Sunday, September 17, 2017

कायर अतीत, भीरु भविष्य

जो हम, हमारे अतीत और अपने पूर्वजों के आचरण पर गहनता से गौर करें, तो समझ आता है कि भाग्यवाद और अज्ञानताभरे अंधविश्वास के तरीके में उन्हें, अपनी निकृष्टतम् से निकृष्टतम् करतूत की जवाबदेही और जिम्मेदारी से बचने की तरकीब आ गयी थी।

अतिधार्मिकता भरी उनकी इस भीरुता और कायरता ने हमारे समाज का बड़ा नुकासान किया। बेहतरी के लिए कोई भी कदम उठाने से वे बचते रहे और समाज पर मूर्खताओं की परत दर परत चढ़ती गयी। जिसे ही ये, विरासत में मिली संस्कृति, आस्था और संस्कार समझ बैठा।

ऐतिहासिक घटनाओं वाली हर कथा हमारे यहां चमत्कारिक संकल्पनाओं से भरी होती हैं। अविश्वसनीय विचित्र कारनामों और होनी पर अटूट आस्था और विश्वास... तार्किकता आधारित, जिम्मेदारियों से मुक्त कर देती है। 
इसी से भोजन के विषाक्त हो कर अस्पताल में दाखिल होने वाले की जान बचाने के लिए हम यज्ञ करने लगते हैं। पूजा करने लगते हैं। विष के प्रति हमारी जवाबदेही नहीं। भोजन का विषाक्त ना होना, हमारी जिम्मेदारी नहीं। वो तो भाग्य है... ईश्वरीय इच्छा!

अजीब है...
लंकापति रावण दुष्ट था क्योंकि वो पूर्वजनम का दानव था। मगध नरेश धनानंद भ्रष्ट था क्योंकि उससे शरीर में एक प्रेत का वास था।


प्रेत... पूर्वजनम की बात हुई नहीं कि अब कोई सवाल ही नहीं कि अब तो ऐसा ही होना तय है... कि ये होनी मानव शक्तियों से बाहर की बात है। ये भाग्य है। ये एक ऐसी अवधारणा है जिसके बाद पतनोनुमुख से पतनानुमुख कृत भी न्यायोचित है। क्योंकि यही होनी है... भाग्य।

इसी से हमारे पूर्वज, विश्व विज्ञान में कोई महान योगदान नहीं कर सके। आधुनिक संसार की जिस तकनीकी शिखर पर हम विराजमान हैं, इसमें उनका कोई योगदान नहीं हुआ।

पानी तो भारत में भी उबलता था पर भाप इंजन यूरोप में क्यों आविष्कृत हुआ? वो मेधा, जो यहांं का हिस्सा थीं वो, भाग्य और चमत्कारिक होनी पर विश्वासों के पहाड़ के नीचे, क्यों दब गयी?

आधुनिक विश्व में हम बस उपभोक्ता बन कर रह गये, एक बाजार भर। उससे पहले हजारों बरसों तक बस गुलाम ही रहे.... क्यों?

क्योंकि ये 'होनी' थी। दुनिया की सर्वाधिक उर्वर भूमि का भाग्य।

अपनी स्त्रियों का हम अब भी, और हजारों बरसों से शोषण करते आ रहे हैं, पूर्व जन्म और भाग्य के लेख का सहारा ले। उनकी हालात में सुधार के तनाव से बचते रहे, इस जवाबदेही और जिम्मेदारी से भागते रहे तो वजह केवल और केवल -  "होई हें वही जो राम रचि राखा"।

फिर ये क्यों कहा और उस पर भरोसा क्यों नहीं किया? -
करत-करत अभ्यास के, जरमति हो सुजान ।
रसरी आवत जात तें, शिल पर पड़त निसान ।।


वजह वही कि कौन करे? कौन ले तनाव? कौन उठाए जुआ? कौन जोते भाग्य, होनी, भूत और भगवान पर... कर्म का हल?

कर्म की 'गीता' यहां परवचन के लिए है...  सुनने सुनाने के लिए...
हजार साल पहले तो इस काबिल भी नहीं थी। गीता महात्म चर्चा की बात है, उस पर अमल के लिए।


आरामतलब, संतोषी हम... जो मिला, खाया किए। जहां हुआ, सोया किए। जैसे भी हुआ, जीया किए। सचमुच की हवा में सांस लेते रहे और विश्ववास करते रहे कि सब माया है।

भौतिक दुनिया में जीते हुए उसे नकारते रहना ही तो है... सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर का विश्वकर्मा पूजा करना। कमजोर बांध पर ब्रह्मा के आशीर्वाद की अपेक्षा करना।

हमारे पूर्वजों ने हमें यही विरासत दिया है... यही गुणसूत्र है, यही संस्कार। इसी से हम अब भी वास्तविकता के हाथों ठगे जाते हैं। हर वास्तविक चालाकी, हमें भाग्य का झांसा दे ठग लेती है। और हम अपने पूर्वजों सा ही जीवन जीने को अभिशप्त हैं...  हम उनके गुणसूत्रों में छपी इस त्रुटि की अवहेलना कर ही नहीं पा रहे। इसे दुरुस्त, ठीक करना हमारे वश में ही नहीं।

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