Sunday, July 17, 2016

कमजोरी ना हो जाए सहानुभूति


आप भिखारियों को मंदिर की सीढ़ियों पर ही जगह देते हैं, उन्हें गर्भगृह में गुदड़ी बिछाकर धूप-बरसात से बचने की स्वतंत्रता नहीं देते। आप किसी मांगनेवाले को अपने घर के भीतर बुला उसे अपने बेडरूम में सोने की सहूलियत नहीं देते। 

क्यों नहीं देते? उन्हें जरूरत हैं, और आपके पास सहूलियत है, तो आपको उन्हे अपनी सहूलियतें मुहैया करानी तो चाहिए ना?
देश भी वैसा ही है...

अखबार में खबर थी - चीन ने भारत से मांस का आयात कम कर दिया है। इससे देशभर के बूचड़खानों में रोजगार की कमी आ गई है। नतीजतन रोहिंग्या लोग बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। उनके लिए मुश्किल खड़ी हो गई है।- खबर में खूब दया और सहानुभूतियां थी। जैसे उन बेरोजगार लोगों के लिए देश को कोई भारी अभियान चलाने की जरूरत है। उनके साथ अन्याय हो रहा है। 

कभी ट्रेन में किसी ऐसे व्यक्ति को सीटें दी हैं, जिसे पसर जाने की आदत है? भरी है दुनिया ऐसे लोगों से। आपने सीट दी और वो आपको ही आपकी सीट से बेदखल कर देंगे। आपकी सहानुभूति ही उनका हथियार है, आप पर कब्जा करने के लिए। 

मनुष्य का वर्तमान, उसकी ऐसी ही ऐतिहासिक आदतों का नतीजा है। 

दया हथियार है, दयालु के लिए भी, और दया के पात्र के लिए भी। सहानुभूति भी वैसा ही अस्त्र है। दया एक लम्हे के बाद, अधिकार हो जाता है। तब उस अधिकार का पहला शिकार, दयालु ही होता है। वो अधिकार सबसे पहले दयालु का विनाश करता है। दुनिया भर में अपराध की सबसे ज्यादा घटनाएं इसी दया की वजह से शुरू होती है। 

हर कामगार के साथ ऐसा ही है, आपने काम पर रखा, उसे सुविधाएं दी, कुछ ही देर में वो सुविधाओं को अपना हक समझने लगेगा और आपके लिए काम करना उसका शोषण हो जाएगा। 

 रोहिंग्या... मुसीबत में हैं। हम उनकी मदद कर सकते हैं। हमें करना चाहिए। लेकिन हमसे मदद पाने का हक, अधिकार उन्हें नहीं है। ये देश उन्हें रोजगार दे, ये इस देश की जिम्मेदारी नहीं। समस्या उनकी है तो उसका सामना भी उन्हें ही करना चाहिए। लड़ाई उनकी है लड़ना उन्हें चाहिए।

राष्ट्र का निर्माण सहानुभूतियों से नहीं होता। वर्ना अमेरिका, अमेरिका नहीं, यूथोपिया होता। भारत से जाने के बाद बेचारे अंग्रेज कैसे जीएंगे. ये सोचा होता तो... देश क्या रहता अबततक?

राष्ट्र बनता और बचा रहता है, अपने हितों की स्पष्ट रक्षा से। राष्ट्र क्या, कोई भी जीवन इसी शर्त पर जीया जाता है। आप मच्छर पर दया नहीं करते, चूहों को मार डालते हैं। भले ही जमीन पर उगने पर उसकी पूजा करते हों, लेकिन मकान पर उग आए पीपल के पेड़ को भी काट डालते हैं। छत पर उगे गेहूं के पौधों को भी उखाड़ फेंकते हैं। 

जीवन का बुनियादी नियम अपने हितों की रक्षा है। इसे स्पष्ट तौर पर समझने की जरूरत है। मदद और मदद में फर्क है। दया की शक्ति और दया की कमजोरी में फर्क होना चाहिए। आप दयालु हो, लेकिन निर्दयी नहीं हो पाना आपकी कमजोरी नहीं हो। आप हमेशा हां कहते रहें, लेकिन 'नहीं', ना बोल पाना, आपकी बेवकूफी नहीं हो जाए। 

लेकिन दिखाई देता है कि, समाज के निर्माताओं में इसका बोध कम होता जा रहा है। वो अपनी करतूतों के दूरगामी नतीजे नहीं देख पा रहे। कीमत हमारे बच्चों को चुकानी पड़ेगी, जैसे हम चुका रहे है अपने पूर्वजों के फैसलों की।

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