्त करते है

K. Krishan Anand said...

भारत... यहां कमेंट करना आसान नहीं, मेहनत का काम है...
आपने इतनी मेहनत की है तो आपको उत्तर पाने का हक है।
आमिर खान वाली बात...
बात आमिर खान के बयान असहमति से तो है ही नहीं... आमिर के बयान से वो ही असहम है जो सच को सच की तरह स्वीकार नहीं करना चाहता, जो सच को केवल इसलिए नहीं मानना चाहता कि वो किसी अधम पापी और झूठे व्यक्त के मुंह से निकला है।

सच्चाई आमिर खान के बयान की मोहताज नहीं, मेरे कहने के भी नहीं, सच्चाई सामने हो इसके लिए वो किसी की मोहताज नहीं। जो आमिर खान के खिलाफ हों, उन्हें ये फिल्म पक्का तौर पर समझ नहीं आएगी। क्योंकि वो सच को सच मानने के लिए तैयार ही नहीं। बात आमिर खान के विरोध की तो है नहीं, आमिर खान की औकात क्या है... एक अभिनेता भर हैं वो...बस। पर सच उनसे बहुत बड़ा है।

और हां जिसे सिनेमा सौ रुपये की चीज लगती हो वो भी इसे कभी नहीं समझ पाएगा। भगवान को सौ रुपये की मिट्टी की मूर्ति समझनेनाला व्यक्ति, कभी भी ईश्वर की विशालता नहीं समझ सकता।

सिनेमा की औकात सौ रुपए की नहीं होती, वो सौ रुपये में उपलब्ध है पर वो सौ रुपये की चीज नहीं।

बाकी ये दोनों स्टेटमेंट फिल्म और उससे जुड़े हर व्यक्ति के लिए हैं, दर्शक भी उन्हीं में से एक है। जिन लोगों की फिल्म में रुचि नहीं, उनके लिए तो ये पूरी बात ही नहीं है।