Saturday, December 12, 2015

हिन्दुस्तान के दो 'मुसलमान' !

सीवान शहर के हर दुकान में इस आदमी की तस्वीर होनी जरूरी थी। एकदम राजा कि तरह फूलमाला के साथ, गणेश-लक्ष्मी हों या ना हों... इसकी तस्वीर जरूरी थीं। छोटे शाहब यानी शाहबुद्दीन... जिस दुकानदार ने श्रदधा सहित इस आदमी की तस्वीर नहीं लगाई, उसकी खैर नहीं।

आईबी अगर सही से काम करती नेपाल के रास्ते, इस आदमी को अलकायदा तक खोज निकालती।

सीवान और आसपास जिले में ये छोटे शहाब, मौत और दहशत का नाम था।
प्रतापगढ़ के कुंडा के रघुराज प्रताप सिंह, (राजाभैया) की तरह ये भी 'न्याय' करता था । थाने और पुलिसवालों को अपने घर बुला दरबार लगाता था। इसके लोग
AK-47  से ताबड़तोड़ गोलियां चला, पुलिसबल का सामना करते थे। भारत में गैरकानूनी AK-47 कहां से और कैसे आते हैं, कोई भी इसकी खोजबीन करे तो वो सेना के रास्ते अलकायदा तक पहुंच जाएगा। आईबी अगर ठीक से काम करती तो यहां भी वो हिजबुल और अलकायदा तक पहुंच जाती।

प्रकाश झा के अपहरण का तबरेज आलम, शाहबुद्दीन ही हैं, वो काल्पनिक किरदार, दरअसल कई सच्चे जीते-जागते लोगों का मेल है, सबसे ज्यादा उसमें शाहबुद्दीन ही हैं।  

 

पूरा सीवान जानता है कि उन दो लड़कों पर तेजाब उढ़ेलनेवाला कौन था? उनके पिता तो जानते ही हैं। उन्होंने तो अपनी आंखों से देखा है ये सब होते कि कैसे उनके तीसरे बेटे को उनके सामने ही गोली मार दी गई। यही तो था उस खौफनाक करतूत का गवाह। गवाह क्योंकि अपहरण इसका भी  हुआ था, लेकिन ये कैसे भी अपनी जान बचा भाग निकला, अपने भाईयों की दर्दनाक मौत देखने के बाद। पिता ने पुलिस से शिकायत भी की है कि पिछले साल उनके तीसरे बेटे को उनकी आखों के सामने शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा ने गोली मारी। पर जानने और देखने से क्या होता है?

सच तो सब जानते हैं पर मानते कहां उसे? दरअसल वो जिसे मानना चाहते हैं, वही तो उनका सच होता है। और उनका मानना उनके व्यक्तिगत तात्कालिक स्वार्थ से तय होता है। स्वार्थ बड़ा विचित्र
चीज है, अगर आपके पास दिमाग और बुद्धि हो तो... ये हर वो काम करवाता है जो गैरकुदरती है।

तो जानने और देखने से क्या होता है
?
कानून तो सबूत से न्याय करता है। जज जानता है कि न्याय क्या है, पर वो कर नहीं सकता कि उसके पास इसके लिए पर्याप्त वजह नहीं हैं, होते ही नहीं।

शहाबुद्दीन के खिलाफ जंग में, अपने तीनों लड़को को खो चुकनेवाले पिता मानते हैं कि न्याय तो हुआ पर वैसा साफ नहीं, जैसा उसे होना चाहिए... उनके मुताबिक शहाबुद्दीन को फांसी दे देनी चाहिए। पर न्याय व्यवस्था ये नहीं मानती। वो मानती है कि दो हत्याओं में दोषी साबित होने पर भी ये आदमी उम्रकैद की सजा से रिफॉर्म हो जाएगा, सुधर जाएगा। पर उन दर्जनों हत्याओं और दूसरे मामलों का क्या, जो दर्ज ही नहीं हुए? या जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला या रहने नहीं दिया गया?

न्याय...
!
यमराज को हत्याओं के लिए फांसी हो तो ये अन्याय हो जाएगा। हत्याएं तो उनका पेशा है। और यमराज का पेशा तब तो और भी क्षम्य है, जब वो आकाओं के लिए काम कर रहा हो। यमराज तो शिव के लिए काम करते हैं, शिव ही तो संहार के देवता हैं।

भाई आमिर साहब! देखिए.... भारत में कितनी धार्मिक सहिष्णुता है। आपके आरोप के जवाब में इस समाज ने क्या किया है? शहाबुद्दीन का धर्म इस्लाम है, वो मुसलामान हैं।

एक और
मुसलमान हैं इस देश में... सलमान खान। तस्वीर शहाबुद्दीन की भी लगाई जाती थी, तस्वीर सलमान खान की लगाई जाती है, वजह अलग-अलग है। तो सलमान नाम के इस मुसलमान के मामले में चश्मदीद गवाह की मौत हो जाती है, उसे भीख मांगने पर मजबूर कर दिया जाता है, उसे जेल जाना पड़ता है, वो तड़प-तड़पकर बेहद गरीबी और लाचारी में, बीमारी की हालात में जीते जी नरक भोगते मर जाता है। वो बीमारी उसे कहां से मिली, इसकी जांच कौन करेगा? उसकी हत्या हुई या वो यूं ही मर गया? उसकी हत्या ऐसे हुई कि लगे एकदम सामान्य मौत है? ये तो सलमान खान के फिल्म के किरदारों की कहानी है,
जिसमें ताकतवर खलनायक, एक सच्चे आदमी को पागलखाने भेज देते हैं और जहां उसे सचमुच में पागल बना दिया जाता है। कहानी फिल्मी होती है तो वो पागल ठीक होकर अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेता है।

पर सचमुच में फूलनदेवी कहां होती हैं हमेशा
?  लोग एक बार टूट जाने के बाद दोबारा कहां खड़ा हो पाते हैं?
वो नष्ट हो जाते हैं, खत्म हो जाते हैं। न्याय और अन्याय से ऊपर उठ वो भाग्य को अपना कर्ता मान... सब स्वीकार कर लेते हैं। भले ही उनके तीन बेटे मारे क्यों नहीं गए हों। वो भी एक दुकान के झगड़े में... कि एक बाहुबली उनकी दुकान ले लेना चाहता था। शहाबुद्दीन को जिस हत्या की सजा मिली है, उसकी जड़ में एक दुकान पर कब्जे का संघर्ष है, दुकान मारे गए लड़कों के पिता की थी।

हिट और रन केस का वो चश्मदीद... मारा जाता है, आप इसे
मर जाता है ही पढ़ लीजिए। वो मरते दमतक अपने बयान पर कायम रहता है, जिसके मुताबिक सलमान खान दोषी थे, उन्हें सजा मिलनी चाहिए। पर उसके दोषी कहने से क्या! दोषी तो अदालत करार देती है, सजा भी अदालत ही देती है। सच्चाई पर गीता की कसम के बूते भरोसा करनेवाली भारतीय न्याय व्यवस्था को ये भी तो भरोसा करना चाहिए कि मरता हुआ आदमी झूठ नहीं बोलता। उसकी बात, गीता पर हाथ रख कही बात से ज्यादा सच्ची होती है। पर इसमें गीता पर हाथ रख के कसम खानेवाली नाटकीयता कहां है?

पर नहीं, ये तो बात ही आदर्शवाद की है... आदर्श, तो एक संकल्पना है। बस सोच।


एक गैरकानूनी हथियार रखने के अपराध की सजा पांच साल और दो युवकों पर तेजाब उढ़ेल मार डालने की सजा बस बारह साल (चौहद साल की कैद करीब बारह साल में खत्म हो जाती है)... आमिर खान साहब, यहां कोई असहिष्णुता नहीं है, सरकार और समाज ने आपको ये दिखाने के लिए साबित किया है... इसमें कोई पार्टीगत मतभेद भी नहीं है...

सरकार को अपनी छवि ठीक करनी है, और इसके लिए सलमान से बेहतर ब्रांड एम्बैस्डर कौन हो सकता है। भले ही इसके न्याय और अन्याय के बीच की लकीर मिट जाए। न्याय और अन्याय तो कानूनी विचार है। नैसर्गिक न्याय की अवधारणा तो ईश्वर जानता है, वो ही जाने, सरकार और समाज को इससे क्या!

मरते दम तक अपना बयान नहीं बदलनेवाला गवाह मर जाता है, या मार डाला जाता है। आतंक और दबदबे के प्रयाय के साम्राज्य के लिए जो अपने बेटे को उत्तराधिकारी बना रहा हो... सामने ऐसा हो रहा हो। स्पष्ट हो, पर उसे दोबारा समाज में शामिल होने की सुविधा मिलनेवाली हो। ऐसे में कोई अगर किसी बुजुर्ग दंपत्ति को सरेबाजार पीट दे तो किसी को क्या पड़ेगी। और क्यों वो सही, उचित और सत्य का साथ देगा।

समाज.. दब्बू, कमजोर, मतलबी और कायर एक दिन में नहीं बनता, इसकी एक लंबी प्रक्रिया है। उसे सजग रखने के लिए आपको लगातार कोशिश करनी पड़ेगी। उसे दब्बू बनाए रखने के लिए उसपर कायरता की परत भी लगातार चढ़ाई जाती रहती है।

1 comment:

Gaurav Singh Tomar said...

Absolutely amazing, I admire your bold style to express your opinion on any subject.