Wednesday, September 26, 2018

परिचय अपरिचय

हैलो!... के बाद फौरन उसने कहा कि "किसी अजनबी पुरुष से बात करनी थी, तो सोचा, आप सबसे सुरक्षित व्यक्ति हैं।" 

मैं मुस्कुराया कि "लेकिन ये तो गलती हो गयी आपसे, मैं सुरक्षित जरूर संभव हूं, पर 'अजनबी' तो कभी नहीं पा सकेगा मुझे कोई। चाहे कोई कितना नया हो, मैं सदा ही उसको परिचित सा लगूंगा। आपको भी नहीं लगूंगा अपरिचित।"

----- अब आगे अपनी बात...

हां! मेरे लिए कुछ भी नया नहीं, ना ही मैं हूं किसी के लिए भी नया। इसका विचित्र असर है... कि मैं प्रभावित करने के, और प्रभावित होने के, प्रयासों से अप्रभावी रह जाया करता हूं।

बरसों पहले... जब विचार उठा कि विवाह होना चाहिए मेरा, तो ख्याल आया कि एक प्रस्ताव हो सकता है एक लड़की को। सो उस लड़की के परिवार के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति से बात की। जिज्ञासा, बस यही की मैंने; कि क्या ऐसा विचार संभव है। ना! ना! उस लड़की से मेरी कोई गहरी पहचान नहीं थी। ना ही कोई पसंद थी, पर ऐसा भी नहीं था कि एकदम अपरिचित थी वो।

किसी विवाह में, एक स्त्री का होना जरूरी है। अब खंभे या पेड़ से तो विवाह हो नहीं सकता! तो उस वक्त, जो भी ऐसा पात्र लगा, सबका चौखट खटखटाना था। ये भी, उनमें से एक दरवाजा था।

मेरी ये अनौपचारिकता, या परिचय भाव ये मेरा, मेरे ही विरुद्ध हो गया। संभावना की जिज्ञासा या संभाव्ययता की तलाश की एक सहज कोशिश के चलते...  मैं छिछोर, चरित्रहीन और बेगैरत समझा गया। बस एक औपचारिक संबंध की संभावना की बात पूछ लेने भर से, मैं बाजारू समझ लिया गया।

शायद अनौपचारिक परिचित लोग, अप्रभावी और प्रभावहीन दोनों होते हैं। 'शायद' इसलिए कह रहा कि अपनी बात तो मैं पुख्ता तौर पर कह सकता हूं, पर बाकियों के बारे में संदिग्धता वाजिब है। तो अपने अनौपचारिक परिचय के चलते अप्रभावी हुआ मैं, आगे बढ़ गया.. पर ये समझ नहीं पाया कि चूक कहां हुई।

अपरिचय जरूरी है क्या? अनजान दिखना या होना अनिवार्य है क्या? हर व्यक्ति, एक दूसरे से ऐसा ही वर्ताब करता है... अहंकारभरा अपरिचित जैसा व्यवहार। पर ये क्यों जरूरी है?

शायद इसलिए कि परिचय का ध्येय ही यहां, शोषण होता है। हर परिचय ही, कुछ पाने के उद्देश्य से होता है। जो, कुछ पाने का मकसद नहीं हो, तो व्यक्ति; परिचय करता ही नहीं। हर चीज, हर तत्व, हर कण के प्रति... मनुष्य का यही व्यवहार है। 

किसी पौधे से कोई लाभ नहीं हो तो मानव उसके बारे में जानना तक नहीं चाहता। कोई पत्थर, अगर भविष्य नहीं बदलता हो, तो उसकी तरफ देखना तक... जरूरी नहीं समझता।

पर प्रकृति तो ऐसी नहीं है।
जीवन का ध्येय तो... उन तारों के बारे में जानना है, जिससे हमारा कोई लाभ नहीं। जिंदगी का मकसद तो, उन पौधों और जीवों से भी दोस्ती है, जो हमारा भोजन नहीं हैं। 

जीवन तो व्यापक है...फैला हुआ... क्षैैैतिज। वो अंतरिक्ष से उतरा है, पता नहीं कहां जाने के लिए। जीवन की यात्रा का ये विस्तार, इसी से है संभव है कि यहां सब कोई, सबकुछ से परिचित हैं। हमारी कोशिशकाओं के केंद्र में, जो धातु के अवयव हैं... वो तारों से आये हैं। आकाश की तरफ देखते हुए, अगर हमको वहां सबकुछ, चिरकाल से परिचित नहीं दीखता तो हमारे बदन के निर्जीव ढांचे में कहीं, जीवन की कमी है। कसर है। 

अपरिचय, जीवनहीनता का परिचायक है। इसी से अहंकार सदैव अपरिचय भरा होता है, और इसी से वो जीवनरहित भी होता है। मेरी आस्था; जीवन में है, उसकी व्यापकता में है तो मुझे कुछ भी अपरिचित नहीं लगता। ना ही मैं किसी को अनजाना लगता हूं।

मैं सब जानता हूं! सबकुछ
ये अहंकार नहीं, सरलता है। विनम्रता है ये अनुभूति कि सबकुछ ही मेरा है, जैसे मैं सबका हूं।

लेकिन संसार में बहुत अहंकार है और बहुत लोग भी हैं... जिनके लिए अपरिचय अस्त्र है... हथियार, सत्ता का हथियार। और जिनके लिए परिचय, शोषण का ध्येय है।

अजीब है, कि किसी परिचित का शोषण, मुझसे नहीं हो पाता और कोई मुझसे परिचय बढ़ाकर मेरा शोषण करना चाहे तो धोखा और दगा जैसा अनुभव करता हूं। उससे विमुख हो जाता हूं। दुर्भाग्य ये है कि ये बातें मुझको व्यर्थ और अनुपयोगी बनातीं हैं।

तो उसने कहा कि मुझे किसी अपरिचित से बात करनी थी...
लेकिन बात ये है कि मैं किसी का भी अपरिचित हूं ही नहीं। उससे भी अजीब बात ये है कि जिनसे भी मेरा जितना परिचय होता है, वे मुझको उतना ही अपरिचित लगते हैं। अगर किसी को मैं एकदम आत्म परिचित पाना चाहता हूं, तो उससे अनजान हो लेता हूं। जितना अनजान होता हूं, वो उतना ही मेरा परिचित होता है। अजीब है ना, पर ऐसा ही है।

अनुभव ये पाया है कि गहन परिचित तबतक वही रहा किया, जिससे जबतक परिचय नहीं था। ज्यों ही उससे गहरा परिचय हुआ कि वो एकदम अपरिचित हो गया। 

ऐसा हो सकता है कि ऐसा होता है। ये उल्लू जैसी स्थिति है कि रोशनी होते ही, वो अंधा हो तो जाता है। तो वैसे ही... एकदम संभव है अपरिचय से भी परिचित रहना और गहन परिचय होते ही हो जाना अपरिचित।

Monday, April 23, 2018

सटाक! सटाक!

मित्र संजीव सिन्हा, श्रधेय फादर के. टी. थॉमस के साथ सेल्फी लेते

"ईसाई मिशनरीज देश को खंडित कर रहे हैं" महान भारतीय राष्ट्रवादी राजनीतिक पार्टी के एक सासंद ने दो दिन पहले कहा। अजीब है कि फिर भी दाखिलों के वक्त, देशभर में लोग, मिशनरीज के स्कूलों को ही प्राथमिकता देते हैं। सबसे पहले लाईन वहीं लगायी जाती है।

1979-80 था। गांव के मिड्ल स्कूल में सातवीं में पढ़ता था मैं। उस साल जनवरी में पास होकर पास के कस्बे के हाईस्कूल में आठवीं में दाखिला होना था।

पांचवी से ही बढ़िया समझे गये तरह-तरह के स्कूलों - नेतरहाट, सैनिक स्कूल, रामकृष्ण मिशन स्कूल... में दाखिले के इम्तिहान दिलाये जाते रहे। पर कहीं कुछ भीषण अयोग्यता थी मेरी। पांचवी से आठवी में जाने का वक्त आ गया और किसी अच्छी जगह दाखिला नही हो सका मेरा। ए कदम ही मूर्ख और बेकार विद्यार्थी था मैं। अभ्यास से सीखी गयी किसी भी विद्या में, आजतक यही दशा है मेरी। 

जब आठवीं में जाने का वक्त था, तो उत्तर बिहार के सबसे बढ़िया स्कूल  के.आर. हाई स्कूल, बेतिया में दाखिले के लिए ले गये बाबूजी। सांतवीं में दाखिल कराने का इम्तिहान था। गांव के मास्टर और स्विडन और कनाडा के फादरियों की अपेक्षाओं में फर्क तो होगा ही। सो प्रश्नपत्र अंग्रेजी में था। हम तो छठी में ABCD ही लिखना सीखे थे। कुछ समझ नहीं आया। 

परीक्षा खत्म होने पर खूब रोया मैं, उसी स्कूल की कैंटीन में बैठ। क्या स्वादिष्ट आलूचाप और पकौड़िया थीं उसकी। बाबूजी और दादा (बड़े भैया) साथ थे। दादा ने मुझे रोते से चुप कराते हुए, रोने का कारण पूछा तो मैंने निराशा से सिसकते हुए कहा, कि यहां मेरा एडमिशन नहीं हो सकेगा।

संजीव सिन्हा, श्रधेय फादर के. टी. थॉमस के साथ 
ये स्कूल मुझे बहुत पसंद आया था और मेरी इच्छा यहीं पढ़ने की थी। पर दाखिला संभव नहीं था। 


बाबूजी के एक मित्र थे, पश्चिमी चंपारण (बेतिया) जिले के पुलिस के खुफिया विभाग के डीएसपी।उनको साथ ले, बाबूजी ने उस वक्त के हेडमास्टर, फादर के. टी. थॉमस से बात की। फादर ने साफ मना कर दिया कि बहुत ही कमजोर है... नहीं पढ़ सकेगा। फिर भी हठ करने पर फादर ने सुझाव दिया कि पांचवी में दाखिला करा दीजिए... सांतवी तक आते आते ठीक हो जायेगा। 

मुझे रोते देख बाबूजी और दादा(बड़े भैया) को ममता हो आयी थी। वो मेरा दाखिला उस स्कूल में करा ही देना चाहते थे। इस तरह आठवीं में जानेवाला बच्चा, पांचवी में चला गया। इसका दुष्प्रभाव या कुप्रभाव तो बहुत हुआ... पर वो सुप्रभाव से ज्यादा ना हो सका।

एक लड़का था,  पांचवी में हमसे सीनियर था, लेकिन छठी में फेल कर शायद हमारा सहपाठी हो गया, नरेंद्र ध्वज सिंह। उससे बेतिया शहर में, डीक्रूज सर के हॉस्टल में रहने के चलते, जानपहचान सी थी। स्कूल का अपना बोर्डिंग था, लेकिन सातवीं कक्षा से ही उसमें रहने की सुविधा थी सो। स्कूल के बाहर, कई हॉस्टल थे। मैं डीक्रूज सर के हॉस्टल में रहता था। नरेंद्र ध्वज सिंह का वहां आना जाना था। इसी के चलते उससे परिचय था।

आज के बच्चे प्रैंक खेलते हैं, लेकिन शायद मैं तब भी अपने वक्त से आगे था। एक दिन मैंने एक पन्ने पर लिखा...
"मुझे क्यों उठाया तूने? 
कितना बढ़िया जमीन पर पड़ा था। 
शर्म नहीं आती तुम्हें,
किसी भी स्थिर चीज को हिलाते? 
मैं एक सादा पन्ना... 
कितनी शांति से सोया था। 
तेरी जिज्ञासा ने खलल डाल दी। 
मुझे उठाकार साबित किया तुमने 
कि तू एकदम गधा है।"

फिर इस पन्ने को मोड़ जेब में रखा और छोटे टिफिन के लिए निकल गया। हमारे स्कूल में, दो छोटे और एक बड़ा, तीन टिफिन होते थे। मेरी योजना थी कि पन्ने को छुट्टी के वक्त कहीं गिरा कर, छुपकर देखूंगा कि इसे पढ़नेवाले की क्या प्रतिक्रिया होती है।

लेकिन होना तो हादसा था। टिफिन में वो पन्ना मेरी जेब से स्कूल के बरामदे में गिर गया, ठीक मेरी छठी कक्षा के सामने ही। मेरे पीछे नरेद्र ध्वज सिंह आ रहा था। उसने पन्ना उठाया, पढ़ा और सीधा हेडमास्टर के पास चला गया।

हेडमास्टर थे वही श्रधेय फादर के. टी. थॉमस। उन्होंने नरेंद्र ध्वज से मुझे बुलाने को कहा। और खुद अपने दफ्तर से बाहर बरामदे में आ गये। नरेंद्र मुस्कुराता हुआ मुझे बुलाने आया। मैं घटना से अनजान निकल कर फादर के सामने खड़ा हो गया। फादर के एक हाथ में एक छड़ी थी, और दूसरे में वो पन्ना। उन्होंने पन्ना मेरी तरफ बढा़ते हुए पूछा - "ये तुमने लिखा है? मैंने ईमानदारी से स्वीकार ली गलती। लेकिन "क्यों लिखा ?" - उनके इस सवाल का जवाब, मेरे पास नहीं था। अगला कमांड था हाथ निकालो... सटाक! सटाक! सटाक! लगातार सात छड़ी पड़ी थी हथेली पर... प्राण निकल गये थे।

श्रधेय फादर के. टी. थॉमस 
आदरणीय फादर के. टी. थॉमम का उसी साल ट्रांसफर हो गया। लेकिन उन्होंने नरेंद्र ध्वज सिंह से मेरा परिचय करा दिया। स्कूल के अनुशासन और छात्रों की समझदारी और अपनी समझ का बड़ा फर्क बता गये।

के. आर. एलमुनाई, पुराने छात्रों के मिलनोत्सव में 38 साल बाद फादर के.टी. थॉमस का आना हुआ। मैं इस सम्मिलन समरोह में जा ना सका लेकिन मित्र संजीव सिन्हा ने जब फादर की तस्वीरे साझा की, तो लगा जैसे अतीत अचानक सामने आ खड़ा हुआ हो। और जैसे कल ही की बात हो। 

फादर को देखते पहली प्रतिक्रिया थी - कंपकंपी आ गयी, डर गया... एकदम वही अनुभूति, ठीक जैसे कोई मिड्ल स्कूल का छात्र अपने हेडमास्टर और उनकी छड़ी से डरा करता था।

अनुशासन बहुत महान सबक है, और वो जीवन में बहुत से लोगों के योगदान से आता है। आदरणीय फादर  के.टी. थॉमस उनमें एक हैं... बेहद अहम। जिन्होंने गंवार देहाती, कृष्णानंद को तमीज और संयम का सबक दिया। जिनकी छड़ी से ये सबक मिला कि लापरवाही नहीं चलेगी, और मजाक बेहद उच्च बौधिकता की बात है। 

आज पाता हूं कि फादर का दिया सबक कितना अहम था। आज पूरा देश नरेंद्र ध्वज सिहों से भरा पड़ा है भसड़ मची है, उनकी। 

अगर फादर के. टी. थॉमस, के.आर. हाई स्कूल में मुझे दाखिला नहीं लेते तो मैं एकदम कुछ और ही होता। जो हुआ या हो सका वो उससे तो एकदम अलग और कमतर ही होता।

Tuesday, January 23, 2018

नेताजी : नारे जो झूठ साबित हो गए।


तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा

ये पूरा नारा ही झूठ साबित हो गया। आजादी मिल तो गई, लेकिन वो खून के रास्ते नहीं मिली। इस नारे का एक भी शब्द आजादी मिलने का तरीके और रास्ते में नहीं जुड़ पाया। ये नारा और इसके पीछे के विचार को ही सच साबित करने का मौका, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को नहीं मिल पाया। अगर मिल भी पाता तो शायद सही नहीं होता कि उनका ये नारा... उस वक्त के हालात में कारगर साबित नहीं हो रहा था, वो इस नारे को सच साबित करने की कोशिश भी करते तो कामयाब नहीं हो पाते। अब ये वक्त की और भाग्य का लेख था कि ऐसा नहीं हआ और सुभाष चंद्र बोस...  आजाद भारत में भी नेता जी सुभाष चंद्र बोस रह गए। ये अलग बाद है कि उन्हें इससे ज्यादा और राष्ट्रीय सम्मान के साथ जगह मिलनी चाहिए थी।

आपको क्या लगता है, काग्रेस ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़कर देश आजाद करवाया?
दुनिया का इतिहास देखिए, किसी भी देश में ये मुमकिन नहीं हुआ है। गुलामी से छुटकारा मालिक की मर्जी से ही मुमकिन है। उनसे बातचीत करके, बतियाके। तभी एक गुलाम व्यवस्था, अपने पैरों पर खड़ा स्वतंत्र गणतंत्र बन सकता है।

हर ट्रांसफर-पोस्टिंग में चार्ज हैंडओवर-टेकओवर होता है।
ये एक व्यवस्था को दूसरे के हाथ सौंपने का तरीका है। अब मान लीजिए एक थानेदार अपनी बदली के बाद उत्तराधिकारी के आये बिना ही अपना बोरिया बिस्तर समेट चला जाए। अब जब नया थानेदार आएगा तो वो क्या करेगा, वो कर ही क्या लेगा। उसे हालात समझने में दो साल लगेंगे तबतक थाने के इलाके में गुंडों का राज चलेगा।

व्यवस्था से उग्रता से लड़कर, दुश्मनी भरी खूनी संघर्ष करके, आजादी पाना दरअसल, स्वतंत्रता नहीं, स्थापित व्यवस्था पर कब्जा करना है, जिसे तख्तापटल कहते हैं। हमलावर और विजयेता यही करते हैं। तख्तापटल के तरीके से जब भी कोई सत्ता परिवर्तन हुआ है,  नतीजे में एक अराजक, शासनहीन व्यवस्था ही स्थापित हुई है। जिसका आखिरी नतीजा गणतंत्र नहीं, तानाशाही हुआ है। उग्र तानाशाही से शांत गणतंत्र तक यात्रा, एक बेहद तकलीफदेह और लंबी प्रक्रिया है।

तो कांग्रेस ने अंग्रेजों से आजादी के पहले के कई दशकों तक मित्रतापूर्वक विरोध जताया, बातचीत की। उन्हें देश छोड़ जाने के लिए मनाया, सहमत किया और आखिरकार बाध्य किया। खुद नेता जी इस प्रक्रिया में कांग्रेस के साथ थे। किसी भी देश के लिए, अपनी सत्ता खुद संभालने का ये सबसे सहज और जरूरी तरीका है। हमें अंग्रेजों से केवल आजाद नहीं होना था, उसने शासनकरना भी सीखना था।

परिवार में बंटवारा होता है। अच्छे परिवार में मालिकाना हक बातचीत से... साथ रहते, तय होता है और बदल जाता है।

बुरे परिवारों में रातों-रात दो भाई आपस में बांट लेते हैं। परिवार का मुखिया जो कि बाबा होते हैं, वो अपने पटिदारों को जमीन, कर्ज, खेती, संपत्ति के बारे में कुछ नहीं बताते, बांट देते हैं। रातोरात हुई ऐसी बांट बाद परिवार पर मुसीबत टूट पड़ती है। बांटनेवाले सभी लोगों को (बाबा को छोड़) सबकुछ फिर से शुरू करना पड़ता है। उत्तराधिकार जब ऐसे हस्तानांतरित होता है तो भाई भाई एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, हत्याएं होती हैं।

उत्तराधिकार के हस्तांतरण का सही तरीका है... उत्तराधिकारी को धीरे-धीरे सारी व्यवस्था समझा-बुझा, बतलाकर, सत्ता उसे सौंपकर कूच कर जाना।

तो आजादी के लिए, आखिरी के दस साल अंग्रेजों से मित्रवत बातचीत की गई, उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी।

अब नेताजी सुभाष चंद्र बोस...
वो सेना बनाके देश को आजादी दिलाना चाहते थे। अंग्रेजों पर चढ़ाई करके। इसके लिए वो दूसरे विश्वयुद्ध के ब्रिटेन के दुश्मन... जापान और जर्मनी के नेताओं से मिल चुके थे। वो अंग्रेजों के दुश्मनों से मिल रहे थे। मुश्किल बात थी कि हमें आजाद तो अंग्रेजों से होना था।

अंग्रेजों से भारत को आजादी दिलानी थी। जो बातचीत से ही मुमकिन थी। कहीं बातचीत का ये रास्ता बंद हो जाता और अंग्रेज जाने से मना कर देते, तो आजादी कुछ और बरसों के लिए टल जाती। कम से कम उस पीढ़ी में तो वो नहीं ही मिलती।

अंग्रेजों से बातचीत चल रही थी।
और नेता जी, उनके दुश्मनों से मिल रहे थे। बस यही दुविधा की स्थिति थी कांग्रेस के लोगों के लिए। वो अगर नेता जी के साथ साफ-साफ अपना रिश्ता रखते तो अंग्रेजों को ये धोखाधड़ी लगता कि हम स्वेच्छा से सबकुछ बढ़िया से सौंप कर जाना चाहते हैं और ये हमारे दुश्मनों से मिल रहे हैं.... जाओ नहीं करते हम आजाद!

इससे ऐसा नहीं होता कि हम आजाद नहीं हो पाते, आजादी आते-आते कुछ और दिनों से टल जाती। अंग्रेजों को फिर से मनाना पड़ता, बातचीत की पूरी प्रक्रिया फिर से दोहरानी पड़ती। इसे खेल बिगड़ जाना कहते हैं। 


हम अंग्रेजों से उनका भारत जीतना नहीं चाहते थे। उनको अपने भारत से भगाना चाहते थे। जब कोई समान, जगह आप लूटेंगे... तो उसका राजनैतिक और विधिक कानूनी हस्तांनांतरण नहीं करेंगे उसपर जबरन कब्जा करेंगे तो लूट के बाद उस पर दावेदारी के लिए मारकाट मच जाएगी और सब तहस नहस हो जाएगा। जो ताकतवर होगा उसका अधिकार होगा। लेकिन ये जनता का नहीं... विजेयता का शासन होगा। आजादी के बात विभाजन यही बात थी... देश की लूट। लेकिन अगर वो समझौतापूर्ण और विधिवत नहीं होकर, युद्ध से होती तो देश की केवल विभाजन का दंश ही नहीं झेलना पड़ता। अंग्रेजों पर विजय की कीमत देश की बर्बादी होती। हम खुद ही इसे नेस्तनाबूत कर देते कि हमको स्वशासन का अनुभव ही नहीं था।

हम अपनी ही इंसानी फितरत पर गौर करें तो...
तो अगर किसी सरकारी दफ्तर में या कोई व्यक्ति आपसे काम करवाना चाहता हो। काम आपके कब्जे में है, आप उसका काम कर देने के लिए तैयार भी हैं। इसी बीच वो आदमी किसी बड़े अधिकारी, जिससे आपकी बनती नहीं, उस अधिकारी की सिफारिश लेकर आ जाए। या वो आपके दुश्मन से मिलकर आप पर दवाब डालने की कोशिश करे, ब्लैकमेल करने का प्रयास करे तो क्या करेंगे आप? उससे डर कर उसका काम फौरन कर देंगे या खींजकर उसका काम करने से मना कर देंगे और कहेंगे कि अब जब होता तब होगा तुम्हारा काम?

विचार कीजिएगा... ईमानदारी से.... इंसान की सामंतवादी सोच ऐसे ही काम करती है। दबाव और ब्लैकमेलिंग से वो खीज उठता है और जो काम वो करनेवाला होता भी होता है, उसमें भी अड़ंगा लगा देता है। हमारी भ्रष्ट व्यवस्था में ये बात खूब होती है। रिश्वतखोरी की हर कोशिश में हम इस बात का ध्यान रखते हैं का काम बिगड़े नहीं।

तो कांग्रेस बात कर रही थी और नेता जी अंग्रेजों के दूसरे विश्वयुद्ध के दुश्मनों से मिल रहे थे।


ऐसे में नेताजी का रुख कांग्रेस के लिए मुसीबत खड़ी कर रहा था। सो उसने नेता जी से अपनी दूरी बना ली. नरम-दल, गरम-दल याद तो होगा ही। अब दिक्कत ये हो गई आजादी के बाद भी ब्रिटेन के साथ कांग्रेस की नरमी बनी रही। जो स्वभाविक भी था। अच्छा मकान मालिक, अपने पुराने किरायेदारों से भी रिश्ता बढ़िया बनाए रखता है। बुरा मकान मालिक... मौजूदा किरायदार से भी टंटा किए रहता है।

अब आजादी के बाद भी कांग्रेस, अंग्रेजों से जुड़ी रही, मजबूरी सत्ता से संचालन में मदद की होगी। मजबूरी जो भी हो, लेकिन उसे आजादी के बाद उसे नेता जी को नकारना नही चाहिए था। यही उसने मूर्खता की।

नेता जी का तरीका चाहे जो भी हो, वो लड़ना इस देश के लिए ही चाह रहे थे। उनका तरीका उस समय के लिहाज से उचित भले ना हो, लेकिन उनकी मंशा एकदम दुरुस्त और सही थी। तो कांग्रेस को... आजादी के बाद नेता जी को जोड़ लेना चाहिए था। लेकिन उसने जापान और जर्मनी से उनके रिश्ते और ब्रिटेन से अपने रिश्ते को ही अहम मान-समझ लिया। ये बात सही नहीं हुई।

भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके सहयोगियों के साथ भी, ऐसा ही किया गया। ये सही नहीं था।
आजाद देश को एक आजाद देश की तरह व्यवहार करना चाहिए। देश से ये भारी चूक हुई।

रामेश्वरम में सेतु बनाने में श्री राम ने गिलहरी के योगदान का भी आदर किया, भले ही वो प्रभावकारी नहीं था। पर श्रीराम ने उस छोटी गिलहरी की कोशिश का मजाक उड़ानेवाले और उसे खारिज करनेवाले वानरों को डपटा था।

उस वक्त नेता जी ने ऐसा क्यों किया? कांग्रेसियों ने ऐसा क्यों किया?
इसकी सफाई समझाने उनमें से कोई भी यहां नहीं है। तो हम उनकी विवशताओं, और विचार का केवल अंदाजा ही लगा सकते है।

Sunday, November 12, 2017

फेसबुक का फंदा

"जुकरबर्ग ने एक स्त्री के अलावा किसी दूसरी स्त्री की ओर कभी देखा नहीं, इसी से खरबपति हो सके।"- जुकरबर्ग का इंटरव्यू था।श्रीमती जी ने मुस्कुराते हुए मुझे ये खबर दिखाई। मेरी प्रतिक्रिया थी कि झूठ बोलता है ये बेईमान। इन्होंने भले ही एक ही स्त्री की प्रति यौन निष्ठा रखी हो। शारीरिक रुप से एक ही स्त्री को देखा हो, लेकिन स्त्री केवल शरीर नहीं होती। उसके अलावा भी वो बहुत कुछ होती है। वो एक स्वभाव है।

इस आदमी ने अपनी पत्नी के अलावा हर स्त्री के उन स्त्रैणगुणों का शोषण किया है, जो उनके शरीर के अलावा, उनमें है। ये साहब, तन से भले एक ही स्त्री के प्रति निष्ठ रहे, लेकिन इनकी नजर, संसार के हर स्त्री के मनोविज्ञान पर थी। इन्होंने उसका ही दोहन किया। सबसे बड़ा शोषण तो जिज्ञासा, जानने की इच्छा और जलन के स्वभाव का किया। जुकरबर्ग ने इन भावनाओं को हवा दी, इन्हे भड़कया और फिर उसके ताप से कमाई की।

गपशप, गॉशिप और चुगली... हर व्यक्ति का चरित्र है, पर संसार इसे स्त्रैण गुण ज्यादा मानता है। अनुभव ऐसे ही हैं। वैसे हर पुरुष में थोड़ी स्त्री होती है। तो पुरुष भी ऐसा व्यवहार करते हैं। जुकरबर्ग ने पुरुषों के भीतर की उन स्त्रियोंपर भी नजर रखी। आज फेसबुक... व्यक्ति के इन्हीं स्तैणगुणों के चलते समाज में खलबली मचाए हुए है। उसने इसी इंसानी कमजोरियों का फायदा उठाया है। उसे ही बेचा और खरीदा है।


....स्त्री केवल शरीर के तौर पर नहीं, अपनी मनोवैज्ञानिक कमजोरियों के रूप में भी शोषित है। उनके इस गुण(अवगुण) का भी दोहन किया जाता है। एकता कपूर ने इन्हीं गुणों का शोषण कर अपना साम्राज्य स्थापित किया। बिग बॉस भी यही करके, सबसे ज्यादा कामयाबी बटोर रहा है। जुकरबर्ग इन सबसे अलग नहीं।यही बात मैंने, स्त्री विमर्श पर हो रही एक सभा के अध्यक्षीय भाषण में कही तो एक भद्र महिला एकदम से खड़ी हो गयी कि "आप ये क्या कह रहे हैं कि स्त्रियां गॉशिप करती हैं? वे बस सीरियल देखती हैं ! पर पुरुष भी तो ऐसा करते हैं। सीरियल देखते हैं, फेसबुक पर गॉशिप करते हैं।" वो बोलती रहीं... मैं सुनता। फिर जब वो शांत हुई तो समझाने की कोशिश की मैंने कि मैम! ये मैं नहीं कह रहा, जुकरबर्ग खुद ही स्वीकार चुके हैं। टीवी के प्रोड्यूसर अपनी क्रिएटिव मीटिंग में, इस पर ही विचार करते हैं कि पैसा कैसे कमाना है। टीआरपी कैसे बढ़नी है। लोगों को क्या पसंद आयेगा। तो वो गॉशिप ही टारगेट करते हैं। उसमें भी स्त्रीमन और मनोविज्ञान उनका आसान शिकार होता है। ये तरीका कामयाब भी है, लोग इससे पैसा कमा रहे हैं।

पता नहीं वो समझ पायीं या नहीं, पर अजीब ही स्थिति थी। वो भी तब, जब वो महिला, वेल इंफॉर्मड और बौधिक लग रहीं थीं । (इस पर ज्यादा नहीं बोलूंगा कि ये व्यक्तिगत हो जाएगा।) उस महिला की प्रतिक्रिया से मन क्षुब्ध हो गया कि औरतों के हक के लिए लड़नेवाले लोग औरतों की ही वास्तविकता से इतना अनभिज्ञ, अनजान कैसे हो सकते हैं।अब उसी फेसबुक के संस्थापक अध्यक्ष, शॉन पारकर ने खुलासा किया है कि फेसबुक की शुरुआत ही मनुष्य के मनोवैज्ञानिक कमजोरियों को भुनाने के लिए हुई थी। वो शुरू से ही मानव के खास तरह के मनोविज्ञान का शोषण कर रहा है। इसकी स्थापना के पीछे जो बुनियादी विचार था वो यही था कि आदमी एक दूसरे के बारे में जासूसी की हद तक जिज्ञासु होता है। तो व्यक्ति के दिमाग में घुस, उसकी मानवीय भावनाओं और कमजोरियों का दोहन करना सबसे सरल और फायदे का धंधा होगा।पारकर आगे कहते हैं कि शुरू में तो ये हमें सहज और मामूली बात लगी थी। पर तब पता ही नहीं था कि फेसबुक... एक दिन मनोवैज्ञानिक भावनाओं पर आधारित हमारे स्वभाव का इस तरह, इस हद तक शोषण करेगा... और हमारा सामाजिक व्यवहार और आचरण ही बदल देगा।

"The inventors, creators it's me, it's Mark [Zuckerberg], it's Kevin Systrom on Instagram, it's all of these people understood this consciously. And we did it anyway."

...
तो उन्होंने एक नहीं, हजारों, लाखों, करोड़ों स्त्रियों पर, अलग तरीके से नजर रखी, इसी से खरबपति हो सके।
ऐसा जुकरबर्ग ने खुद ही माना है। फेसबुक का सबसे पहला गॉशिप, हॉवर्ड के दिनों में ही था, जब सौ लोग भी नहीं जुड़े थे इससे, तभी एक छात्र ने अपनी गर्लफ्रेंड को गाली देते, उसकी निजता को फेसबुक पर शेयर कर दिया था। ये मामला हॉवर्ड में सनसनीखेज हो गया। ये खबर फैली कि रातों रात फेसबुक के... सब्सक्राइबर बढ गये।

वे बताते हैं कि हमलोग जो इनवेंटर या क्रिएटर थे, फेसबुक के लिए मैं और जुकरबर्ग थे, और इंटाग्राम के लिए केविन सिस्ट्रोम थे... हम सभी अपनी इन करतूतों के परिणाम, नतीजा और असर को अच्छी तरह समझ रहे थे... फिर भी हमने ऐसा किया।

अब असल बात ये है कि स्थिति और वास्तविक तथ्य की जानकारी अनिवार्य है। अन्यथा आप लगातार शिकार ही होते रहेंगे। क्रांति अगर होनी है तो उसे तथ्य आधारित होने की जरूरत होती है, तभी उसका वास्तविक असर होता है। नहीं तो नकली नोट पर लगाम के लिए नोटबंदी तो सरकार भी करती है... और नकली नोट अगले ही दिन बाजार में आ जाते है।


Monday, September 18, 2017

भिखारी और साधु

भिखारी और साधु का फर्क क्या है
भिखारी आपके पास आता है। फौरन जितनी जल्दी हो सके जितना हो सके शोषण कर लेने के ध्येय से। आपने उसकी योजना के मुताबिक प्रतिक्रिया नहीं किया तो वो आपको गालियां भी देगा।

आपने उसे शोषण करने दिया तो वो जोंक की तरह आपकी जान लेकर भी संतुष्ट नहीं होता। भिखारी... आपकी हर परिस्थिति का लाभ उठाएगा।
एक भिखारी दूसरे साधु...
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भिखारी भीख को अपना हक समझता है।
अगर भिखारी को लग गया कि आप उसे शोषण नहीं करने देंगे तो वो आपके पास दोबारा नहीं फटकेगा। लेकिन शोषण की सुविधा नहीं मिलने पर वो आपको गालियां और बददुआ जरूर देगा। आपको दुश्मन की तरह देखेगा मानेगा समझेगा।
साधु भी आपके पास आता है पर वो फौरन नहीं चाहता कुछ भी। वो आपके पास बैठता है आपसे बातें करता है लेकिन कुछ मांगता नहीं। आपको लगता है कि उसको कुछ देने की जरूरत है तो दीजिए अन्यथा वो चला जाएगा, और कुछ समय बाद फिर आएगा। तब तक आता रहेगा जब तक कि आपसे उसका एक रिश्ता नहीं बन जाता है और आप उसके आने से खुश नहीं होते। उसका इंतजार नहीं करने लगते।
साधु... अपनी भिक्षा के लिए एक परिस्थिति बनाएगा,
तो संसार में लोग भी ऐसे ही होते हैं...
भिखारी आपके रिश्ता, शोषण के लिए बनाएंगे शोषण करेंगे और निकल जाएंगे... शोषण नहीं होने देने पर वो आपको गालियां और बददुआ भी देंगे। भीख को वो अपनी चालाकी से हासिल किया अपना हक समझेंगे और मानेंगे।

साधु आपसे रिश्ता बनाएंगे... और उसी से खुश संतुष्ट रहेंगे। रिश्ता होगा तो स्वत: ही उनको कुल लाभ होगा जिसे वे बहुत ज्यादा महत्व नहीं देंगे। भिक्षा को वो आपकी उदारता समझेंगे।

Sunday, September 17, 2017

कायर अतीत, भीरु भविष्य

जो हम, हमारे अतीत और अपने पूर्वजों के आचरण पर गहनता से गौर करें, तो समझ आता है कि भाग्यवाद और अज्ञानताभरे अंधविश्वास के तरीके में उन्हें, अपनी निकृष्टतम् से निकृष्टतम् करतूत की जवाबदेही और जिम्मेदारी से बचने की तरकीब आ गयी थी।

अतिधार्मिकता भरी उनकी इस भीरुता और कायरता ने हमारे समाज का बड़ा नुकासान किया। बेहतरी के लिए कोई भी कदम उठाने से वे बचते रहे और समाज पर मूर्खताओं की परत दर परत चढ़ती गयी। जिसे ही ये, विरासत में मिली संस्कृति, आस्था और संस्कार समझ बैठा।

ऐतिहासिक घटनाओं वाली हर कथा हमारे यहां चमत्कारिक संकल्पनाओं से भरी होती हैं। अविश्वसनीय विचित्र कारनामों और होनी पर अटूट आस्था और विश्वास... तार्किकता आधारित, जिम्मेदारियों से मुक्त कर देती है। 
इसी से भोजन के विषाक्त हो कर अस्पताल में दाखिल होने वाले की जान बचाने के लिए हम यज्ञ करने लगते हैं। पूजा करने लगते हैं। विष के प्रति हमारी जवाबदेही नहीं। भोजन का विषाक्त ना होना, हमारी जिम्मेदारी नहीं। वो तो भाग्य है... ईश्वरीय इच्छा!

अजीब है...
लंकापति रावण दुष्ट था क्योंकि वो पूर्वजनम का दानव था। मगध नरेश धनानंद भ्रष्ट था क्योंकि उससे शरीर में एक प्रेत का वास था।


प्रेत... पूर्वजनम की बात हुई नहीं कि अब कोई सवाल ही नहीं कि अब तो ऐसा ही होना तय है... कि ये होनी मानव शक्तियों से बाहर की बात है। ये भाग्य है। ये एक ऐसी अवधारणा है जिसके बाद पतनोनुमुख से पतनानुमुख कृत भी न्यायोचित है। क्योंकि यही होनी है... भाग्य।

इसी से हमारे पूर्वज, विश्व विज्ञान में कोई महान योगदान नहीं कर सके। आधुनिक संसार की जिस तकनीकी शिखर पर हम विराजमान हैं, इसमें उनका कोई योगदान नहीं हुआ।

पानी तो भारत में भी उबलता था पर भाप इंजन यूरोप में क्यों आविष्कृत हुआ? वो मेधा, जो यहांं का हिस्सा थीं वो, भाग्य और चमत्कारिक होनी पर विश्वासों के पहाड़ के नीचे, क्यों दब गयी?

आधुनिक विश्व में हम बस उपभोक्ता बन कर रह गये, एक बाजार भर। उससे पहले हजारों बरसों तक बस गुलाम ही रहे.... क्यों?

क्योंकि ये 'होनी' थी। दुनिया की सर्वाधिक उर्वर भूमि का भाग्य।

अपनी स्त्रियों का हम अब भी, और हजारों बरसों से शोषण करते आ रहे हैं, पूर्व जन्म और भाग्य के लेख का सहारा ले। उनकी हालात में सुधार के तनाव से बचते रहे, इस जवाबदेही और जिम्मेदारी से भागते रहे तो वजह केवल और केवल -  "होई हें वही जो राम रचि राखा"।

फिर ये क्यों कहा और उस पर भरोसा क्यों नहीं किया? -
करत-करत अभ्यास के, जरमति हो सुजान ।
रसरी आवत जात तें, शिल पर पड़त निसान ।।


वजह वही कि कौन करे? कौन ले तनाव? कौन उठाए जुआ? कौन जोते भाग्य, होनी, भूत और भगवान पर... कर्म का हल?

कर्म की 'गीता' यहां परवचन के लिए है...  सुनने सुनाने के लिए...
हजार साल पहले तो इस काबिल भी नहीं थी। गीता महात्म चर्चा की बात है, उस पर अमल के लिए।


आरामतलब, संतोषी हम... जो मिला, खाया किए। जहां हुआ, सोया किए। जैसे भी हुआ, जीया किए। सचमुच की हवा में सांस लेते रहे और विश्ववास करते रहे कि सब माया है।

भौतिक दुनिया में जीते हुए उसे नकारते रहना ही तो है... सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर का विश्वकर्मा पूजा करना। कमजोर बांध पर ब्रह्मा के आशीर्वाद की अपेक्षा करना।

हमारे पूर्वजों ने हमें यही विरासत दिया है... यही गुणसूत्र है, यही संस्कार। इसी से हम अब भी वास्तविकता के हाथों ठगे जाते हैं। हर वास्तविक चालाकी, हमें भाग्य का झांसा दे ठग लेती है। और हम अपने पूर्वजों सा ही जीवन जीने को अभिशप्त हैं...  हम उनके गुणसूत्रों में छपी इस त्रुटि की अवहेलना कर ही नहीं पा रहे। इसे दुरुस्त, ठीक करना हमारे वश में ही नहीं।

Friday, September 15, 2017

एक राष्ट्र का आत्मघात!

राजनीति...
चाणक्य और अरस्तु ने नियम बनाए। भारत के पुरखों ने कहा - "साम, दाम, दंड, भेद... कि कैसे भी हो, लेकिन हाथ हो, कि सत्ता ही सच है।


सत्ता सच है - ये तथ्य राजाओं के काल में प्रासंगिक हो सकता है। कि तब देश संपत्ति था। जन और संसाधन, धन थे जिसपर कोई भी विजय हासिल कर आधिपत्य कर सकता था। विजयेता मालिक था और विजयित बस एक सामान, गुलाम।

प्रजातंत्र में जब जनता ही अपने सहूलियत के लिए नीति निर्धारक, नियामक और नियंत्रक चुनती हो। कि वे जनता के हित का ध्यान रख शासन की व्यवस्था करें। तब तो ये पागल कर देनेवाली जिम्मेदारी है कि जिम्मेदारी दुनियाभर की और सुविधा ढेले भर की नहीं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दरअसल, राजाशाही के दौर का 'जिम्मेदारी कुछ नहीं और सुविधा दुनियाभर की' वाला कायदा ही लागू रहा।

प्रजातंत्र आधा ही स्वीकार किया। राजा ने प्रजा के खिलाफ साम दाम दंड भेद इस्तेमाल कर सत्ता पर कब्जा किया।

कब्जा, सत्ता, राज... ये प्रजातंत्र की अवधारणा होनी नहीं चाहिए। पर सदियों से राजाओं में विश्वासकर उनकी कहानियां सुननेवाले हम प्रजातंत्र को भी राजतंत्र की तरह समझा और बना दिया।

हम आधे अधूरे हैं, सदा ही ऐसे रहे। आधा गुलाम, आधा आजाद। आधा प्राचीन, आधा आधुनिक। मोबाइल में जय हनुमान की तस्वीर शेयर कर नीरोग होने की दुआ मांगनेवाले। अपने परिचित मरीज को आधुनिकतम दवा के नाम से नकली दवा खिलाते वक्त उसके काम करने दुआ मागंनेवाले...

नतीजा ना दवा काम करती है और ना दुआ। नकली दवा तो काम नहीं ही करती और दुआओं ने आज तक काम नहीं किया है, सो वे भी नहीं करतीं। प्रजातंत्र के साथ भी हमने यही, ऐसा ही किया है।

तीन दिन पहले फिल्म देख रहे थे हम...
मल्टीप्लेक्स की तीनों स्क्रीन युवाओं से खचाखच भरीं थीं। सिनेमा आधा घंटा बीता कि अचानक बच्चों की भीड़ आ गयी और सारी सीटें भर गयी। कुछ देर बाद समझ आया कि बच्चे, दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज के हैं। जिनको छात्र यूनियन के चुनाव के दौरान, कोई छात्र संगठन, सिनेमा दिखाने लाया है।


वे, सिनेमा के दौरान, फिल्म रोक-रोक कर उनसे वोट मांग रहे थे। सौ, सवा सौ रुपये के सिनेमा टिकट के बदले वोट।

घर आकर अपने छात्र राजनीति में सक्रिय अपने भांजे से पूछा कि ये क्या था। पता चला हर छात्र राजनीतिक संगठन ऐसा करता है। छात्र चुनावों में पार्टीज, सिनेमा, पिट्जा वेगैरह का दौर खूब चलता है। इसके लिए देश की राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां खुलकर निर्बाध फंड देती हैं। देश में सत्ताधारी पार्टी के छात्र संगठन के उम्मीदवार करोड़ों खर्च करते हैं। तो सत्ताहीन पार्टी के उम्मीदवार कुछ करोड़ करते हैं। पर ये चलन अब आम और सहज, सामान्य बात है।

ये तरकीब काम करती है, कि नतीजा सामने है। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में एनएसयूआई का ही वर्चस्व स्थापित हुआ है।

अजीब है ना... हमारी व्यवस्था अपने युवाओं को राजनीति का बुनियादी अनुभव ही भ्रष्टाचार के जरिए देती है।  रिश्वत और लोभ... बस अपनी पसंद की एक फिल्म, अपने फेवरिट स्टार की कोई फिल्म देखने की मुफ्त रिश्वत भर केलिए वे किसी को भी कॉलेज की व्यवस्था और उससे राज्य और देश की व्यवस्था के संचालन और निर्धारण का अधिकार दे देते हैं।
एक फिल्म भर के लिए उस व्यवस्था से खिलवाड़, जिसमें खुद उनको ही जीना है। केवल मनोरंजन के लिए अपने ही जीवन के दारोमदार और भविष्य नियामक के प्रति लापरवाही करना...

हम अपने युवाओं को देश की व्यवस्था के प्रति इस तरह से व्यवहार करना सिखाते हैं। राजनीति की उनकी बुनियादी समझ ही हम ऐसे विकसित करते हैं फिर क्या उम्मीद उनसे।

वे ताउम्र अपने लिए ही जहर की खेती करते रहेंगे। जो जहर वापस लौट उनकी ही जान लेगी, वे... वही उपजाते और बेचते रहेंगे।
अजीब विडंबना है हमारे समाज का!

कितना बदकिस्मत है हमारा समाज!
क्या दुर्भाग्य है उसका! कि उसके अधेड़ पिता ही उसकी नसों में साइनाईट इंजेक्ट कर रहे हैं।


हा! हत भाग्य इस राष्ट्र का!

और लोग देशभक्ति और राष्ट्रीयता की चर्चाएं करते हैं।
क्या प्रहसन है!

Wednesday, September 13, 2017

तुम तो सब जानते हो!

"तुमको क्या कहना!
तुम तो सब जानते, समझते हो।"
अदभुत है ये अनुभूति, जब संपर्क और संबंध में साम्यवाद हो, एक विचित्र बराबरी। शबरी ने बेर खाकर खिलाए... प्रभु ने बेहिचक खा लिए। बात यही तो थी... "तुम तो सब जानते हो।"

श्रीकृष्ण ने सदैव यही तो किया था। ये उनका सहज स्वभाव था... 'सब जानना', अंतर्यामी होना। इसी से वे 'भगवान' थे।

अंतर्यामी होना... सबके बूते की बात नहीं। कोशिश सब कर सकते हैं, करते भी तो हैं हीं, पर 'सब जानना'; सबसे संभव नहीं। क्योंकि ये कोई हुनर या सबक नहीं कि सिखाया जा सके या सीख ले कोई आदमी। 'सब जानना' तभी ही संभव है, जब व्यक्ति का स्व मिट जाए। संपर्क में, संबंध में शामिल व्यक्ति या वस्तु, स्व को मिटा, एकाकार हो जाएं...  'सब जानना' तभी मुमकिन है।


बिजली, तारों में दौड़ती है, तो धातु के इसी -  'सब जानने' के गुणों से, धातुओं के आपस में जुड़ते ही एकाकार हो जाने के गुणों से। सुचालक होना, दरअसल विद्युत उर्जा के लिए एकाकार हो जाने का गुण है। तो 'सब जानना' दरअसल, अस्तित्व के साम्यवाद की स्थिति है।

दावा सब करते हैं, 'सब जानने' की; कोशिश भी। लेकिन अपने स्व को छोड़ ही नहीं पाते, तो 'सब जानना' मुमकिन ही कैसे है उनके लिए। अहं, वजूद, अपने होने का भान, और गुमान यानी अहंकार... ही सूचना और ज्ञान की प्राप्ति में बाधक हैं। 'सब जानना', दरअसल सूचना के अदृश्य सार्वभौमिकता में  सदैव, सर्वत्र उपस्थित रह पाने के हुनर से मुमकिन है। ये गुण तो ईश्वर का है, इसी से हमने उसे अंतर्यामी कहना शुरू किया। पर इस तरह सर्वत्र सबकुछ से एकाकार हो लेना केवल ईश्वर के ही बूते की बात नहीं। व्यक्ति भी ऐसा एकाकार हो पाता है... जब वो स्व से मुक्त होता है।

स्व से मुक्ति का प्रयास ही तो साधना है, तपस्या है, योग है। ये अजीब है कि आप जितना ही अपने स्व से मुक्त होंगे, आपका स्व, उतना ही व्यापक होता जाएगा, फैलता और बड़ा होता जाएगा। ये फैलना ही तो एकाकार हो जाना है।

दो व्यक्ति, अपने-अपने स्व को खत्म कर एक हो गये, अब दोनों के दोनों ही एक दूसरे में हैं, दोनों में हैं। इसी तरह वे फैल तो गये ना। ऐसे ही तो 'सब जानने' की स्थिति बनती है... कि आपका स्व जितना विलोपित होगा, आप उतना ही व्यापक होंगे और आपकी अंतरयामिता उतनी ही विस्तृत होगी।
ईश्वर ने खुद से एक बूंद निकाला और उसमें स्व की जबरदस्त चेतना भर दी, भीषण अस्तित्व भाव भर दिया। और उसका नाम दिया - जीवन। जीवन में भरी ये स्व चेतना और अस्तित्व भाव, अपनी पराकाष्ठा पर हुआ तो वो इंसान हो गया।

तब ही तो कहते हैं कि जब व्यक्ति नष्ट होता है, उसका जीवन खत्म होता है, तो वो ईश्वर में विलीन हो जाता है। वो ईश्वर हो जाता है। हर उसी जीवित व्यक्ति ने ईश्वर का अनुभव किया, उसकी संज्ञा पायी है, जिसका स्व, जीते जी विलुप्त हो गया।

हर व्यक्ति के लिए ईश्वर होना मुमकिन है, उसका अंतर्यामी होना संभव है, शर्त है वही... अस्तित्व से मुक्ति। कम से कम उनके साथ तो हम ईश्वर हो ही सकते हैं, जो लोग हमारे साथ हैं, जिनसे हम प्रेम करते हैं।

लेकिन ईश्वर ने अस्तित्व-भाव और स्व-बोध को जीवन से संलग्न कर दिया है, उसे जीवन की अनिवार्यता कर दी है। अब 'स्व' इतना जरूरी है कि 'स्व' का खात्मा, मौत का अनुभव है। 'स्व' नहीं, तो जीवन ही नहीं।
भौतिक जीवन का होना, स्व के होने से ही संभव है। इसी से हर जीवित व्यक्ति के लिए स्व से मुक्ति असंभव है। स्व-बोध उसके अस्तित्व में इस तरह बुना हुआ है कि वो निकाल ही नहीं पाता है।

पर उसे अक्सर अपने स्व-मुक्ति, अस्तित्वहीनता का अनुभव होता है। ईश्वर ने इसकी व्यवस्था की है।

एक गहन परस्पर सुखद रति के चरमोत्कर्ष में व्यक्ति जो परम्-आनंद का अनुभव करता है, वो स्व मुक्त होने का ही तो अनुभव है।  लोग अभिव्यक्त नहीं कर पाते सेक्स के उस चरमोत्कर्ष को, तो कहते है कि ऐसा लगता है जैसे 'कुछ भी नहीं हैै', 'सब गायब', 'एकदम हल्का', 'खुद को उड़ता सा लगता है।

यही तो है स्व से मुक्ति। रति के चरम में क्यों है ये स्वमुक्ति...  क्योंकि वो सृजन की प्रक्रिया है। सृजन की प्रक्रिया में सृजक की स्वमुक्ति आवश्यक तो है ही। सृजक खुद को नहीं छोड़ेगा, तो कुछ और रच ही कैसे पाएगा। इसी से हर कलाकार, सृजनशील, सृष्टा, क्रिएटिव व्यक्ति... आपको संतुष्ट, शांत और प्रसन्न दिखेगा। कि वो लगातार ही रति के चरमोत्कर्ष जैसा स्वहीनता अनुभव करता है।

प्रेमरत दो व्यक्ति, जब स्वहीनता का अनुभव करते हैं, तो उस अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ हो कहते हैं... बड़ा ही अजीब, अदभुत, गजब, कमाल... पता नहीं कैसा! पर बहुत ही अच्छा लग रहा है। स्वहीनता, अस्तित्व के गायब हो जाने की अनुभूति ही, प्रेम का सर्वोच्च अनुभव है। यही असल में दैविक, ईश्वरीय प्रेम है। क्योंकि अस्तित्वहीनता ही ईश्वरीय अनुभूति है। 

केवल प्रेम ही नहीं... हर भौतिक सुख या मानसिक खुशी, या आध्यात्मिक आनंद, दरअसल स्व मुक्त अस्तित्वहीनता का अनुभव है।

गौर करें तो पता चलता है कि बेहद गहन, बहुत ही भावपूर्ण चुंबन हो या प्रेमभरी गहन रतिक्रिया, उसका चरमोत्कर्ष हो या उन्मादपूर्ण कोई हिंसा हो, या कोई कलाकारी, कला का सृजन, संगीत, शिल्प, पाककला (कुकिंग) या फिर विज्ञान में सूचना की खोज, आविष्कार, या कि साधना और तप से ज्ञान की प्राप्ति... सब स्वहीनता का ही अनुभव हैं।

कभी विचार किया कि चुंबन में वो क्या खास बात है, जो गजब का अनुभव है। वे कुछ क्षण वही तो हैं, जिसमें अपने अस्तित्व और स्व को विलोपित कर देना है। गहन आलिंगन, गले लगने में भी वही बात है... स्व का भूल जाना।

हर व्यक्ति, क्षणिक रूप में ये स्वहीनता अनुभव करता ही है। और जब उसका समस्त स्व, सदैव के लिए खो जाता है तो वो मर जाता है।
खिलखिलाकर हंसने में भी तो वही बात है, उन क्षणों में हमको अपना अस्तित्व पता नहीं चलता। हम भूल जाते हैं स्व को।

सुख, खुशी, आनंद... दरअसल क्षणिक स्वहीनता का अनुभव है। स्वहीनता एकाकार करती है। कुछ नहीं होना ही, सबकुछ हो जाना है। यही स्थिति, सब कुछ जान लेना मुमकिन कर देती है।

सर्वत्र और सदैव जो हो, वही सर्वज्ञ हो सकता है। और स्वहीन व्यक्ति ही, सर्वत्र और सदैव हो सकता है... इस तरह, वही सर्वज्ञ भी हो सकता है।
"तुम तो जानते हो! तुमको क्या कहना!" ये अवस्था, एक दूजे में अपना स्व विलीन कर चुके, स्वहीन व्यक्तियों के बीच ही मुमकिन है।

मथुरा और द्वरिका में, द्वारिकाधीश वासुदेव श्रीकृष्ण के सामने खड़ा हो मैंने, यही अनुभव किया था। मां और बाबूजी की जलती चिताओं के सामने भी यही अनुभूति थी।

...और भी कई अवसर हैं... जब अस्तित्वहीन हो जाने का ऐसा अनुभव होता है मुझे। हर सृजन, गहन लेखन के दौरान, ऐसी ही स्वहीनता की अनुभूति होती है।

और जब ऐसा होता है, तब मैं सब जानता हूं। सदैव, सर्वत्र होने सा भान होता है। ये एकदम ईश्वरीय अनुभव है। खुद को खो देना कमाल की फीलिंग है। हर व्यक्ति को, संबंध और संपर्क में अपना स्व खो, विलीन हो जाना चाहिए, प्रेम तभी फैलता और फलता-फूलता है।।

हर व्यक्ति जब, अपना स्व खो, समाज में विलीन हो जाएगा है, ये संसार तभी सुंदर हो सकता है। पर ये सबसे मुमकिन ही कहां है!...  तो समाज और संसार में बदसूरती और कुरूपता बनी रहेगी और व्यक्ति का उससे संधर्ष जारी रहेगा। ये कुरूपता दरअसल अहंकार है... अति अस्तित्वबोध।
अहंकार और अति अस्तित्वबोध ही हमारी तमाम समस्याओं का मूल है। इससे हमारा संघर्ष ही हमारी चुनौती और बाधा है।

हम नहीं थे, हम नहीं होंगे...
मतलब अतीत में हम नहीं थे, भविष्य में हम नहीं होंगे। ना होने से फिर ना होने के दरम्यान 'होने का' ये जो तीव्र और सशक्त अनुभव है, वो ही जीवन है और वो ही इसकी तमाम मुसीबतों की वजह भी है।


भ्रष्टाचार, हिंसा, बेईमानी, धोखा... जैसी सारी मुसीबतें, तीव्रता और गहनता से अति-स्व और परम-अस्तित्व की अनुभूति का नतीजा हैं।

तो इस तरह, तकलीफों और समस्याओं से मुक्ति पाने और 'सब जानने' के लिए, स्व को छोड़ना जरूरी है, अति-स्व को तो सबसे पहले।

Sunday, October 9, 2016

गुलजार - एक नशा


गुलजार एक बारगी सबको अच्छे लगते हैं। मुझे भी... लगे थे। लेकिन जो वो लगातार अच्छे लगते रहते हैं तो कविताओं की समझ में कोई कसर रह गई है हमारी। हम मोहपाश में बंधे हुए हैं और हमारी मति मारी गई है।

इस आदमी के तरकश में गितनी के तीर हैं। नए युद्ध में ये चूक जाता है।

इस आदमी ने कविताओं में एकरसता ला दी। इसके मोहपाश में फंसे 'कवियों' ने अपनी नहीं, इसकी नकल में, इसकी तरह की कविताएं लिखी। और पूरा एक काल इस आदमी की जैसी ही कविताओं से पट गया है।


नशा है ये... हां 
नशा!
कि कई पीढ़ियां कविताओं का मतलब ही गुलजार का Absurd Metaphor समझने लगीं। वैसी कविताएं लिखने लगीं, वैसी ही बात कहने लगीं। उसी को प्यार और मोहब्बत समझने लगीं।

मार्केटिंक के पुरोधा मानते हैं, कहते हैं, उनकी एक चाल है, जिससे वो चलते हैं... वे मानते हैं कि लोगों को व्यवहारिक और वाजिब से ज्यादा, बकवास और बेमतलब चीजें याद रहती हैं। अगर उन्हें सिखाओ, पढ़ाओ और बताओ... (जिसकी प्रक्रिया अलग होती है। सिखाने की प्रक्रिया से ही वे पहचान जाते हैं कि उन्हें समझाने की कोशिश की जा रही है) तो वो सीखने से झिझकते, हिचकते ही नहीं, उसका विरोध भी करने लगते हैं। लेकिन अगर बात मनोरंजक हो, हैरानी भरी हो, भले ही एक सिरे से बकवास हो तो वो उन्हें याद रहती है। 

इसीलिए विज्ञापनों में बकवास बातें होती हैं। मकसद ब्रांड, उत्पाद याद कराना होता है। बेचना होता है।

गुलजार ने भी यही तरीका अपनाया। अपना ब्रांड, उत्पाद याद कराने के लिए.... कई पीढ़ियों की कल्पनाशीलता, नष्ट कर दी। वो सिर्फ गुलजार छाप गीत, कविताएं लिखने लगीं। व्यापारियों ने गुलजार नाम के इस ब्रांड और उत्पाद का खूब लाभ उठाया और बाजार से नए आविष्कार की संभावना ही मिटा दी। जिन्हें कुछ नया करना चाहिए था, पर वो बस इस आदमी की नकल करने लग गए और उसे ही साहित्य का चरम् समझने लगे।


गुलजार ने जितना दिया है, उतना बर्बाद किया है।

साहित्य, विधा, उसे रचनेवाले विधाता से ज्यादा बड़ी होती है। पर यहां विधा से ज्यादा बड़ा विधाता हो गया, और विधा ही नष्ट हो गई।

गुलजार के नशे से उबरने में समाज को अपनी कई पीढ़िया खर्च करनी पडेंगी। ये अच्छा नहीं हुआ। कि वक्त की कोई भरपाई नहीं होती है। वो सदा कुछ नया रचता है, और रचना के नयेपन पर अंकुश लगा, उसे अपने ही रंग में रंग देना विधा और वक्त के साथ छल है। धोखा है।
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मिरजिया फिल्म, गुुुजाार ने ही लिखी है!!! 

काहे लिखता है अब ये आदमी?

80 के करीब पहुंचे मेरे छोटे चाचा कहते हैं कि 80 साल के बाद आदमी अचानक से थहस जाता है। मतलब अचानक से बूढ़ा और कमजोर हो जाता है। शरीर, सोच, यादें, संमझ सब एकबारगी को बैठ जाती है। इसके लिए वो अपने पिता, चाचा, ताऊ, दादा और अपने से बड़े भाईयों का तो हवाला देते ही हैं। गांव के और दूसरे बुजुर्गों के बारे में भी बताते हैं। चाचा की बातें वैलिड हैं।

तो सवाल है कि अब कितने दिन तक ये आदमी 'वक्त से लम्हें' टपकाएगा? 'शाख से पत्ते' गिराएगा? 'बादल के फाहे' बनाएगा? 'चांद से मखमल' चुराएगा? बहुत हुआ यार अब बंद करो ये।

इतने दिन में देश में एक दर्जन सरकारें बदल गई। देश की अर्थव्यस्था कहां से कहां चली गई। दिनकर प्रेमचंद्र पुराने होगए, शोभा डे आ कर चली गईं। चेतन भगत भी गुजर गए। स्याही, दबात, कलम... खत्म हो कर वर्चुअल की-बोर्ड आ गया, पर ये आदमी अब भी शबनम की बूंदों से प्यास बुझा रहा है।

पका दिया है गुलजार नाम के इस महान आदमी ने। लेखक को भी तो रिटायर्ड होना चाहिए। अरे दिमाग एक वक्त के बाद नया नहीं सोच पाता है, बुढ़ापे में तो पुराना भी नहीं याद रहता उसे...।

तो भक्तो अब माफ करो ना दादा जी को। बहुत चूस लिया इनका खून। अब तो चूक जाने दो इन्हें। जान लोगे क्या इस बूढ़े की अब?

मिरजया... एकदम बकवास फिल्म है। फिल्मांकन, एडिटिंग, म्यूजिक, गाने सब एकदम बकवास है। बनाई हुई ही बकवास है ये फिल्म। सबके वाहियात को लिखी हुई हैं. और विचित्र है गुलजार नें लिखी हैं।

अब छोड़ देना चाहिए, इनको लिखना पढ़ना...

सारे पुराने लोगों ने समय से ये किया था। पर ये और इनके भक्त अब पकाए रखते हैं। गुलजार के गीत मुझे पसंद थे। पर इतने लंबे वक्त तक ये आदमी एक ही तरीके के रूपक इस्तेमाल कर कर के पका दिया है।

अब हटाओ यार इनको।

Thursday, October 6, 2016

चिट्ठियों का चुतियापा



हाईस्कूल में था तब। हुआ ये कि मेरे हमउम्र फुफेरे भाई ने एक दिन कहा कि भाई! हमको एक आदमी को 'ठीक' करना है। प्रश्न में मैंने आंखे उठाई तो उसने बताया कि उसके गांव में, घर के पास कुछ दुसाध बदमाशी कर रहे हैं। वो जब तब खेत से कुछ उखाड़ ले जाते हैं। कहने पर मानते ही नहीं। शिकायत से बात नहीं बनती है कि थानेदार भी उनका ही सजातीय दुसाध ही है। तो कुछ करना है, उनको सीधा करने के लिए।

मैंने पूछा कि क्या करना है, कुछ आइडिया हो तो बताओ?
भाई ने सुझाया कि एक नोटिस भेजनी है उसे, सरकारी जैसी। लगे कि सरकारी फरमान है और वो घबरा जाए। आइडिया में दम था। हम दोनों ने विचार किया।

मेरी हैंडराइटिंग अच्छी है सो मैंने एक सादे पन्ने पर खूब साफ सुथरी, एक चिट्ठी लिखी। जिसका मजमून था कि "तुम्हारे बारे में बहुत शिकायत आ रही है। तुमको थाने में हाजिर होने का आदेश है। अन्यथा तुम्हारे नाम से वारंट जारी किया जाएगा और गिरफ्तार किया जाएगा। जो तुम गिरफ्तार नहीं हुए तो कुर्की जब्ती भी हो सकती है।"
 
कई बार रफ करने के बाद, उसका एक बेहद खूबसूरत फेयर किया गया। अब मुसीबत थी कि उसे सरकारी कैसे लगना चाहिए। बहुत दिमाग लगाया तो सामने ही एक 'गुल' की डिब्बी पड़ी दिख गई। (गुल तंबाकू से बना दंतमंजन होता है। जिससे नशा जैसा हो जाता है। वो अक्सर टिन की एक छोटी गोल डिबिया में आता है।) उस डिबिया के ढक्कन पर गुल कंपनी का लोगो पंच किया था। जिसके चारो तरफ गोलाई में कंपनी का नाम भी पंच किया था। डक्कन में ये सारी चीजें मुहर के समान उभरी होती हैं। हमको लग गया कि ये मुहर की तरह इस्तेमाल हो सकता है। हमने ढक्कन पर इंक लगाई और उसे मुहर बना कर चिट्ठी पर ठोक दिया।
 
गजब हो गया! ढक्कन की छाप लगते ही चिट्ठी एकदम आधिकारिक और शासकीय लगने लगी।
 
पोस्ट ऑफिस जाकर एक सादे लिफाफे पर डाक टिकट चिपकाया और उस दुसाध के नाम पर उसे पोस्ट कर दिया। ध्यान था कि सरकारी चिट्ठियां, डाक विभाग के लिफाफे पर नहीं आतीं हैं। वो सादे लिफाफे पर होती हैं, जिन पर डाक टिकट चिपका होता है। डाक विभाग के लिफाफे तो निजी और व्यक्तिगत चिट्ठियों के लिए होते हैं।

तीन दिन बाद जब वो चिट्ठी उस दुसाध को मिली तो वो घबरा गया। लोगों को पढ़वाया। लोगों ने उसे लेकर फूफा के दरवाजे भेज दिया। फूफा ने मुस्कुराते हुए उसे चिट्ठी लेकर थाने ही चले जाने को कहा।
 
थानेदार ने चिट्ठी देखी, गौर किया। उसे एक मौका मिल गया था। उसने खूब डराया उस दुसाध को। ध्यान रहे दारोगा भी दुसाध ही था। दारोगा ने उसे बताया कि शिकायत तो वाजिब ही है, आदेश है तो पालन करना पड़ेगा। ऐसा करो कि तुम दो हजार रुपए ले आओ, तो ये मामला यही से रफा दफा कर देंगे। हम कागज भेज देंगे हाकिम को, कि साहब को गलत शिकायत की गई हैं। ये गरीब तो बेचारा, सीधा आदमी है।
 
उस दुसाध को देने पड़े दो हजार रुपये, अपने ही सजातीय दारोगा को। फिर वो कई बरसों तक अपनी गतिविधियों पर नियंत्रण में रहा। उसे थाने में पैसा देना पड़ा है, पूरे गांव में ये बात तो फैल ही गई थी। सब समझ रहे थे कि हाकिम को ये शिकायत फूफा के परिवारवालों ने की है। बहुत पहुंचवाले हैं लोग... !
 
गांव और वो दुसाध काफी दिनों तक इसी भ्रम में 'ठीक' रहे। जबतक उनको ये घटना याद रही।
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अब सबक ये कि मूर्खों से भरे, चूतियों के समाज में ऐसी चिट्ठियां जबरदस्त काम करती हैं। अब ऐसी चिट्ठियां बनानेवाला चूतिया, अगर उसे सचमुच का रूप नहीं दे पाए, फिर भी ऐसी चिट्ठियां प्रभावशाली होती हों। तो वो समाज निश्चित तौर पर चूतियों से भरा है, और वो देश तो चूतियों का देश है ही।