Thursday, October 6, 2016

चिट्ठियों का चुतियापा



हाईस्कूल में था तब। हुआ ये कि मेरे हमउम्र फुफेरे भाई ने एक दिन कहा कि भाई! हमको एक आदमी को 'ठीक' करना है। प्रश्न में मैंने आंखे उठाई तो उसने बताया कि उसके गांव में, घर के पास कुछ दुसाध बदमाशी कर रहे हैं। वो जब तब खेत से कुछ उखाड़ ले जाते हैं। कहने पर मानते ही नहीं। शिकायत से बात नहीं बनती है कि थानेदार भी उनका ही सजातीय दुसाध ही है। तो कुछ करना है, उनको सीधा करने के लिए।

मैंने पूछा कि क्या करना है, कुछ आइडिया हो तो बताओ?
भाई ने सुझाया कि एक नोटिस भेजनी है उसे, सरकारी जैसी। लगे कि सरकारी फरमान है और वो घबरा जाए। आइडिया में दम था। हम दोनों ने विचार किया।

मेरी हैंडराइटिंग अच्छी है सो मैंने एक सादे पन्ने पर खूब साफ सुथरी, एक चिट्ठी लिखी। जिसका मजमून था कि "तुम्हारे बारे में बहुत शिकायत आ रही है। तुमको थाने में हाजिर होने का आदेश है। अन्यथा तुम्हारे नाम से वारंट जारी किया जाएगा और गिरफ्तार किया जाएगा। जो तुम गिरफ्तार नहीं हुए तो कुर्की जब्ती भी हो सकती है।"
 
कई बार रफ करने के बाद, उसका एक बेहद खूबसूरत फेयर किया गया। अब मुसीबत थी कि उसे सरकारी कैसे लगना चाहिए। बहुत दिमाग लगाया तो सामने ही एक 'गुल' की डिब्बी पड़ी दिख गई। (गुल तंबाकू से बना दंतमंजन होता है। जिससे नशा जैसा हो जाता है। वो अक्सर टिन की एक छोटी गोल डिबिया में आता है।) उस डिबिया के ढक्कन पर गुल कंपनी का लोगो पंच किया था। जिसके चारो तरफ गोलाई में कंपनी का नाम भी पंच किया था। डक्कन में ये सारी चीजें मुहर के समान उभरी होती हैं। हमको लग गया कि ये मुहर की तरह इस्तेमाल हो सकता है। हमने ढक्कन पर इंक लगाई और उसे मुहर बना कर चिट्ठी पर ठोक दिया।
 
गजब हो गया! ढक्कन की छाप लगते ही चिट्ठी एकदम आधिकारिक और शासकीय लगने लगी।
 
पोस्ट ऑफिस जाकर एक सादे लिफाफे पर डाक टिकट चिपकाया और उस दुसाध के नाम पर उसे पोस्ट कर दिया। ध्यान था कि सरकारी चिट्ठियां, डाक विभाग के लिफाफे पर नहीं आतीं हैं। वो सादे लिफाफे पर होती हैं, जिन पर डाक टिकट चिपका होता है। डाक विभाग के लिफाफे तो निजी और व्यक्तिगत चिट्ठियों के लिए होते हैं।

तीन दिन बाद जब वो चिट्ठी उस दुसाध को मिली तो वो घबरा गया। लोगों को पढ़वाया। लोगों ने उसे लेकर फूफा के दरवाजे भेज दिया। फूफा ने मुस्कुराते हुए उसे चिट्ठी लेकर थाने ही चले जाने को कहा।
 
थानेदार ने चिट्ठी देखी, गौर किया। उसे एक मौका मिल गया था। उसने खूब डराया उस दुसाध को। ध्यान रहे दारोगा भी दुसाध ही था। दारोगा ने उसे बताया कि शिकायत तो वाजिब ही है, आदेश है तो पालन करना पड़ेगा। ऐसा करो कि तुम दो हजार रुपए ले आओ, तो ये मामला यही से रफा दफा कर देंगे। हम कागज भेज देंगे हाकिम को, कि साहब को गलत शिकायत की गई हैं। ये गरीब तो बेचारा, सीधा आदमी है।
 
उस दुसाध को देने पड़े दो हजार रुपये, अपने ही सजातीय दारोगा को। फिर वो कई बरसों तक अपनी गतिविधियों पर नियंत्रण में रहा। उसे थाने में पैसा देना पड़ा है, पूरे गांव में ये बात तो फैल ही गई थी। सब समझ रहे थे कि हाकिम को ये शिकायत फूफा के परिवारवालों ने की है। बहुत पहुंचवाले हैं लोग... !
 
गांव और वो दुसाध काफी दिनों तक इसी भ्रम में 'ठीक' रहे। जबतक उनको ये घटना याद रही।
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अब सबक ये कि मूर्खों से भरे, चूतियों के समाज में ऐसी चिट्ठियां जबरदस्त काम करती हैं। अब ऐसी चिट्ठियां बनानेवाला चूतिया, अगर उसे सचमुच का रूप नहीं दे पाए, फिर भी ऐसी चिट्ठियां प्रभावशाली होती हों। तो वो समाज निश्चित तौर पर चूतियों से भरा है, और वो देश तो चूतियों का देश है ही।

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