Sunday, November 29, 2015

तमाशा - जरूर देखिएगा।



तो साईलॉक ने कहा...
इस बात का मतलब समझने के लिए आपको वेनिस और उसके मर्चेंट के बारे पता होना चाहिए। नहीं तो शेक्सपियर और उनका
मरचेंट ऑफ वेनिस तो पता होना ही चाहिए।

तमाशा ऐसी ही उच्च स्तरीय फिल्म है। जिसे भारत के गांव की और छोटे कस्बों की आबादी तो नहीं ही समझ पाएगी, ज्यादातर आम शहरी मध्यवर्गीय आबादी के भी समझ ये फिल्म नहीं आएगी। ये वही आबादी है जो आमिर खान को दो टके का अभिनेता और फिल्मकार बतलाकर गरियाना जानती है। सिनेमा, साहित्य और कला की औकात इसके लिए बस सौ रुपये का टिकट है।


छोटी से छोटी सूचनाओं के लिए गूगल के भरोसे निर्भर हो गई पीढ़ियों को तो बिना संदर्भ के कोई बात ही समझ नहीं आती है उसे संदर्भ रहित चीजे कैसे समझ आएगी?

एस्ट्रिक्स कौन है
?
गॉल विलेज कहां है?  उजरडो कौन हैं?  मोनिहर क्या है?

अगर ये नहीं मालूम है तो तमाशा की बहुत सी बातें नहीं समझ आएंगी, ना ही उनका मतलब।

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हमारे विचारों में हमेशा ही अ-निरंतरता होती है। हम किसी भी एक बात पर लगातार एक मिनट से ज्यादा नहीं सोच सकते। कुछ देर बाद हम वापस उसी विचार पर भले आ जांए लेकिन एक मिनट के बाद ही हमारे विचार कहीं और चले जाते हैं, अगले मिनट वो फिर कहीं और चले जाते हैं। ये भटकाव एकदम स्वभाविक और निश्चित है। व्यक्ति को अपना ये व्यवहार कभी पता नहीं चलता कि वो उसी में डूबा रहता है। जैसे मछली को कभी पता नहीं चलता कि वो पानी में है।

तमाशा का मुख्य पुरुष किरदार वेद (रणवीर कपूर) अपने विचार की इस स्वाभाविक अनिरंतरता को
अस्वभाविक रूप से मुखर होकर अभिव्यक्त करता है। वो हम सब की तरह अस्वभाविक रूप से सहज रहने की कोशिश करने का ढ़ोंग तो करता है पर उससे हो नहीं पाता ऐसा। इसी से गंभीर बात बोलते-बोलते वो गाने लगता है... डॉन बनते-बनते वो पुलिस बन जाता है। प्यार से बातें करते, अचानक जोर से चीख उठता है। बेहद सम्मान से भरे होने पर अचानक अपमान कर बैठता। अपमान करते-करते, इज्जत से भर जाता है।  

वैसे ये हमारा स्वाभाविक रवैया होता है, लेकिन दिमाग के भीतर। कोई डांट रहा हमको, तो हम एक साथ विचारों की कई परतों से गुजर रहे होते हैं। सामनेवाले से सहमत होते हैं, असहमत होते हैं, उसपर गुस्सा आता है, उसकी चाल समझ आती है, उनपर दया आती है। उनके प्रति सम्मान होता है मन में, उससे डर लगता है... उसकी संवेदना, उसकी सहानुभूतियां, सबमें तैरते हुए हम उसके सामने खड़े रहते हैं। ये सब हमारे दिमाग के भीतर होता है, लेकिन अपनी छवि और बाहरी दुनिया के डर से हम उसकी अभिव्यक्ति नहीं करते। 

हां, जब ये डर नहीं होता, तो हम वैसे ही अभिव्यक्ति करते हैं। बेहद खुशी के वक्त और बेहद अवसाद या दुख की घड़ी में हम अपनी छवि की परवाह नहीं करते और अपने विचार ईमानदारी से अभिव्यक्त करते हैं, जैसे वो हैं।

वेद का ये किरदार जबरदस्त खूबसूरत और मौलिक है, कमाल का है। 

लेकिन उससे भी कमाल उसकी दोस्त, प्रेमिका या जो भी कहिए वो है... तारा। दुनिया की हर औरत को होना ऐसा ही चाहिए। पर रामायण से लेकर तमाशा तक, हम एक बुद्धिमान औरत की बस कल्पना ही करते आए हैं और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। जो चीजें मौजूद नहीं हैं, हम उसकी कल्पना करके ही उसकी मौजूदगी का सुख उठाते हैं। तारा वैसा ही किरदार है... जो सच में है तो नहीं, पर होना चाहिए हर किसी को वैसा ही।

एक लड़की को एक लड़का मिलता है। ठीक वैसा ही, जैसा और कोई नहीं है, जिसके लिए वो बनी है या जो, उसके लिए बना है। वो हैरान रह जाती है। और बस उसके साथ हो लेती है, बिना उस लड़के के अपने साथ होते, वो उस लड़के के साथ रहने लगती है। लगातार... चौबीस घंटे... जैसे इंसान, भगवान के साथ रहता है, वैसे ही। 

बाद में पता चलता कि ये लड़का तो मजूबर है, बेबस कोई और जीवन जीने के लिए अभिशप्त। तो वो ये सच्चाई उस लड़के को बताती है कि तुम क्यों शापित जीवन जी रहे, क्यो कर रहे ये पाप... वो लड़की उसे उस पाप से मुक्त करना चाहती ताकि वो पावन हो सके, आजाद, उनमुक्त। आखिरकार वो ऐसा कर लेती है।

विचित्र बात है कि कहानी तारा की है,  पर लगती है कि वेद की है।

कमाल ये है कि जैसे कहानियों में खुश होने के लिए, खुशियां भरे दृश्य और परिस्थितियों का इस्तेमाल होता। तकलीफ के दुख भरे हालात होते हैं। गुस्सा और बेबसी के लिए वैसे ही मौके बनाए जाते है। इन मौकों के चलते ही हम उन भावों की यात्राएं करते हैं। वैसे ही एक और भाव है बोरियत, एकरसता, एक रूपता। जीवन एक बोरिंग यात्रा हो गई है एकरसता से भरी... ये कैसे फील कराया जाय। ये फील कराया जा सकता है... वैसे ही हालात पैदा कर... अगर मूर्ख कहानीकार है तो आप इस बोरियत को, कहानी के किरदारों की बोरियत मान लेंगे। लेकिन कहानीकार अगर अदभुत हो, वो बोरियत आप मानेंगे नहीं, देखेंगे नहीं, उसे महसूस करने लगेंगे।


इंटरवल के पहले ऐसी ही बोरियत मसहूस होती है। ये वो हिस्सा है, जब कहानी, किरदार के जीवन की बोरियत की बात कर रही है। और आप सीट पर बैठे वो बोरियत इस तरह महसूस करते हैं, कि आपको फिल्म ही बोरिंग लगने लगती है। दरअसल फिल्म बोरिंग नहीं, वो फिल्म का प्रभाव है कि आप बोरियत अनुभव कर रहे। दरअसल ये तो उस कहानी के उस हिस्से की जबरदस्त कामयाबी है। ये सिनेमा का एक अदभुत आयाम है।

बैकग्राऊंड म्यजिक अदभुत है। फ्रांस तो कमाल दिखा है। दिल्ली ऐसी दिखती है, ये तो बेजोड़ बात है। रणवीर कपूर गजब के अभिनेता है, ये कहना बेमतलब है। लेकिन दीपिका के लिए सम्मान का ये आलम है कि आपको उनसे प्यार हो जाए। जबरदस्त।

सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा धाकड़, गजब और महान निर्देशक... बिहारी है। इम्तियाज अली दरंभगा में पैदा हुए हैं और बिहार, झारखंड में ही पढ़े हैं। एकदम दार्शनिक फिल्म है। आपको सच्चाई उसमें दिखेगी। दुनिया के बेहतरीन फिल्मों का असर और वैसी ही है तमाशा।  

'मेरा नाम जोकर' अपने वक्त में स्वीकार नहीं की गई क्योंकि वो अपने वक्त से पहले की फिल्म थी। गुरूदत्त की फिल्मों में भी यही बात थी। 'कागज के फूल' और 'प्यासा' अपने वक्त में नहीं स्वीकार की गई, जबकि आज ये दोनों फिल्में भारतीय सिनेमा की पहचान हैं।

'तमाशा' वैसी ही एक फिल्म है...
अभी तो नहीं, लेकिन आनेवाली पीढ़ियों का हर व्यक्ति इसे जरूर देखेगा। वो इससे हमारे वक्त की विंडबनाओं के बारे में समझे, बूझेगा। 

बेहतर है कि आप भी इसे देख लीजिए...
सिनेमा हॉल में बस देख लीजिए। सिनेमा के बारे में किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त होकर एक झूले पर बैठे व्यक्ति की तरह देख लीजिए। फिल्म खत्म होने के बाद अपने और आसपास के जीवन से उसके दृश्यों, संवादों और परिस्थितियों को जोड़िए... आप हैरान रह जाएंगे।

आप विश्वास नहीं कर पाएंगे कि आप जो देखकर आए हैं, वो इतना अदभुत था। तो तमाशा उस लतीफे की तरह है जिसका पंच, कुछ देर के बाद समझ आता है।

रणवीर का किरदार वेद, एक किस्सागो से अपने जीवन की कहानी का भविष्य जानने पहुंचता है। जैसे हम अंगूठी, जन्मकुंडली और पता नहीं क्या-क्या से अपने जीवन की कहानी जानना चाहते हैं। तो वो किस्सागो रणवीर को जबरदस्त लताड़ता है... कि अपनी कहानी मुझसे पूछ रहा है, वो तो तुम्हारे ही भीतर है, मूर्ख। जबरदस्त विचार है।

पेड़ कैसा होगा, ये तो बीज और उस पेड़ के भीतर छुपी बात है, नहीं क्या
? भविष्य की कहानी तो वर्तमान और अतीत में दबा रहता है। कमाल है।  

मटरगश्ती गाने में देवानंद क्यों हैं
? सोचिएगा।
तारा जब वेद से अलग होती है तो कार में अपना सिर झटकती है... क्यों?

ऐसे कई सवाल हैं जिनका कई मतलब है... अब वो आप जानिए कि आपको अपने जीवन का कैसा और क्या अनुभव है, फिल्म से भी आप वहीं पा सकेंगे।


पालतू कुत्तों की फौज


हम पर तुम,   तुम पर खुदा... पिरामिडफूड-चेनअहार-श्रृंखला, बड़ी मछली, छोटी मछली को खाती है। वेगैरह-वेगैरह।
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पत्रकार जनता की आवाज हैं। लेकिन सत्ता के नजदीक रहने की लालच ने इन्हें कुत्ता बना दिया है।
अपनी अगली दोनों टांगे उठा, मुंह खोल, जी बाहर निकाल लपलपाते,  लार टपकाते रहेंगेशायद कोई हड्डी मिल जाए। हड्डी के फिराक में उनकी पूरी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता संदिग्ध है। 
वो पत्रकार हैं ही नहीं... सत्ता के पालतू कुत्ते हैं।

तानाशाह और दबंग डाकूओं की सबसे पहली नजर पहरेदारों पर होती है। वो सबसे पहले पहरेदार कुत्तों को लालच दे
नशीली दवा देकर प्रभावहीन करते हैं। प्रभावहीन करने से भी ज्यादा कामयाब चाल ये है होती है, कि  डाकू,  कुत्ते को ऐसी ट्रेनिंग दे दें कि वो मालिक के बदले डाकुओं के लिए काम करने लगें ट्रेनिग पाया कुत्ता, मालिक का सामान चोरी से बचाने के बदले, बिस्कुट की लालच में मालिक का ही सामान उठाकर डाकू को दे आया करता है।  


चालाक शासक यही करता है। 
वो जनता की आवाज को जनता से छीनकर, उसे अपनी आवाज बना लेता है। जनता को लगता है कि वो बोल रही हैशासक सुन रहा है। लेकिन सचमुच में शासक बोल रहा होता है और जनता केवल सुन रही होती है। जनता और शासक के बीच, बातचीत करवाने वाला भोंपू मीडिया, आवाज बदल देने की ये कला खूब जानता है और जनता चूतिया बनी रहती है। और अगर ये भोंपू  दलाली पर उतर आए तो...?

करीब-करीब हर छोटे-बड़े मीडिया हाऊस में आपको दो तीन ऐसे दल्ले मिल जाएंगे, जो सचमुच में दलाली का काम करते हैं। वो सरकार
, कंपनियों और ताकत की कुर्सी पर बैठे लोगों तक रिश्वत के रूप में हर वो चीज
पहुंचाते हैं, जिसकी कल्पना की जा सकती है

'खूबसूरत', 'मस्त' लड़की की 'कल्पना' सबसे आम और सहज बात है।

तेजी से ऊपर चढ़ने और आगे बढ़ने की दौड़ और दौर में नारी शरीर तो सहज, स्वेच्छा से और सुलभ उपलब्ध भी हैं
...
पैसा तो है ही। तो जनता की आवाज उठाने वाला ये महान स्तंभ गले तक भ्रष्टाचार के कीचड़ में डूबा हुआ है।
 

अब प्रधानमंत्री ने देश में प्रजातंत्र के इसी महान स्तंभ के पत्रकारों से बातचीत का कार्यक्रम रखा। प्रधानमंत्री बुलाएं और पत्रकार ना आए
ये तो जुर्रत और दुस्साहस की बात हो जाएगी! सो पत्रकार मुंह उठाए वहां पुहंच गये... जैसे पिछले साल भी पहुंच गए थेजाना भी चाहिए कि बातचीत ऐसे ही तो होती है। ये मौका भी था कि पता नहीं कब महात्मा मोदी की नजर पड़ जाए और किस्मत का सिक्का चमक जाए।


ऐसे पत्रकारों को आप जनता की आवाज नहीं समझें। ये सारे चमन चिंदीचोर, प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी खिंचवाने के लिए एक दूसरे पर ऐसे गिरते पड़ते रहेजैसे वो प्रधानमंत्री नहीं, सिनेमा के हीरो हैं। 

प्रधानमंत्री जनता का सेवक हैउसमें जनता की तकलीफ और भलाई दिखनी चाहिए। पर उनके भोंपू... ये लोग, प्रधानमंत्री को बस एक चमचमाती मूर्ति के रूप में स्थापित कर देना चाहते हैं। ताकि उनके नाम से कुछ कमाई हो। चापलूसी और चमचागीरी की हद है।


ये ठीक वैसे ही है...
जैसे हमारे माननीय प्रधानमंत्री, अमेरिका में चचा ओबामा और जुकर भैया के साथ तस्वीर खिंचवाने के लिए उनके गले पड़े जा रहे थे।


सत्ता, पैसे और मौके के लोभ में गले तक लिपटे
, ऐसे पत्रकार जब देश के बारे में बात करते हैं तो ये बेहद खतरनाक है। क्योंकि ये धोखेबाज हैं। पता नहीं इनके; किस मूव का, क्या मतलब हो, और उसमें इनका क्या हित सध रहा हो? ये लोग भरोसे के लायक नहीं, बड़ा से बड़ा पत्रकार भी... संपादक और अखबारों के मालिक भी।

आप मीडिया से जुड़े किसी भी पत्रकार से भीतर की बात कीजिए, तकलीफ में ढूबा, वो आपको ऐसी सच्चाईयां बतलाएगा कि दिमाग घूम जाएगा..

कई साल पहले, तब बालासाहब ठाकरे जिंदा ही थे। एक महान न्यूज चैनल में एक बार इयर-एंडर बनाया जा रहा था। उसमें वोटिंग की सुविधावाला एक कार्यक्रम था, जिसका टाइटल था जीरो नंबर वन। जनता को वोट देकर तय करना था कि वो उस साल का सबसे नाकाम और काहिल शख्स किसे मानती है। विकल्पों में बाल ठाकरे का भी नाम था। बस इतने से ही शिवसेना के सिपाहियों को आग लग गई और उनके गुंडे (शिव सैनिकों को सैनिक पुकारना भारतीय सेना के जवानों का अपमान है) तो उसके गुंडे,   चैनल के दफ्तर पहुंच गए और भीतर घुसकर तोड़फोड़ करने के लिए मेन फाटक पर हंगामा करने लगे। जगह मुंबई थी, और शिवसेना के गुंडों ने कुछ दिन पहले ही जी न्यूज के दफ्तर में तोड़फोड़ की थी। सो जब ऊपर संपादक और उस वक्त के शिफ्ट इंचार्ज तक ये खबर गई तो दोनों के चेहरे की हवाईयां उड़ने लगीं। जैसे हेडमास्टर के सामने खड़ा होने में पांचवी क्लास के बच्चे की दशा होती है। या जैसे आपके सामने साक्षात मौत खड़ी हो और आपको समझ में नहीं आ रहा हो कि करना क्या है? ऐसा इसलिए था कि उनका कोई स्टैंड ही क्लियर नहीं था। फौरन से उस कार्यक्रम का प्रोमो, ऑफ एयर कर दिया गया।

ये घटना देख समझ मैं शर्म से जमीन में गड़ गया। बहुत कोफ्त हुई कि रीढ़हीन, ऐसे कायरों की भीड़ में शामिल होने से बढ़िया है, आत्महत्या कर ले आदमी। जीवन के अंत में जब मृत्यू-शय्या पर लेटा होऊंगा तो अपने बच्चों को अपने जीवन के बारे में क्या जवाब दूंगा, क्या मुंह दिखाऊंगा?

जो सही भी है। बच्चों के लिए स्टैंड लेने का काम हमारा है
, चाहे नतीजा जो भी हो। अपने बच्चों के प्रति यही हमारी सबसे बड़ी और महान जिम्मेदारी है। वर्ना बच्चे पाल... तो जानवर भी, 
लेते ही हैं। बच्चों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए ईमानदार और निडर होकर सच्चाई के साथ खड़ा होना और उसपर अडिग रहना बेहद जरूरी है।

लेकिन जिन लोगों का काम सच्चाई की स्थापना है अगर वो ही चापलूसों की फौज हो जाए तो ये समाज दिशाहीन और किसी सिरफिरे के हाथ खेला जानेवाला खिलौना भर रह जाएगा। हर इंटरव्यू से पहले ऑफ द रिकॉर्ड सेटिंग करनेवालों की ये भीड़, देश के लिए कैंसर से भी ज्यादा भयानक है।

ऐसा नहीं कि ये फसल केवल मोदी जी के खेत में उग रही है। दरअसल दलाली का ये धंधा... कांग्रेस के काल से ही शुरू हुआ है।
 
इस काम में उस पार्टी ने भी खूब योगदान दिया है। वर्ना एक दो कौड़ी का पत्रकार आज करोड़पति नहीं हो गया होता। कुछ लोग केवल एक पार्टी की तरफदारी कर महान और भारत रत्न होने के कगार तक नहीं पहुंच गए होते। तो कांग्रेस के कदमों पर बीजेपी की सरकार चले तो ये नई बात तो नहीं। क्योंकि मूलरूप से दोनों एक ही हैं... हां, एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए ये खतरनाक जरूर है।

पत्रकारों के इस बेशर्मी भरे व्यवहार से हमारे
, अपने बच्चों के लिए किए जाने वाले हमारे सारे काम बेकार और बेमतलब हो जाएंगे। हम जितनी ही खाईयां पाटते जाएंगे, ये सिरफिरे उतने ही गहरी खाईयां खोदते जाएंगे।


इन चापलूसों की फौज से, हम उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि ये हमारी लड़ाईयां लड़ सकते हैं। ऐसा किया तो
 लड़ाई शुरू होने से पहले ही हमारी हार... तय है।

वैसे इससे हमको तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हम तो निकल लेंगे और हमारी करतूतों की वजह से हमारे बच्चों की क्या दशा हो रही होगी
, ये देखने जानने हम मौजूद तो होंगे नहीं, हमको क्या मतलब। नहीं क्या?

तो हे महान इंसान! अपने वक्त काल में तू केवल अपनी फिक्र कर और बच्चों को झोंक दे एक महान दलदल में... तड़पकर छटपटाते रहने को। 
                                                                                             

 

Tuesday, November 24, 2015

ये ऐसा ही देश है...



किसी मुसलमान को इस देश के बारे में बोलने का हक नहीं।  है क्या?

1947 में मुसलमानों की एक पूरी खेप, देश छोड़कर जा चुकी है,  तो भारत की जमीन को अपना समझ यहां रह गए मुसलमान,  देश छोड़ने की बात भी नहीं कर सकतेक्योंकि साबित है कि मुसलमान तो देश छोड़कर जा सकते हैं... 

और वो जो बिना साबित किए ही देश छोड़ कर जा चुके हैंउनके बारे में क्या ख्याल हैब्रिटेन का नागरिककांग्रेसी छोरा तो इस देश में रह कर भी विदेशी है। बहुत से लोग और भी हैं जो बेहतर हालत की तलाश में देश छोड़कर जा चुके हैं। 

कुछ ने तो विदेशी नागरिकता भी ले ली है। वो दूसरे देशों में राजनीतिक और वैज्ञानिक हिस्सेदारी कर रहे हैं... और भारत उनपर गर्व से दावेदारी करता है। कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स भारत छोड़ कर चली गईं  इसी से वे... वो सब कर पाईं, जो वो कर पाईं। वे यहां होतीं तो किसी सरकारी शोध संस्थान के दफ्तर में सरकार के अनुदान नहीं मिलने का रोना रोतीं। इस देश के रीसर्च इंस्टीट्यूट में लाखों वैज्ञानिक यही कर रहे हैं। उनके पास बेहतर मौका और सुविधाएं नहीं हैं। बेईमानी, भ्रष्टाचार और झूठ ने यहां की हालत बेहद बुरी कर रखी है। 

विदेश जाकर हमारे महात्मा मोदी, भारत छोड़ चुके, जिन लोगों से बेशर्मी से पैसा जुटा रहे हैं, वे अप्रवासी भारतीय दरअसल, देश छोड़कर चले गए लोग हैं। कभी पूछा उनसे कि वो देश छोड़कर क्यों चले गए

कुछ ने तो विदेशी नागरिकता भी ले ली है। वो दूसरे देशों में राजनीतिक और वैज्ञानिक हिस्सेदारी कर रहे हैं... और भारत उनपर गर्व से दावेदारी करता है। कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स भारत छोड़ कर चली गईं  इसी से वे... वो सब कर पाईं, जो वो कर पाईं। वे यहां होतीं तो किसी सरकारी शोध संस्थान के दफ्तर में सरकार के अनुदान नहीं मिलने का रोना रोतीं। इस देश के रीसर्च इंस्टीट्यूट में लाखों वैज्ञानिक यही कर रहे हैं। उनके पास बेहतर मौका और सुविधाएं नहीं हैं। बेईमानी, भ्रष्टाचार और झूठ ने यहां की हालत बेहद बुरी कर रखी है।

कभी पूछा उनसे कि वो देश छोड़कर क्यों चले गएबिलकुल वही बात और वजह उनकी भी थी, जो एक मुसलमान आमिर खान कह रहा है। 

तो विदेशों में बेहतर जीवन जी रहे लोग, दरअसल भारत छोड़कर चले गए लोग ही हैं। वो लोग... भारत की जमीनयहां की निराशाजनक हालात से हताश होकर, यहां से गए है। जैसे बिहारीबिहारी से बाहर जाते हैं। जैसे मारवाड़ीराजस्थान से बाहर गए थे। जैसे पंजाबी, पंजाब से बाहर आए। 

हालात से निराश होकर भी, जो लोग जमीन नहीं छोड़ते, वो मराठीमध्य प्रदेश और तेलुगू किसानों की तरह आत्महत्याएं करते हैं। खेती की हालत बिहार में भी अच्छी नहींबाकी राज्यों की तरह ही और कहीं-कहीं तो उनसे भी बदतर हैलेकिन वहां किसान आत्महत्या नहीं करते, क्योंक्योंकि पलायन उनका हथियार है। वो जिस हालात को बदल नहीं सकतेउससे निराश हो आत्महत्या नहीं करते, वहां से निकल जाते हैं। कभी सोचा कि किसान आत्म-हत्या क्यूं करता है?

एक वक्त आता है कि हालात में सुधार की गुंजाइश ही नहीं रहती है। सुधार किसी एक के बूते की बात, तो नहीं ही रहती है। किसी को मेरी बात बकवास लग रही हो तोवो माई का लाल... यमुना का पानी पी कर दिखाए। अपनी दस साल की बच्ची को भारत में किसी जगह... अकेले छोड़कर दिखाए ।  

एक चोर पकड़ा जाए तो उसकी जान लेने सैंकडों लोग जमा हो जाकर उसे पीट-पीट कर मार देंगे। गाय के नाम पर सैंकड़ों लोग एकजुट हो जाएंगे। लेकिन उसी गाय को बेहतर जीवन देने की बात हो... तो उनको अपना घर-परिवार और जिम्मेदारियां याद आने लगती है। गंगा साफ करनी हो... यमुना का पानी, बिसलरी जितना साफ कर लेना हो तो उनकी फटने लगती है।

साफ करना तो दूर... हरामखोर अपने घर के देवताओं की गंदगी... फेंस लगा देने के बाद भी... बीवी-बच्चे समेत यमुना और गंगा के पुलों पर खड़ा होकर नदी में फेंकते रहेंगे। कमाल ये है कि आनेजाने वाले महान देश-भक्तों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। 

और आपको लगता है ये देश रहने लायक है?
ये कीड़ों का देश है।  गू में जैसे वो बिलबिलाते रहते हैं, वैसे ही पिल्लू जैसे लोगों का देश।
भ्रष्टाचार के खिलाफ नाटक करनेवाले लोगों से पूछिए कि वे अपना काम निकालने के लिए सरकारी दफ्तरों में पैसे क्यों देते हैं। केजरीवाल नाम का चूतियापा, किस चुतियापे की पैदाईश हैवो तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ा था, और अब पक्का है कि अपना टर्म पूरा करते-करते वो, देश की भ्रष्ट व्यवस्था का काबिल, कामयाब और बाकी लोगों की तरह ही घाघ राजनेता हो जाएगा।

देशभक्ति का नाटक मत कीजिए... ये देश रहने लायक नहीं है... सवा अरब नागरिकों मे से तीन चौथाई से भी ज्यादा लोगों की यही चाह है कि वो अमेरिका, यूरोप, जापान, सिंगापुर, खाड़ी देशों में जाकर बस जांए। वो तो मजबूरी है कि लोग यहां फंसे हुए हैं। अपने सीने पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या आप भी सपरिवार, माता-पिता बाल-बच्चों समेत यूरोप, कनाडा, अमेरिका में नहीं बस जाना चाहेंगे?

ईमानदारी से विचार कीजिएगा कि -  क्या भारत की राजनीति, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक रवैये और प्रचलनों से आप नाखुश हो, कर कई बार ये नहीं कह चुके हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकताहर इंजीनियर, हर डॉक्टर, हर प्रोफेसर, हर वैज्ञानिक भारत छोड़ देना चाहता है... हर छात्र, हर बच्चा चला जाना चाहता है यहां से... क्यों?

किसानों के पास भी उपाय नहीं है, वर्ना वो भी अमेरिका में जाकर खेती करते... जरा अमेरिकी किसानों की दशा और सुविधाएं देखिए। क्या फर्क है भारत और अमेरिका मेंदरअसल प्राकृतिक रूप से भारत... अमेरिका से ज्यादा समृद्ध और धनी है। ...लेकिन लोग यहां के चूतिया हैं और नीति-निर्धारक तो चूतियों की फौज है। 

हां ये देश चूतियों का देश है तभी...
कोई ईमानदार इंजीनियर अपनी ईमानदारी के लिए मारा जाता है। तभी किसी पत्रकार को सच बोलने के लिए जान देनी पड़ती है। तभी कोई पुलिस अधिकारी को सच्चाई का साथ देने की सजा दी जाती है। तभी कोई हमारखोर अपराधी जेल से देश चलाता है। 

ये चूतियों का देश है और आमिर खान ने सही कहा है... 
हर विवेकशील पिता को अपने बच्चे के लिए यहां असुरक्षा और अनिश्चितता के अलावा कुछ नहीं मिलता। सोचिएगा जरा कि क्या आपको लगता है कि आपकी बेटी सुरक्षित है यहां? उसका भविष्य सुखमय, चिंता रहित और सुनिश्चित
तभी को लालू और मोदी यहां नेता चुने जाते हैं। हमें अखिलेश, मायावती, ममता, जयललिता, केजरीवाल जैसों में चुनाव करना पड़ता है। तेज प्रताप यादव, तेजस्वी यादव हमारा मंत्री हो जाता है। तभी तो स्मृति ईरानी, अरुण जेटली यहां मंत्री बन देश का भाग्य तय करते हैं। तभी व्यापम् में सैकड़ों लोग मरते हैं।

तभी राजीव गांधी जैसे व्यक्ति को केवल सहानुभूति में प्रधानमंत्री बना दिया गया। तभी तो उनकी विधवा सोनिया गांधी जैसी औरत ने दस बरसों तक, एक चापलूस मुसलमान, अहमद पटेल के बूते देश को भ्रष्टाचारियों के हाथ बंधक बनाए रखा।

हां ये देश चूतियों का देश है तभी...
कोई ईमानदार इंजीनियर अपनी ईमानदारी के लिए मारा जाता है। तभी किसी पत्रकार को सच बोलने के लिए जान देनी पड़ती है। तभी कोई पुलिस अधिकारी को सच्चाई का साथ देने की सजा दी जाती है। तभी कोई हमारखोर अपराधी जेल से देश चलाता है।

ये चूतियों का देश है और आमिर खान ने सही कहा है...
हर विवेकशील पिता को अपने बच्चे के लिए यहां असुरक्षा और अनिश्चितता के अलावा कुछ नहीं मिलता। सोचिएगा जरा कि क्या आपको लगता है कि आपकी बेटी सुरक्षित है यहां? उसका भविष्य सुखमय, चिंता रहित और सुनिश्चित
तभी को लालू और मोदी यहां नेता चुने जाते हैं। हमें अखिलेश, मायावती, ममता, जयललिता, केजरीवाल जैसों में चुनाव करना पड़ता है। तेज प्रताप यादव, तेजस्वी यादव हमारा मंत्री हो जाता है। तभी तो स्मृति ईरानी, अरुण जेटली यहां मंत्री बन देश का भाग्य तय करते हैं। तभी व्यापम् में सैकड़ों लोग मरते हैं।

तभी राजीव गांधी जैसे व्यक्ति को केवल सहानुभूति में प्रधानमंत्री बना दिया गया। तभी तो उनकी विधवा सोनिया गांधी जैसी औरत ने दस बरसों तक, एक चापलूस मुसलमान, अहमद पटेल के बूते देश को भ्रष्टाचारियों के हाथ बंधक बनाए रखा।

आपको लगता है कि आप बीमार पड़ें और आप जहां भी हैं वहां ही आपका सही इलाज हो पाएगा?
पिछले दो महीने के भीतर अपने ही रिश्ते-नाते में चार ऐसे मामले आए हैं, जहां चूतिए डॉक्टरों ने मरीज को कुछ नहीं होने के बाद भी, उनके दस से पंद्रह लाख खर्च करवाए। पैसों के लिए गलत दवाएं और इलाज दे देकर ठीक-ठाक व्यक्ति को मौत के मुंह तक पहुंचा दिया। एक मामले में तो मर गए मरीज की लाश का भी इलाज करते रहे और उसके सवा लाख रुपए लिए। ये केवल चिकित्सा ही नहींशिक्षा व्यवस्था की यही दशा है। राजनीति की यही हालत है। पर्यावरण की यही दशा है। उद्योग और खेती में भी यही हालत है...

सबको मालूम है... सब जानते हैं कि समस्याएं हैं और ऐसी हैं, इस तरह से हैं... फिर भी ये सब ठीक नहीं हो रहा है.... काहे?  काहे कि ये चूतियों का देश है।

चूतिया राजनेताओं के चूतियापे पर चूतिया जनता लड़-मरती है।

चूतिया नौकरशाहों के चूतियापे की कीमत चूतिया जनता चुकाती रहती है। चूतिया नीति-निर्धारकों के चूतियापे की सजा मासूम बच्चे भोगते रहते हैं। चूतिया बाबाओं के चूतियापे में फंस भोले-भाले धर्मनिष्ठ लोग, चूतिया बने रहते हैं। चूतिया राजनेता और रक्षा अधिकारी अपने चूतियापे में बरगला कर ईमानदार और देश भक्त सैनिकों की जान लेते रहते है। 
आंतकवाद, भ्रष्टाचार, बेईमानी का चूतियापा क्यों हैं यहां चूतिया राजनेताओं के चूतियापे पर चूतिया जनता लड़-मरती है। चूतिया नौकरशाहों के चूतियापे की कीमत चूतिया जनता चुकाती रहती है। चूतिया नीति-निर्धारकों के चूतियापे की सजा मासूम बच्चे भोगते रहते हैं। चूतिया बाबाओं के चूतियापे में फंस भोले-भाले धर्मनिष्ठ लोग, चूतिया बने रहते हैं। चूतिया राजनेता और रक्षा अधिकारी अपने चूतियापे में बरगला कर ईमानदार और देश भक्त सैनिकों की जान लेते रहते है।आंतकवाद, भ्रष्टाचार, बेईमानी का चूतियापा क्यों हैं यहां चूतिया राजनेताओं के चूतियापे पर चूतिया जनता लड़-मरती है। चूतिया नौकरशाहों के चूतियापे की कीमत चूतिया जनता चुकाती रहती है। चूतिया नीति-निर्धारकों के चूतियापे की सजा मासूम बच्चे भोगते रहते हैं। चूतिया बाबाओं के चूतियापे में फंस भोले-भाले धर्मनिष्ठ लोग, चूतिया बने रहते हैं। चूतिया राजनेता और रक्षा अधिकारी अपने चूतियापे में बरगला कर ईमानदार और देश भक्त सैनिकों की जान लेते रहते है।

आंतकवाद
, भ्रष्टाचार, बेईमानी का चूतियापा क्यों हैं यहांकाहे कि ये चूतियों का देश है। 
यहां एक डीजीपी कहता है कि अपराध नहीं रोके जा सकते हैं। बलात्कार पीड़िता की फरियाद के जवाब में एक अहंकारी मंत्री कहता है कि ऐसे अपनी इज्जत उछालोगी को समाज को क्या मुंह दिखाओगी।
 

ये चूतियों का देश नहीं है क्या?अब ये मत कहिएगा कि ये तो हर देश में हैं... तो हर देश में तो अच्छी चीजें भी है,  बेहतर स्वास्थ, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा... तो वो काहे नहीं है यहां। उसकी नकल क्यों नहीं होती... जो चूतियापे की नकल और उसमें बराबरी का तर्क देंगे?  

मैं भी इन्हीं चूतियों जैसा... चूतियापे में फंसा हूं। जी तो करता रहा है कि
 श्रीकृष्ण की महाभारत करवा, इस पूरे देश को श्मशान बना, किसी जंगल में मारा जाऊं। ताकि फिर से नई फसल हो... नया सूरज निकले, नया सवेरा हो। पर भगवान नहीं हूं, सो चूतिया ही हूं। 

हर गांव के लोग शहर चले आए हैं... क्यों
मैं भी इन्हीं चूतियों जैसा... चूतियापे में फंसा हूं। जी तो करता रहा है कि
 श्रीकृष्ण की महाभारत करवा, इस पूरे देश को श्मशान बना, किसी जंगल में मारा जाऊं। ताकि फिर से नई फसल हो... नया सूरज निकले, नया सवेरा हो। पर भगवान नहीं हूं, सो चूतिया ही हूं।

हर गांव के लोग शहर चले आए हैं... क्यों
?अपने गांवों के बारे में क्या राय है उनकीबिलकुल वही राय, जो आमिर खान की देश के बारे में हैं। गांव छोड़ चुके सारे गांववाले, और जो गांव में रह गए हैं वो भी.... सब एक सुर में एक ही बात कह रहे हैं कि गांव अब मर गए हैं, वहां कोई सुविधा नहीं, सहूलियत नहीं, जीवन नहीं. मौका नहीं, तरक्की नहीं। कुछ भी नहीं। 

वैसे में सवा अरब की आबादी में
 गिनकर केवल सौ चित-खोपड़ी लोग मिलेंगे आपको, जो गांवों को और हालात को खुशहाल बनाने में लगे हुए हैं। 1,30.00,00.000 में 100.... क्या अनुपात है।
एक बाल्टी में सवा अरब छेद कर दीजिए और उसमें से एक छेद जितना ही बारीक
, सौ और नए छेदकरउनके जरिए बाल्टी में पानी भरने की कोशिश कीजिए। है औकात बाल्टी भर लेने कीकर पाएंगेहो पाएगातो झूठ का चुतियापे का तर्क मत दीजिएगा। 

देश की दशा आईसीयू में पड़े मरीज की तरह है
, जो ऑक्सीजन के सहारे जिंदा भर है। पर आईसीयू के बेडपर जिंदा आदमी का जीवन, जीवन नहीं होता। आमिर ने सही कहा है। 

अब कश्मीर का कोई शरणार्थी पंडित आमिर के खिलाफ बोले तो वो पूर्वाग्रहित है। सजा भोग रहा व्यक्ति न्याय
 की बात नहीं, बदले की बात करेगा। अनुपम खेर वही हैं। परेश रावल तो बीजेपी के सांसद है। आमिर की बात बीजेपी, कांग्रेस के विरुद्ध नहीं, उन्हें ये बात अपने खिलाफ लग रही है। लेकिन सच... बीजेपी या कांग्रेस के खिलाफ नहीं है। सच दरअसल इस देश, इस समाज के ही खिलाफ है।

सच अगर कड़वा लग रहा है
, तो उस सच को नकारिए मत, डिनाई मत कीजिए, उसे जस्टिफाई मत कीजिए... उसे बदलिए । पर ऐसा होगा नहीं क्योंकि... 

मुझे काऊंटर करने के पहले
, अपने कॉलर को ठीक से चेक कीजिएगा कि वहां मैल नहीं हो... गिरबां में झांक लीजिएगा अपने, तब ही बोलिएगा, हां ! देश की दशा आईसीयू में पड़े मरीज की तरह है, जो ऑक्सीजन के सहारे जिंदा भर है। पर आईसीयू के बेडपर जिंदा आदमी का जीवन, जीवन नहीं होता। आमिर ने सही कहा है। अब कश्मीर का कोई शरणार्थी पंडित आमिर के खिलाफ बोले तो वो पूर्वाग्रहित है। सजा भोग रहा व्यक्ति न्याय की बात नहीं, बदले की बात करेगा। अनुपम खेर वही हैं। परेश रावल तो बीजेपी के सांसद है। आमिर की बात बीजेपी, कांग्रेस के विरुद्ध नहीं, उन्हें ये बात अपने खिलाफ लग रही है। लेकिन सच... बीजेपी या कांग्रेस के खिलाफ नहीं है। सच दरअसल इस देश, इस समाज के ही खिलाफ है।सच अगर कड़वा लग रहा है, तो उस सच को नकारिए मत, डिनाई मत कीजिए, उसे जस्टिफाई मत कीजिए... उसे बदलिए । पर ऐसा होगा नहीं क्योंकि...ये तो चूतियों के द्वारा, चूतियों के खातिर, चूतियों के लिए, चूतियों पर शासित... चूतियापे से भरा, चूतियों का देश है। तभी तो चूतिया लोगों ने मोदी से प्रचार करवाकर, बिहार में चूतियों की सरकार बनवा दी और अब उन्हीं बिहारियों को चूतिया पूकार रहे हैं। मुझे काऊंटर करने के पहले, अपने कॉलर को ठीक से चेक कीजिएगा कि वहां मैल नहीं हो... गिरबां में झांक लीजिएगा अपने, तब ही बोलिएगा, हां !