हम पर तुम, तुम पर खुदा... पिरामिड, फूड-चेन, अहार-श्रृंखला, बड़ी मछली, छोटी मछली को खाती है। वेगैरह-वेगैरह।
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पत्रकार जनता की आवाज हैं। लेकिन सत्ता के नजदीक रहने की लालच ने इन्हें कुत्ता बना दिया है। अपनी अगली दोनों टांगे उठा, मुंह खोल, जी बाहर निकाल लपलपाते, लार टपकाते रहेंगे, शायद कोई हड्डी मिल जाए। हड्डी के फिराक में उनकी पूरी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता संदिग्ध है। वो पत्रकार हैं ही नहीं... सत्ता के पालतू कुत्ते हैं।
तानाशाह और दबंग डाकूओं की सबसे पहली नजर पहरेदारों पर होती है। वो सबसे पहले पहरेदार कुत्तों को लालच दे, नशीली दवा देकर प्रभावहीन करते हैं। प्रभावहीन करने से भी ज्यादा कामयाब चाल ये है होती है, कि डाकू, कुत्ते को ऐसी ट्रेनिंग दे दें कि वो मालिक के बदले डाकुओं के लिए काम करने लगें ट्रेनिग पाया कुत्ता, मालिक का सामान चोरी से बचाने के बदले, बिस्कुट की लालच में मालिक का ही सामान उठाकर डाकू को दे आया करता है।
चालाक शासक यही करता है। वो जनता की आवाज को जनता से छीनकर, उसे अपनी आवाज बना लेता है। जनता को लगता है कि वो बोल रही है, शासक सुन रहा है। लेकिन सचमुच में शासक बोल रहा होता है और जनता केवल सुन रही होती है। जनता और शासक के बीच, बातचीत करवाने वाला भोंपू मीडिया, आवाज बदल देने की ये कला खूब जानता है और जनता चूतिया बनी रहती है। और अगर ये भोंपू दलाली पर उतर आए तो...?
करीब-करीब हर छोटे-बड़े मीडिया हाऊस में आपको दो तीन ऐसे दल्ले मिल जाएंगे, जो सचमुच में दलाली का काम करते हैं। वो सरकार, कंपनियों और ताकत की कुर्सी पर बैठे लोगों तक रिश्वत के रूप में हर वो चीज पहुंचाते हैं, जिसकी कल्पना की जा सकती है।
'खूबसूरत', 'मस्त' लड़की की 'कल्पना' सबसे आम और सहज बात है।
तेजी से ऊपर चढ़ने और आगे बढ़ने की दौड़ और दौर में नारी शरीर तो सहज, स्वेच्छा से और सुलभ उपलब्ध भी हैं... पैसा तो है ही। तो जनता की आवाज उठाने वाला ये महान स्तंभ गले तक भ्रष्टाचार के कीचड़ में डूबा हुआ है।
अब प्रधानमंत्री ने देश में प्रजातंत्र के इसी महान स्तंभ के पत्रकारों से बातचीत का कार्यक्रम रखा। प्रधानमंत्री बुलाएं और पत्रकार ना आए, ये तो जुर्रत और दुस्साहस की बात हो जाएगी! सो पत्रकार मुंह उठाए वहां पुहंच गये... जैसे पिछले साल भी पहुंच गए थे। जाना भी चाहिए कि बातचीत ऐसे ही तो होती है। ये मौका भी था कि पता नहीं कब महात्मा मोदी की नजर पड़ जाए और किस्मत का सिक्का चमक जाए।
ऐसे पत्रकारों को आप जनता की आवाज नहीं समझें। ये सारे चमन
चिंदीचोर, प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी खिंचवाने के लिए एक दूसरे पर ऐसे गिरते
पड़ते रहे, जैसे वो प्रधानमंत्री नहीं, सिनेमा के हीरो हैं।
प्रधानमंत्री जनता का सेवक है, उसमें जनता की तकलीफ
और भलाई दिखनी चाहिए। पर उनके भोंपू... ये लोग,
प्रधानमंत्री को बस एक चमचमाती मूर्ति के रूप में
स्थापित कर देना चाहते हैं। ताकि उनके नाम से कुछ कमाई हो। चापलूसी और
चमचागीरी की हद है।
ये ठीक वैसे ही है... जैसे हमारे माननीय प्रधानमंत्री, अमेरिका में चचा ओबामा और जुकर भैया के साथ तस्वीर खिंचवाने के लिए उनके गले पड़े जा रहे थे।
सत्ता, पैसे और मौके के लोभ में गले तक लिपटे, ऐसे पत्रकार जब देश के बारे में बात करते हैं तो ये बेहद खतरनाक है। क्योंकि ये धोखेबाज हैं। पता नहीं इनके; किस मूव का, क्या मतलब हो, और उसमें इनका क्या हित सध रहा हो? ये लोग भरोसे के लायक नहीं, बड़ा से बड़ा पत्रकार भी... संपादक और अखबारों के मालिक भी।
आप मीडिया से जुड़े किसी भी पत्रकार से भीतर की बात कीजिए, तकलीफ में ढूबा, वो आपको ऐसी सच्चाईयां बतलाएगा कि दिमाग घूम जाएगा..
कई साल पहले,
तब बालासाहब ठाकरे जिंदा ही थे। एक महान न्यूज
चैनल में एक बार इयर-एंडर बनाया जा रहा था। उसमें वोटिंग की सुविधावाला एक कार्यक्रम था, जिसका
टाइटल था ‘जीरो नंबर वन’। जनता को वोट देकर तय करना था कि वो उस साल का सबसे नाकाम और काहिल
शख्स किसे मानती है। विकल्पों में बाल ठाकरे का भी नाम था। बस इतने से ही शिवसेना
के सिपाहियों को आग लग गई और उनके गुंडे (शिव सैनिकों को सैनिक पुकारना भारतीय
सेना के जवानों का अपमान है) तो उसके गुंडे,
चैनल के दफ्तर पहुंच गए और भीतर घुसकर तोड़फोड़
करने के लिए मेन फाटक पर हंगामा करने लगे। जगह मुंबई थी, और शिवसेना के
गुंडों ने कुछ दिन पहले ही जी न्यूज के दफ्तर में तोड़फोड़ की थी। सो जब ऊपर संपादक और
उस वक्त के शिफ्ट इंचार्ज तक ये खबर गई तो दोनों के चेहरे की हवाईयां उड़ने लगीं।
जैसे हेडमास्टर के सामने खड़ा होने में पांचवी क्लास के बच्चे की दशा होती है। या
जैसे आपके सामने साक्षात मौत खड़ी हो और आपको समझ में नहीं आ रहा हो कि करना क्या
है? ऐसा इसलिए था कि उनका कोई स्टैंड ही क्लियर नहीं था। फौरन से उस
कार्यक्रम का प्रोमो, ऑफ एयर कर दिया गया।
ये घटना देख समझ मैं शर्म से जमीन में गड़ गया।
बहुत कोफ्त हुई कि रीढ़हीन, ऐसे कायरों की भीड़ में शामिल होने से बढ़िया है, आत्महत्या कर ले
आदमी। जीवन के अंत में जब मृत्यू-शय्या पर लेटा होऊंगा तो अपने बच्चों को अपने जीवन के बारे में क्या जवाब दूंगा, क्या मुंह दिखाऊंगा?
जो सही भी है। बच्चों के लिए स्टैंड लेने का काम हमारा है, चाहे नतीजा जो भी हो। अपने बच्चों के प्रति यही हमारी सबसे बड़ी और महान जिम्मेदारी है। वर्ना बच्चे पाल... तो जानवर भी, लेते ही हैं। बच्चों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए ईमानदार और निडर होकर सच्चाई के साथ खड़ा होना और उसपर अडिग रहना बेहद जरूरी है।
लेकिन जिन लोगों का काम सच्चाई की स्थापना है अगर वो ही चापलूसों की फौज हो जाए तो ये समाज दिशाहीन और किसी सिरफिरे के हाथ खेला जानेवाला खिलौना भर रह जाएगा। हर इंटरव्यू से पहले ऑफ द रिकॉर्ड सेटिंग करनेवालों की ये भीड़, देश के लिए कैंसर से भी ज्यादा भयानक है।
ऐसा नहीं कि ये फसल केवल मोदी जी के खेत में उग रही है। दरअसल दलाली का ये धंधा... कांग्रेस के काल से ही शुरू हुआ है। इस काम में उस पार्टी ने भी खूब योगदान दिया है। वर्ना एक दो कौड़ी का पत्रकार आज करोड़पति नहीं हो गया होता। कुछ लोग केवल एक पार्टी की तरफदारी कर महान और भारत रत्न होने के कगार तक नहीं पहुंच गए होते। तो कांग्रेस के कदमों पर बीजेपी की सरकार चले तो ये नई बात तो नहीं। क्योंकि मूलरूप से दोनों एक ही हैं... हां, एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए ये खतरनाक जरूर है।
पत्रकारों के इस बेशर्मी भरे व्यवहार से हमारे, अपने बच्चों के लिए किए जाने वाले हमारे सारे काम बेकार और बेमतलब हो जाएंगे। हम जितनी ही खाईयां पाटते जाएंगे, ये सिरफिरे उतने ही गहरी खाईयां खोदते जाएंगे।
जो सही भी है। बच्चों के लिए स्टैंड लेने का काम हमारा है, चाहे नतीजा जो भी हो। अपने बच्चों के प्रति यही हमारी सबसे बड़ी और महान जिम्मेदारी है। वर्ना बच्चे पाल... तो जानवर भी, लेते ही हैं। बच्चों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए ईमानदार और निडर होकर सच्चाई के साथ खड़ा होना और उसपर अडिग रहना बेहद जरूरी है।
लेकिन जिन लोगों का काम सच्चाई की स्थापना है अगर वो ही चापलूसों की फौज हो जाए तो ये समाज दिशाहीन और किसी सिरफिरे के हाथ खेला जानेवाला खिलौना भर रह जाएगा। हर इंटरव्यू से पहले ऑफ द रिकॉर्ड सेटिंग करनेवालों की ये भीड़, देश के लिए कैंसर से भी ज्यादा भयानक है।
ऐसा नहीं कि ये फसल केवल मोदी जी के खेत में उग रही है। दरअसल दलाली का ये धंधा... कांग्रेस के काल से ही शुरू हुआ है। इस काम में उस पार्टी ने भी खूब योगदान दिया है। वर्ना एक दो कौड़ी का पत्रकार आज करोड़पति नहीं हो गया होता। कुछ लोग केवल एक पार्टी की तरफदारी कर महान और भारत रत्न होने के कगार तक नहीं पहुंच गए होते। तो कांग्रेस के कदमों पर बीजेपी की सरकार चले तो ये नई बात तो नहीं। क्योंकि मूलरूप से दोनों एक ही हैं... हां, एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए ये खतरनाक जरूर है।
पत्रकारों के इस बेशर्मी भरे व्यवहार से हमारे, अपने बच्चों के लिए किए जाने वाले हमारे सारे काम बेकार और बेमतलब हो जाएंगे। हम जितनी ही खाईयां पाटते जाएंगे, ये सिरफिरे उतने ही गहरी खाईयां खोदते जाएंगे।
इन चापलूसों की फौज से, हम उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि ये हमारी लड़ाईयां लड़ सकते हैं। ऐसा किया तो लड़ाई शुरू होने से पहले ही हमारी हार... तय है।
वैसे इससे हमको तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हम तो निकल लेंगे और हमारी करतूतों की वजह से हमारे बच्चों की क्या दशा हो रही होगी, ये देखने जानने हम मौजूद तो होंगे नहीं, हमको क्या मतलब। नहीं क्या?
तो हे महान इंसान! अपने वक्त काल में तू केवल अपनी फिक्र कर और बच्चों को झोंक दे एक महान दलदल में... तड़पकर छटपटाते रहने को।
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