Friday, September 15, 2017

एक राष्ट्र का आत्मघात!

राजनीति...
चाणक्य और अरस्तु ने नियम बनाए। भारत के पुरखों ने कहा - "साम, दाम, दंड, भेद... कि कैसे भी हो, लेकिन हाथ हो, कि सत्ता ही सच है।


सत्ता सच है - ये तथ्य राजाओं के काल में प्रासंगिक हो सकता है। कि तब देश संपत्ति था। जन और संसाधन, धन थे जिसपर कोई भी विजय हासिल कर आधिपत्य कर सकता था। विजयेता मालिक था और विजयित बस एक सामान, गुलाम।

प्रजातंत्र में जब जनता ही अपने सहूलियत के लिए नीति निर्धारक, नियामक और नियंत्रक चुनती हो। कि वे जनता के हित का ध्यान रख शासन की व्यवस्था करें। तब तो ये पागल कर देनेवाली जिम्मेदारी है कि जिम्मेदारी दुनियाभर की और सुविधा ढेले भर की नहीं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दरअसल, राजाशाही के दौर का 'जिम्मेदारी कुछ नहीं और सुविधा दुनियाभर की' वाला कायदा ही लागू रहा।

प्रजातंत्र आधा ही स्वीकार किया। राजा ने प्रजा के खिलाफ साम दाम दंड भेद इस्तेमाल कर सत्ता पर कब्जा किया।

कब्जा, सत्ता, राज... ये प्रजातंत्र की अवधारणा होनी नहीं चाहिए। पर सदियों से राजाओं में विश्वासकर उनकी कहानियां सुननेवाले हम प्रजातंत्र को भी राजतंत्र की तरह समझा और बना दिया।

हम आधे अधूरे हैं, सदा ही ऐसे रहे। आधा गुलाम, आधा आजाद। आधा प्राचीन, आधा आधुनिक। मोबाइल में जय हनुमान की तस्वीर शेयर कर नीरोग होने की दुआ मांगनेवाले। अपने परिचित मरीज को आधुनिकतम दवा के नाम से नकली दवा खिलाते वक्त उसके काम करने दुआ मागंनेवाले...

नतीजा ना दवा काम करती है और ना दुआ। नकली दवा तो काम नहीं ही करती और दुआओं ने आज तक काम नहीं किया है, सो वे भी नहीं करतीं। प्रजातंत्र के साथ भी हमने यही, ऐसा ही किया है।

तीन दिन पहले फिल्म देख रहे थे हम...
मल्टीप्लेक्स की तीनों स्क्रीन युवाओं से खचाखच भरीं थीं। सिनेमा आधा घंटा बीता कि अचानक बच्चों की भीड़ आ गयी और सारी सीटें भर गयी। कुछ देर बाद समझ आया कि बच्चे, दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज के हैं। जिनको छात्र यूनियन के चुनाव के दौरान, कोई छात्र संगठन, सिनेमा दिखाने लाया है।


वे, सिनेमा के दौरान, फिल्म रोक-रोक कर उनसे वोट मांग रहे थे। सौ, सवा सौ रुपये के सिनेमा टिकट के बदले वोट।

घर आकर अपने छात्र राजनीति में सक्रिय अपने भांजे से पूछा कि ये क्या था। पता चला हर छात्र राजनीतिक संगठन ऐसा करता है। छात्र चुनावों में पार्टीज, सिनेमा, पिट्जा वेगैरह का दौर खूब चलता है। इसके लिए देश की राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां खुलकर निर्बाध फंड देती हैं। देश में सत्ताधारी पार्टी के छात्र संगठन के उम्मीदवार करोड़ों खर्च करते हैं। तो सत्ताहीन पार्टी के उम्मीदवार कुछ करोड़ करते हैं। पर ये चलन अब आम और सहज, सामान्य बात है।

ये तरकीब काम करती है, कि नतीजा सामने है। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में एनएसयूआई का ही वर्चस्व स्थापित हुआ है।

अजीब है ना... हमारी व्यवस्था अपने युवाओं को राजनीति का बुनियादी अनुभव ही भ्रष्टाचार के जरिए देती है।  रिश्वत और लोभ... बस अपनी पसंद की एक फिल्म, अपने फेवरिट स्टार की कोई फिल्म देखने की मुफ्त रिश्वत भर केलिए वे किसी को भी कॉलेज की व्यवस्था और उससे राज्य और देश की व्यवस्था के संचालन और निर्धारण का अधिकार दे देते हैं।
एक फिल्म भर के लिए उस व्यवस्था से खिलवाड़, जिसमें खुद उनको ही जीना है। केवल मनोरंजन के लिए अपने ही जीवन के दारोमदार और भविष्य नियामक के प्रति लापरवाही करना...

हम अपने युवाओं को देश की व्यवस्था के प्रति इस तरह से व्यवहार करना सिखाते हैं। राजनीति की उनकी बुनियादी समझ ही हम ऐसे विकसित करते हैं फिर क्या उम्मीद उनसे।

वे ताउम्र अपने लिए ही जहर की खेती करते रहेंगे। जो जहर वापस लौट उनकी ही जान लेगी, वे... वही उपजाते और बेचते रहेंगे।
अजीब विडंबना है हमारे समाज का!

कितना बदकिस्मत है हमारा समाज!
क्या दुर्भाग्य है उसका! कि उसके अधेड़ पिता ही उसकी नसों में साइनाईट इंजेक्ट कर रहे हैं।


हा! हत भाग्य इस राष्ट्र का!

और लोग देशभक्ति और राष्ट्रीयता की चर्चाएं करते हैं।
क्या प्रहसन है!

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