Sunday, October 9, 2016

गुलजार - एक नशा


गुलजार एक बारगी सबको अच्छे लगते हैं। मुझे भी... लगे थे। लेकिन जो वो लगातार अच्छे लगते रहते हैं तो कविताओं की समझ में कोई कसर रह गई है हमारी। हम मोहपाश में बंधे हुए हैं और हमारी मति मारी गई है।

इस आदमी के तरकश में गितनी के तीर हैं। नए युद्ध में ये चूक जाता है।

इस आदमी ने कविताओं में एकरसता ला दी। इसके मोहपाश में फंसे 'कवियों' ने अपनी नहीं, इसकी नकल में, इसकी तरह की कविताएं लिखी। और पूरा एक काल इस आदमी की जैसी ही कविताओं से पट गया है।


नशा है ये... हां 
नशा!
कि कई पीढ़ियां कविताओं का मतलब ही गुलजार का Absurd Metaphor समझने लगीं। वैसी कविताएं लिखने लगीं, वैसी ही बात कहने लगीं। उसी को प्यार और मोहब्बत समझने लगीं।

मार्केटिंक के पुरोधा मानते हैं, कहते हैं, उनकी एक चाल है, जिससे वो चलते हैं... वे मानते हैं कि लोगों को व्यवहारिक और वाजिब से ज्यादा, बकवास और बेमतलब चीजें याद रहती हैं। अगर उन्हें सिखाओ, पढ़ाओ और बताओ... (जिसकी प्रक्रिया अलग होती है। सिखाने की प्रक्रिया से ही वे पहचान जाते हैं कि उन्हें समझाने की कोशिश की जा रही है) तो वो सीखने से झिझकते, हिचकते ही नहीं, उसका विरोध भी करने लगते हैं। लेकिन अगर बात मनोरंजक हो, हैरानी भरी हो, भले ही एक सिरे से बकवास हो तो वो उन्हें याद रहती है। 

इसीलिए विज्ञापनों में बकवास बातें होती हैं। मकसद ब्रांड, उत्पाद याद कराना होता है। बेचना होता है।

गुलजार ने भी यही तरीका अपनाया। अपना ब्रांड, उत्पाद याद कराने के लिए.... कई पीढ़ियों की कल्पनाशीलता, नष्ट कर दी। वो सिर्फ गुलजार छाप गीत, कविताएं लिखने लगीं। व्यापारियों ने गुलजार नाम के इस ब्रांड और उत्पाद का खूब लाभ उठाया और बाजार से नए आविष्कार की संभावना ही मिटा दी। जिन्हें कुछ नया करना चाहिए था, पर वो बस इस आदमी की नकल करने लग गए और उसे ही साहित्य का चरम् समझने लगे।


गुलजार ने जितना दिया है, उतना बर्बाद किया है।

साहित्य, विधा, उसे रचनेवाले विधाता से ज्यादा बड़ी होती है। पर यहां विधा से ज्यादा बड़ा विधाता हो गया, और विधा ही नष्ट हो गई।

गुलजार के नशे से उबरने में समाज को अपनी कई पीढ़िया खर्च करनी पडेंगी। ये अच्छा नहीं हुआ। कि वक्त की कोई भरपाई नहीं होती है। वो सदा कुछ नया रचता है, और रचना के नयेपन पर अंकुश लगा, उसे अपने ही रंग में रंग देना विधा और वक्त के साथ छल है। धोखा है।
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मिरजिया फिल्म, गुुुजाार ने ही लिखी है!!! 

काहे लिखता है अब ये आदमी?

80 के करीब पहुंचे मेरे छोटे चाचा कहते हैं कि 80 साल के बाद आदमी अचानक से थहस जाता है। मतलब अचानक से बूढ़ा और कमजोर हो जाता है। शरीर, सोच, यादें, संमझ सब एकबारगी को बैठ जाती है। इसके लिए वो अपने पिता, चाचा, ताऊ, दादा और अपने से बड़े भाईयों का तो हवाला देते ही हैं। गांव के और दूसरे बुजुर्गों के बारे में भी बताते हैं। चाचा की बातें वैलिड हैं।

तो सवाल है कि अब कितने दिन तक ये आदमी 'वक्त से लम्हें' टपकाएगा? 'शाख से पत्ते' गिराएगा? 'बादल के फाहे' बनाएगा? 'चांद से मखमल' चुराएगा? बहुत हुआ यार अब बंद करो ये।

इतने दिन में देश में एक दर्जन सरकारें बदल गई। देश की अर्थव्यस्था कहां से कहां चली गई। दिनकर प्रेमचंद्र पुराने होगए, शोभा डे आ कर चली गईं। चेतन भगत भी गुजर गए। स्याही, दबात, कलम... खत्म हो कर वर्चुअल की-बोर्ड आ गया, पर ये आदमी अब भी शबनम की बूंदों से प्यास बुझा रहा है।

पका दिया है गुलजार नाम के इस महान आदमी ने। लेखक को भी तो रिटायर्ड होना चाहिए। अरे दिमाग एक वक्त के बाद नया नहीं सोच पाता है, बुढ़ापे में तो पुराना भी नहीं याद रहता उसे...।

तो भक्तो अब माफ करो ना दादा जी को। बहुत चूस लिया इनका खून। अब तो चूक जाने दो इन्हें। जान लोगे क्या इस बूढ़े की अब?

मिरजया... एकदम बकवास फिल्म है। फिल्मांकन, एडिटिंग, म्यूजिक, गाने सब एकदम बकवास है। बनाई हुई ही बकवास है ये फिल्म। सबके वाहियात को लिखी हुई हैं. और विचित्र है गुलजार नें लिखी हैं।

अब छोड़ देना चाहिए, इनको लिखना पढ़ना...

सारे पुराने लोगों ने समय से ये किया था। पर ये और इनके भक्त अब पकाए रखते हैं। गुलजार के गीत मुझे पसंद थे। पर इतने लंबे वक्त तक ये आदमी एक ही तरीके के रूपक इस्तेमाल कर कर के पका दिया है।

अब हटाओ यार इनको।

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