Saturday, October 1, 2016

सबूतों के संस्कार!







सबूत मांगना किसका काम है?
क्या होता है सबूत? हर ऐरा गैरा, यहां हर किसी से सबूत मांगने लगता है। क्यों?

क्योंकि मांगने वाला झूठों की दुनिया में रहता है। वो खुद झूठ के सहारे जीता है, और उसके आसपास झूठे लोग होते हैं। वो ये जानता है, और यही मानता है कि सच इस दुनिया में नहीं है। उसे किसी भी चीज पर विश्वास नहीं होता। जिस किसी से भी उसकी मुलाकात होती है। वो खुद भी उनसे झूठ कहता है, और मिलनेवाला भी झूठ ही बोलता बतियाता है। झूठ की एक पूरी दुनिया बसी होती है उसकी।

बचपन से ही सबूत मांगते लोगों को देखा है मैंने...
ये लोग दरअसल झूठ और फरेब की दुनिया में जीते हैं। स्कूल में बंग करके फिल्में देखकर आता तो कई बच्चे थे, जो इसका सबूत मांगते थे। मैंने कभी नहीं दिया जबकि जीवन के हर पड़ाव पर सबूत मांगते पाया है लोगों को।

लेकिन जो लोग मुझे मेरी नसों से पहचानते हैं। जिनके लिए मेरे और उनके बीच एक सच्चाई की दुनिया है, वो कभी नहीं मांगते सबूत। वो मेरे सच को मुझसे पहले ही जानते हैं। वो जानते हैं कि सच ऐसा ही होगा।

तो सबूत मांगना किसका काम है? होता क्या है सबूत?

सबूत है अविश्वास का नतीजा। ये जिसने मांगा है उसके चारित्रिक पतन का द्योतक है। कि वो फरेब और झूठों की दुनिया में रहता है। झूठ जीता है, झूठ सुनता है, झूठ की सांस लेता है, झूठ ही खाता और पीता है।

सबूत मांगना नागरिक का हक नहीं, न्यायाधीश का अधिकार है। नागरिक नहीं होता है न्यायाधीश।

वोट मांगने जब कोई आता है तो जनता क्या उससे सबूत मांगती है कि तुम जीतोगे या नहीं, या तुमने ये काम किया या नहीं, या तुम ये करोगे या नहीं।
क्यों? क्योंकि जनता सच जानती है... नेता के फरेब और झूठ का... सच। जनता को मालूम होता है ये सच कि 'ये झूठ' ही होगा'

झूठ की सच्चाई समझनेवाला, माननेवाला सबूत नहीं मांगता। कोई बच्चा झूठ बोल रहा है, मां जानती है कि वो झूठ बोल रहा है तो वो कभी नही मांगती उससे सबूत। लेकिन उसी बच्चे से कोई दूसरा बच्चा सबूत मांग लेता है। दरअसल उस दूसरे बच्चे को भरोसा होता है, झूठ बोलता ये बच्चा 'सच बोल रहा' है। और अपने अनुभव से वो ये जानता है कि किसी चीज के झूठ नहीं होने की शर्त सबूत का होना है। वो खुद भी झूठ बोलकर उसके सच होने का सबूत जो पेश करता रहता है।
झूठ को झूठ समझते हुए भी उसे सच स्वीकार करने. माननेवाले को सबूत की दरकार होती है। झूठों की दुनिया में बसनेवाला झूठा ही हर किसी से सबूत मांगेगा। वो हर झूठ को सच मानने का आदी है।

लेकिन झूठों की दुनिया में एक सच्चा आदमी है, तो हर झूठ उसे सच लगेगा और सबूत की उसको जरूरत ही नहीं होगी। वैसे ही अगर कोई आदमी ये जानता है कि ये झूठ ही है... तो वो उसके सच होने का प्रमाण क्यों मांगेगा।

यहां सैंकड़ों हरामखोर हैं, जो आपके कुछ बताने पर आपसे पूछ बैठेंगे कि आपने पढ़ी है ये किताब। दरअसल उनका साबका अनपढ़ों और जाहिलों से पड़ा होता है। इसीलिए वो विश्वास ही नहीं कर पाते कि कोई पढ़ा हुआ भी हो सकता है।

अदालत में न्यायाधीश सबूत मांगता है। कि वो जानता है कि वकील, गवाह, बचाव में झूठ ही बोल रहे होंगे। वहां अपराध का न्याय होता है। वो न्याय कर रहा होता है इसीलिए उसे सबूत मांगने का हक है। कि उसे कानून की एक किताब के मुताबिक काम करना है और सबूत उस किताब की जरूरत होती है।

वर्ना एक अनुभवी न्यायाधीश मुकदमे के पहले ही दिन जान समझ जाता है कि सच क्या है और इसमें सही सच्चा न्याय क्या होना चाहिए। मुसीबत ये है कि कानून की किताब पर आधारित न्याय सच से नहीं किताब की धाराओं से तय होता है। तो वो न्यायाधीश सबूत मांगता है... मतलब ये है कि अगर नहीं है तो गढ़ लो सबूत। जिसके पास सबूत होगा न्याय उसके ही पक्ष में होगा। न्यायालय एक खेल का मैदान है, सच्चाई नहीं सबूत का खेल।

सच को सबूत की जरूरत नहीं होती। और जो खुद भी फरेब में लथपथ हो, फरेब की दुनिया में रहते हैं। सबूत उनके किसी काम का ही नहीं। कि वो सबूत का भी सबूत मांगेगे। अविश्वास जिसकी फितरत हो... वो सबूत का क्या करेगा।

सुबह सूरज उगता है, इसे किसी सबूत की दरकार है क्या?
हां एक अंधा जिसे इस सच का अनुभव ही नहीं वो पक्का सबूत मांग बैठेगा। तो सबूत वो मांगता है जिसे सच का अनुभव ही नहीं है।

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