Wednesday, December 9, 2015

स्व-तंत्र देश के फरियादी और शासक

 
हम राजाओं से शासित राज्य ही हैं।
फरियाद हमारी फितरत है। अधिकार मिलने के बाद, कर्तव्य नहीं करने की अपनी आदत के चलते, हमेशा ही हम अधिकारों की ऐसी की तैसी कर देते हैं। और वापस अपनी औकात पर आ जाते हैं। हमारी हैसियत दरअसल एक फरियादी से एक बाल भी ऊपर नहीं है, इसीलिय तो अधिकारों का तिया-पांचा कर हम वापस उसी औकात पर आ गिरते हैं। याचक, फरियादी, विनयशील भिखारी की औकात पर। 
 
न्याय का मतलब ही घंटी है
सुनते हैं कि जहांगीर ने अपने महल के बाहर सोने की एक घंटी टांगी थी। कोई भी, किसी भी वक्त अपनी फरियाद ले वहां आ सकता था और जिसने भी घंटी बजा ली,  न्याय रेंग कर, घुटनों के बल घिसटते हुए, उस तक पहुंच जाता था। उसके साथ न्याय होता ही होता था।
 
और जो घंटी ना बजा पाए, उसके न्याय का क्या? जाहिर है उसे न्याय नहीं मिलता होगा।
 
तो न्याय का मतलब ही घंटी है... अब इस घंटी तक पहुंच रखने के लिए कितने अन्याय हुए होंगे इसका कोई ब्योरा नहीं है। राजा को ये समझ आया कि घंटी बजी तो ही न्याय जरूरी है। वो बज गई तो राजा ने उसका न्यायकर राजधर्म का सही-सही पालन किया। घंटी नहीं बजी है, तो राज्य में न्याय की जरूरत ही नहीं है। सब ठीक है... पर राजा ने ये नहीं सोचा कि घंटी बजने का मतलब ये होना चाहिए था कि राज्य में अन्याय इस हद तक है कि उसे पाने के लिए घंटी बजाने की जरूरत आन पड़ी है।

प्रजातंत्र के नाम पर राजतंत्र
प्रजातंत्र के नाम से चलने वाले इस देश को राजशाही की आदत है, यही इसका चरित्र है। ये देश प्रजातंत्र के तरीके से दरअसल एक राजा चुनता रहा है। इस देश को तंत्र और स्व तंत्र में एकदम ही भरोसा नहीं। स्व तंत्र... इस देश में काम नहीं करता, भले ही देश, अंग्रेजों से इसी स्व-तंत्र के लिए लड़ा था। 

इस फरियादी, फरियाद और बादशाह की कहानी में सोशल मीडिया खूब साथ दे रहा है। एक वक्त ऐसा भी आ सकता है कि जब फरियादी, बादशाह और सोशल मीडिया भर रहेगी और शासन चला करेगा।

फिर तंत्र का क्या काम? अपने आप से खुद पर शासन करनेवाला तंत्र तो और भी बेकार होगा।

'स्व' या 'पर' ? तंत्र काम ही नहीं कर रहा
ट्रेन में एक यात्री को, अचानक बीमार हो गई अपनी पत्नी के लिए त्वरित मदद की जरूरत है। जीवन का कोई मोल नहीं समझनेवाले इस समाज में, आपात मदद देने की व्यवस्था हो ही क्यों, क्यों जरूरी हो। तो ऐसे समाज में इस तरह की आपात स्थिति में मदद की कोई व्यवस्था होती नहीं, सो उस पत्नी को भी नहीं मिलती। दरअसल मदद का इंतजाम ही नहीं है। चिकित्सा मदद नहीं मिलने पर अपनी पत्नी की मौत से व्यथित वो यात्री, इसकी फरियाद, इसकी शिकायत सीधा प्रधानमंत्री कार्यालय को कर देता है। उसकी मजबूरी है ऐसा करना... क्योंकि बीच का तंत्र काम ही नहीं करता।
 
शासक और जनता के बीच जो तंत्र स्वत:स्फूर्त काम करना चाहिए, वो काम कर ही नहीं रहा, वर्ना ऐसी नौबत ही नहीं आती। उसी तरह की एक और ट्रेन में कुछ बच्चों को खाना नहीं मिलता, तो वो इसकी फरियाद सीधा रेल मंत्री से कर देते हैं। फरियाद हो और राजा अमल नहीं करे तब राजा कैसा। सो रेल मंत्री व्यक्तिगत रुचि लेकर बच्चों को बढ़िया खाना उपलब्ध करवाते हैं।

लेकिन उन बाकी यात्रियों का क्या, जिन्हें बढ़िया खाना नहीं मिला पर उन्होंने फरियाद नहीं की। मतलब उनको बेहतर खाने का हक नहीं।

पैरवी और सिफारिशकारों का समाज
पैरवी, सिफारिश से ही काम हो सकने की हमारी आदत, और बिना बांस से खोंचारे, काम नहीं करने की हमारे तंत्र की फितरत ने हमें यहां पहुंचा दिया है।  


तो क्या रेल में साफ कंबल नहीं मिले, खाना नहीं हो, पानी नहीं हो, टॉयलेट साफ नहीं हो... दवा नहीं मिले... ऐसी हर बात के लिए हमको रेल मंत्री या प्रधानमंत्री से ही मदद मांगनी पड़ेगी, फरियाद करनी पड़ेगी? तभी वो सुविधाएं मिलेंगी, जो पहले ही अनिवार्य रूप में मिल जानी चाहिए थी?

ये क्या तरीका विकसित हो रहा है इस देश में!
तंत्र का काम खुद ही अपनी जिम्मेदारी निभाना है। ये हो नहीं रहा है। भ्रष्टाचार का ये आलाम है कि ये हो ही नहीं रहा है। हर बात के लिए प्रधानमंत्री को ही अपील करनी पड़ती है। वो ही ऐसा करते हैं। अब हर समस्या के लिए जनता सीधा प्रधानमंत्री से ही शिकायत करेगी... जो करेगी उसे तो सुविधा मिलेगी, और जो नहीं करेगी उसे... और सवा अरब लोग अगर फरियाद ही करने लगें तो...

तय तो कुछ और हुआ था...
जबकि तय तो हुआ था ऐसा तंत्र का बनना है कि जिसमें हर व्यक्ति को सुविधा मिलेगी। एक स्वतंत्र राष्ट्र के गठन के वक्त यही तो तय हुआ है। उसके लिए ही तो एक तंत्र का गठन, उसकी स्थापना की गई है कि ये सिस्टम खुद ही जवाबदेह होगा, उत्तरदायित्व निभाएगा। ऐसा हो नहीं रहा है और एक नई व्यवस्था जन्म ले रही हैं, जहां बादशाह आदेश देगा, तो ही उसके लोग फौरन फरियादी तक सुविधाएं पहुंचा देंगे।  

बच्चों के खाने के लिए रेल मंत्री का हस्तक्षेप हो तब ही उन्हें खाना मिले, ये सही नहीं। बच्चों को बेहतरीन भोजन मिलना चाहिए, इसके इंतजाम के लिए रेल मंत्री को हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। इस तंत्र को खुद ही इतना समर्थ और ऑटोमेटेड होना चाहिए। बात तो ऐसे ही स्वाधीन भारत की हुई थी।

राजा की तरह हर बात अब शासक के मुंह से कहलवाई जा रही है। छोटी से छोटी, बेहद जरूरी बात भी। ऐसी बात भी जिसके लिए देश और जनता को कहने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए, पड़नी भी चाहिए तो तंत्र ही खुद उसकी पहल कर ले...

स्व-तंत्र एक कुदरती व्यवस्था है
गाल पर मच्छर बैठा हो तो उसे मारने के लिए दिमाग से निर्देश नहीं आते हैं। मच्छर की खबर दिमाग तक पहुंचती ही नहीं। वो तो थप्पर से चोट जरा जोर की लग जाए तो दिमाग जान पाता है कि ये कार्रवाई मच्छर को मारने की हुई है। पैर में कुछ चुभे तो वहां से फौरन पैर हटा लेने का काम दिमाग के आदेश से नहीं होता है।
 
सामने से पत्थर आ रहा हो तो सिर झुकाकर बच जाने का काम दिमाग के निर्देशों से नहीं होता... एक स्वभाविक संतुलन और समन्वय होता है हमारे शरीर के अंग तंत्र में, शरीर के हित के लिए काम करने के लिए जिसे दिमाग के निर्देशों की जरूरत नहीं पड़ती है। फेफड़े को सांस खींचने केलिए दिमाग का निर्देश नहीं मिलता।

खतरनाक है ये...
बरसों से लेकिन हमारे स्व-तंत्र देश में हर बात एक केंद्रीय नेतृत्व से कहलवाई गई है... और अब तो ये और भी मुखर हो गया है। सफाई के लिए प्रधानमंत्री कहेंगे तभी देश में सफाई होगी।

ये बात केवल प्रधानमंत्री ही नहीं. केजरीवाल जी भी ऐसा ही कर रहे। वो भी हर बात खुद ही करना चाह रहे हैं। बादशाह की तरह केजरीवाल भी हर बात खुद ही अपनी प्रजा से कहते हैं। सम विषम नंबर का कारें वाला तरीका हो या दिल्ली को कूड़ा मुक्त करने का अभियान... हर स्कीम की सूचना और अपील केजरीवाल साहब खुद ही प्रजा से करते हैं, या निर्देश देते हैं।

तो तंत्र में एक जनसंपर्क विभाग का क्या काम है? या जनता इतनी असंवेदनशील हो गई कि राजा के आदेश से नीचे से उसका अंग हिलता ही नहीं। लेकिन तंत्र के प्रति उदासीन हो गई जनता तो एक दिन राजा के आदेशों के प्रति भी उदासीन हो जाएगी... फिर...तब क्या होगा?

व्यक्ति का तंत्र से बड़ा होना सही नहीं...
किसी को लग सकता है कि ये तो सीधा जनता से जुड़ाव है... बेशक लग ऐसा ही रहा है। पर इससे एक स्वचेतन तंत्र का विकास नहीं होगा। इस तरह तो तंत्र से ज्यादा जरूरी और बड़ा एक व्यक्ति हो जाएगा।

व्यक्ति नहीं रहेगा, नहीं होगा तो तंत्र क्रियाशील ही नहीं रहेगा। पर प्रजातंत्र तो स्व-तंत्रता की बुनियाद पर टिकी व्यवस्था है। जब उस तंत्र का स्व ही जहां काम नहीं करेगा, वो स्वत: ही काम नहीं करेगा तो ये व्यवस्था प्रजातंत्र कैसे होगी।

व्यक्ति का तंत्र से बड़ा होने की मिशाल वो सरकारी विज्ञापन रहे हैं, जो पिछली सरकार, और उससे भी पिछलों सरकारों ने और उसके भी पहले की सरकारों ने छपवाए थे, और खूब छपवाए थे। जिसमें नेता, पार्टी अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, मंत्री, राज्यमंत्री, उत्तराधिकारी जैसे लोगों की तस्वीरें छापीं जातीं थीं। चूहे मारने की दवा की जरूरत जैसी दो लाईन की सूचना में, दस लोगों की तस्वीरें, वो भी पद समेत होती थीं। अजीब बात थी... सरकार जनता को सूचना दे रही है, इसमें किसी मंत्री-संतरी के तस्वीरों का क्या काम।

हर होर्डिंग में ‘बड़े’ नेता की तस्वीर होती थी। अब भी देख सकते हैं आप कि किसी भी क्रांग्रेसी बैनर और पोस्टर या होर्डिंग में सोनिया, राहुल, के साथ-साथ प्रियंका वाड्रा की भी तस्वीरें होती हैं। ये खतनाक रवैया था, नतीजा तो हम भोग ही रहे हैं।

मोदी जी के मामले में तो बात, दो कदम और आगे है कि वहां मोदी जी के अलावा और किसी की तस्वीर होती ही नहीं। ये भी घातक है। हर जगह हर मामले में केवल मोदी जी दिखते हैं... तो जाहिर है फरियाद भी सीधा मोदी जी से ही होगी। ये एक तरह की राजशाही की तरफ देश बढ़ रहा है। राजशाही में सब से जरूरी बात होती है उत्तराधिकार...

पुत्रप्रेमी धृतराष्ट्र लालू का समाज को धोखा

लालू यादव ने अपने नालायक बेटों को सिंहासन पर बिठा दिया। ये राजशाही और साम्राज्य की स्थापना के प्रयास की हद है। वैसा साम्राज्य जब एक राजा का नालायक बेटा भी, उसका उत्तराधिकारी हो सकता था। उत्तराधिकारी भी, विचारों का नहीं, पद, सत्ता और साम्राज्य का। लेकिन प्रजातंत्र तो एक विचारधारा है। लालू जी ने राज्य के साथ धोखा किया है... वो तब शानदार नेता होते अगर अपनी पार्टी में अपने से भी ज्यादा काबिल नेता विकसित करते और उसे आगे बढ़ाते... देश-भक्ति ये है, समाज सेवा ये है। अपने से काबिल लोगों के हाथों देश और समाज को सौंप कर जाना।

कांसीराम ज्यादा सही थे?
इस मामले में कांसीराम ज्यादा सही व्यक्ति थे, अब आप कांसीराम की मायावती के साथ की मजबूरी का हवाला देंगे तो जयललिता भी तो वैसे ही विकसित हुईं... । भारत क्या, दुनिया भर में ही राजशाही में राजा की रखैल की बेटी भी महारानी हो सकती है, होती रही है।

बरगद ने नीचे कुछ और नहीं पनपने देना
विडंबना ये है कि खुद ऐसे तरीके से, बिना किसी पृष्ठभूमि के अपनी काबीलियत (चाहे वो जैसी भी हो) के बूते आगे बढ़नेवाले लोग, इतने असुरक्षित हो जाते हैं कि वो अपने आगे और किसी को पनपने ही नहीं देते। वो अपने चरित्र से जानते हैं कि जैसे उन्होंने उत्तराधिकार पर कब्जा किया, वैसे ही कोई पनप गया व्यक्ति भी कर लेगा।

इंदिरागांधी ने ऐसा किया, इसी से राजीव गांधी जैसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनना पड़ा। सोचिए मायावती कल नहीं रहें तो दलित आंदोलन का नेतृत्व कौन करेगा? लालू मर गए तो आरजेडी का क्या होगा? राहुलबाबा के अचानक नहीं रहने पर कांग्रेस क्या करेगी? जयललिता के नहीं रहने पर क्या होगा, उस राज्य के अभी पक्ष का कभी विपक्ष की भूमिका का? हर राजनीतिक पार्टी में टीम और दल के काम करने का सिस्टम ही खत्म हो गया है।

ये तरीका ठीक नहीं है... ये देश और समाज के साथ धोखाधड़ी है...

हमारे देश का हर नेता ऐसा ही कर रहा है... करता रहा है... ये रवैया बेहद खतरनाक है... इससे हमारा तंत्र खत्म हो जाएगा और आनेवाले वक्त में हम एक घोर राजशाही के गिरफ्त में होंगे। जो बेशक वैसी राजशाही नहीं होगी जैसी राजशाही के बारे में हम अपने इतिहास से जानते हैं या जैसी हमने अपने इतिहास में भोगी है।

तंत्र को जिम्मेदार बनाने की कोशिश हो...
लगता होगा, और सही ही लगता होगा कि जनता और शासक में सीधा बातचीत होने से अफसरशाही और लाल फीता शाही में व्याप्त भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी। जनता को निजात मिलेगी उससे। लेकिन सही ये है कि यही लालफीता शाही... सरकार है। यही देश का शासन चलाती है, यही तंत्र है। उसका मूल्य और निष्ठा से भरा, स्वविवेकी होना, बेहद जरूरी है। कोशिश उसमें मूल्य स्थापना की होनी चाहिए कि वो खुद ही स्व-निर्णय ले... और सबके हित में, राष्ट्र हित में फैसले ले।

लेकिन लालफीता शाही से बच जाने के लिए ये जो केवल ‘मैं, मेरा और मेरे अलावा और कोई नहीं; कि  व्यवस्था स्थापित हो रही है, वो तंत्र का सर्वनाश कर देगी।

अगर हम किसी की लाठी से ही तंत्र को काम करने का आदी बना देंगे तो वो स्व तंत्र नहीं रह जाएगा... हम हर अधिकारी कर्मचारी को सेवा में आने से पहले शपथ दिलाते हैं... वो शपथ ही तो तंत्र के प्रति निष्ठा का मूल्य है... पर ये काम नहीं कर रहा तो इससे काम करवाने के तरीकों पर गौर करना होगा। 

सेवक को शासक नहीं होने देना चाहिए...
जो तरीका बन रहा है, उससे हमारा सेवक, हमारा शासक बन जाता दिख रहा है। बाकी लोगों की तो छोड़िए... केजरीवाल साहब तक अपने संबोधनों में ‘मैं और मेरे मंत्री’ का इस्तेमाल करने लगे हैं। लालू, मायावती, ममता, और जयललिता जैसे लोग तो हैं ही। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री... प्रजा का शासक नहीं, उसका सेवक होता है। लेकिन प्रजा ही उसे मालिक के रूप में ना केवल स्थापित करने लगी है बल्कि उससे ऐसा ही व्यवहार भी करने लगी है। 

ऐसा बहुत दिनों से हो रहा है, बौधिक विकास का सिधांत ये कहता है कि इसे कम होना चाहिए था... पर ये तो बढ़ रहा है।इस देश को इसपर नियंत्रण के लिए कोई इंतजाम करना पड़ेगा।

पर सिफारिशों के बूते ही हर काम करवानेवाले इस समाज को ये और ऐसा होता दिखेगा ही नहीं। उसे बात तो एकदम सहज और वाजिब लगेगी। पर ये बात स्व-तंत्र राष्ट्र के खिलाफ है... और ऐसा करने से उसकी स्वतंत्रता टिकेगी नहीं...

हजारों साल के इतिहास वाले देश में सत्तर साल कोई बहुत बड़ा समय नहीं होता।

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