Sunday, December 6, 2015

मंदिर तो वहीं बनना चाहिए...



 
राम मंदिर बनना चाहिए... बिलकुल वहीं बनना चाहिए, जहां श्री राम का जन्म हुआ था, उनकी ही जन्म-भूमि पर। अब सवाल है कि राम जन्मे कहां थे?

राम की जन्मभूमि के बारे में जानने से पहले भी एक और सवाल है। हर वो आदमी, जो राम की जन्म
-भूमि के बारे में जानने का दावा करता है, पहले अपनी जन्म भूमि के बारे में खोज करे। वो एकदम ठीक-ठीक बता पाए कि उसका जन्म, धरती में इस अमुक जगह हुआ था, ये जो दस मीटर का गोला है, यही वो जगह है, जहां उसने पहली सांस ली थी।
 
ऑपरेशन थियटर में जन्मे लोग भी अब चालीस साल के हो चुके होंगे। वैसे अब भी वैसे लोग जिंदा होंगे ही, जिनका जन्म ऑपरेशन थियटर की टेबल पर नहीं, धुएं भरी एक अंधेरी स्याह कोठरी में, जमीन पर सोयरी(सोहर) में हुआ होगा। पक्का दावा है कि महज तीस चालीस साल पहले जन्मे हम-आप, अपने जन्म स्थान के बारे में निश्चितता से नहीं कह सकते। ना तो उस टेबल की पहचान कर सकते हैं, जहां और जिसपर दुनिया में बाहर निकल हमने पहली सांस ली। ना ही वो जमीन पहचान सकते हैं, जहां किसी दाई मां ने हमको-आपको इस जमीन पर उतारा होगा।

हमको जन्म देनेवाले माता-पिता ने भी उस जन्म स्थान की इतनी अहमियत नहीं समझी कि उसे चिह्नित कर दें, जबकि हम, उनके जीवन की सबसे महान उपलब्धि और वरदान रहे थे। अपने ही जन्मस्थान के बारे में हम-आपको कोई सूचना नहीं, जबकि ये ज्यादा पुरानी बात भी नहीं, बस पच्चीस से चालिस साल पहले की बात होगी, तो फिर राम कहां पैदा हुए इसके बारे में कौन तय करेगा?

रामायण में श्री राम का जन्म कौशल्या के गर्भ से हुआ। लेकिन राजा दशरथ तो केकई के हाथों की कठपुतली थे। फिर उन्होंने कौशल्या की संतान के जन्म-स्थान को चिह्नित करने का काम तो किया ही नहीं होगा। उनके मृत्यू के बाद, एक सौतन, ईर्ष्या में गले तक डूबी एक सौतन, क्या अपने पुत्र भरत के रास्ते के कांटा, राम के जन्म स्थान के सारे चिह्न् मिटा नहीं देगी जबकि उसने तो, उसी भरत के लिए राम को चौहद साल वनवास भेज दिया था।


राम की अनुपस्थिति में उसका ही बेटा अवध का राजा रहा और वो राज माता रही होगी। चौहद साल में भारत की जनता को कुछ याद रहता है, जो अवध की जनता को रहा होगा।

चौहद साल राम अयोध्या से बाहर रहे। इस बीच अयोध्या की दशा क्या रही, इसका कहीं कोई ब्योरा नहीं है। रामायण की कथा तो राम के साथ चलती जाती है, और भरत जिस अयोध्या के राजा थे, रामायण... भरत के शासन काल की उस अयोध्या की चर्चा तक नहीं करती।

केकई और मंथरा तो राम के वनवास जाने के बाद भी अयोध्या में ही थीं। आपको लगता है वो इन चौदह बरसों में वो और उसके समर्थकों का एक पूरा दल, बेकार बैठा रहा होगा
?
दुष्टता और कपट कभी बेकार और निष्क्रिय नहीं बैठते हैं। उनकी फितरत अनवरत काम करते रहने की है।

अयोध्या के बाद लव-कुछ के वंशज क्या अयोध्या के ही राजा रहे?

कृष्ण की मथुरा तो राम के छोटे भाई, शत्रुघ्न की बसाई हुई थी। तो वो भरत, जिनके नाम पर भी शायद इस उपमहाद्वीप का नाम भारत रखा गया हो, शकुंत्ला के बेटे भरत के नाम पर तो भारत का नाम भारत रखा ही गया। तो वो भरत जिनके नाम से इस देश का नाम भारत रखा गया... वो भरत, क्या पराक्रमहीन पुरुषार्थहीन राजा थे
या वो श्री राम के गुलाम थे?

जैसे शत्रुघ्न ने मथुरा बसाई, लक्ष्मण ने क्या किया? भरत ने क्या किया? और खुद राम ने क्या किया
?

चौदह बरस में तो जमीन भी अपना पूरा स्वरूप बदल लेती है, अगर आदमी का बास हो, तब तो वो पूरा का पूरा ही बदल जाती है। जो लोग गंगा के किनारे रहते हैं, वो बता सकते हैं कि कैसे नदियां अपना पूरा रास्ता बदल लेती है। सरजू भी तो नदी ही है।

तो दुनिया बदल जाती है पर अयोध्या वैसी ही रही, जैसी राम के जन्म के वक्त में थी
नहीं क्या?
ऐसा तो रामायण भी नहीं कहती। राम के जन्म से लेकर उनके अयोध्या वापसी तक, रामकथा लगातार बदलाव की ही बात करती है। व्यावहारिकता ये है कि संपत्ति के लिए दो सगे भाई, एक दूसरे की हत्या करवाते रहे हैं, फिर सौतेले भाई कैसे प्यार से रह सकते हैं।

और जैसे केकयी ने दशरथ से अपने बेटे के लिए काम करवाया, वैसे ही तो भरत और लक्ष्मण की पत्नियां होंगी। शत्रुघ्न की पत्नी और बच्चे होंगे, वो क्या अपने बच्चों के लिए कौशल्या और केकई की तरह फिक्रमंद नहीं होंगी
? या उन्होंने ने नशा पी लिया होगा?

चित्रकूट में जब भरत अपनी सेना को लेकर राम से मिलने आते हैं तो लक्ष्मण और राम दूर से ही उन्हें देखते है। सेना और अयोध्या की ध्वजा देख वो विचार करते हैं कि लगता है भरत सेना लेकर हमारा वध करने आ रहा है, वो भरत से युद्ध करने की तैयारी करने लगते हैं। जी सौतेले भाई भरत से, मर्यादा पुरुषोत्तम राम और साथियों की ऐसी उम्मीद थी।

व्यवहारिक होकर सोंचे तो समझ आएगा कि लंकाविजय के बाद राम जब अयोध्या लौते तो भरत को राज वापस करना पड़ा क्योंकि, राम ने भारतवर्ष के सबसे प्रतापी और अजेय राजा, रावण का वध किया था। किष्किंधा के मंत्री हनुमान उनके मित्र थे। रावण को पराजित करने में मध्य-भारत के जंगलों में रहनेवाली जनजातियों और कबीलों ने राम की मदद की और वो उनके मित्र थे। राम के पास रावण से जीती गई आधुनिक तकनीक वाले वाहन, विमान और हथियार थे।

महाभारत तो रामायण के बाद की चीज है... वहां भी जब पांडव लौटे तो उनका कोई स्वागत नहीं हुआ। उन्हें युद्ध करना पड़ा। जबकि महाभारत काल, रामायण काल से ज्यादा जटिल और विकसित काल रहा था। तो राम जब लौटे होंगे तो उन्हें भरत ने बस यूं ही सत्ता सौंप दी
? नहीं क्या?

मनुष्य के व्यवहार करने के तरीके को कोई भी व्यक्ति अगर समझता हो वो इसे बस एक आदर्श और उच्च मूल्य की स्थापना की कोशिश में रचि कहानी बतलाएगा। मनुष्य हमेशा ही विजय दिवस मनाता है। अयोध्या, भरत का राज्य था
और जीत का जश्न राम का मनाया जाएगा? विचित्र नहीं है क्या
?

चलिए मान लेते हैं कि राम के प्रति भरत की जबरदस्त निष्ठा थी। तो एक सवाल है कि ये निष्ठा क्यों थी, इस निष्ठा की वजह क्या थी। क्यों होगी राम के प्रति भरत की निष्ठा, ऐसा क्या किया था राम ने भरत के लिए कि वो राम के प्रति एकनिष्ठ हो गए? पूरी रामायण में,
राम में भरत की अटूट निष्ठा की स्थापना के लिए कोई वजह नहीं बताई गई है। तो लिखनेवाले ने ये बात छोड़ दी... या मिटा दी।

लिखनेवाले ने भरत और राम के युद्ध की बात भी छोड़ दी.... या मिटा दी।

तो राम कथा कि सच्चाई की ये दशा है कि इसमें कल्पनाएं ही अब सच हो गईं है। और काल्पनिक सच्चाई का कोई भी ऐहितासिक साक्ष्य नहीं होता

दरअसल वक्त, चीजों को ऐसे और इतनी दफा बदल देता है कि उसकी कोई मौलिकता रह ही नहीं जाती है। चीजों की मौलिकता वही होती है, जहां से हम उसे जानना शुरू करते हैं।

हिमालय का पहाड़, करोड़ों साल पहले चीन और भारत के बीच समुद्र था। पर हम उसे पहाड़ मानते हैं क्योंकि हम यही जानते हैं।

तो राम का मंदिर वहीं बनना चाहिए जहां राम
पैदा हुए थे। राम पैदा कहां हुए थे’? इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण मुमकिन नहीं, लेकिन जहां और जब से हम ये जानना शुरू करते हैं कि राम यहीं पैदा हुए थे,
तो राम का मंदिर वहीं बनना चाहिए। बिना किसी मतभेद के।

इसे मुसलमानों को अपनी देखरेख में, अपने सहयोग से बनाकर हिन्दुओं के दे देना चाहिए। ये कहते हुए कि लो और खत्म करो ये सब
!

उनको ऐसा इसलिए नहीं करना चाहिए कि वो कमजोर हैं, या हार जांए। नहीं! लड़ाई और संघर्ष की, हार या जीत की  बात ही नहीं यहां, बात तो यहां, देश और राष्ट्र की बेहतरी के लिए है... देश को आगे बढ़ना चाहिए।

देश हित में इसे खत्म होना चाहिए, और इसके अलावा इसके खात्मे का कोई और तरीका फिलहाल मुमकिन नहीं दीखता।

राम का मंदिर बनाना चाहिए कि वो भारत के मुसलमानों की पहचान की भी बात है। पहले भी थी,  अब भी है, और आगे भी यही धरती... उनकी जमीन रहेगी, जैसे ये, इस धरती के हर पेड़-पौधे और व्यक्तियों की है।

ईसा यहां नहीं थे। मोहम्मद साहेब भी यहां नहीं थे। लेकिन दुनिया राम और कृष्ण को भारत से ही उत्पन्न जानती है।


मूर्ति पूजा से तौबा कर लेने से पहले भारतीय मुसलान, उसी विष्णु की और शिव की पूजा करते रहे होंगे। जैसे अब भी वो अपने गांवों में ग्राम देवताओं और कुल देवताओं की पूजा करते हैं। मजारों, पीर और फकीरों की करते हैं। ये अरबों का नहीं, भारत का संस्कार है।

भारत से बाहर उन्हें भी केवल मुसलमान नहीं, भारतीय मुसलमान के रूप में पहचाना जाता है। इस जमीन का कोई भी आदमी, कहीं जाए वो अपने खून से भारत को हटा नहीं सकता क्योंकि यही उसका इतिहास है।

मोहम्मद साहब में आस्था दुरुस्त है... लेकिन फर्ज कीजिए खुदा ना करें, उसी मोहम्मद साहेब की मक्का में अरब और भारतीय मुसलमानों की जंग छिड़ जाए तो भारत के हिन्दू किसकी तरफ होंगे? उन्हें किसकी फिक्र होगी, वो किसका साथ देंगे?

तो ये देश, यहां के हरेक बाशिंदे का है... यहां अमन चैन रहे और ये वास्तविक रूप सें सबको साथ ले तरक्की करे, इसके जरूरी है कि फालतू चीजों में ना उलझा जाए।

वो क्या है कि बहकावे में आ गये व्यक्ति को समझा सकना, मुश्किल ही नहीं, ना मुमकिन है। यही राम का जन्म स्थान है... ये बहकावा इतना गहरे पैठ चुका है कि इसे मिटा सकना अब तो करीब-करीब असंभव ही है। दुनिया भारत को ही राम के देश के रूप में जानती है तो वो कहीं ना कहीं तो पैदा हुए ही होंगे... जिसे मान लिया गया, उसे ही मान, उसे एक सम्माजनक स्थान दे, राष्ट्र का सिर ऊंचा कर लेना कोई अधर्म तो नहीं।

लड़ाई... दो व्यक्तियों, समूहों, संगठनों, पार्टियों की....जिस जमीन पर वो रहते हैं... उसकी साख खराब करती है, उसे बेइज्जत करती है। भारत के हिन्दू और मुसलमान संघर्ष करें तो इससे भारत बदनाम होता है, उसकी इज्जत जाती है। और भारत की इज्जत जाती है तो इसके हरेक कतरे की इज्जत जाती है....

ये हमारी गरिमा, सम्मान, रुतबे और साख की बात है।

 

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