Wednesday, September 26, 2018

परिचय अपरिचय

हैलो!... के बाद फौरन उसने कहा कि "किसी अजनबी पुरुष से बात करनी थी, तो सोचा, आप सबसे सुरक्षित व्यक्ति हैं।" 

मैं मुस्कुराया कि "लेकिन ये तो गलती हो गयी आपसे, मैं सुरक्षित जरूर संभव हूं, पर 'अजनबी' तो कभी नहीं पा सकेगा मुझे कोई। चाहे कोई कितना नया हो, मैं सदा ही उसको परिचित सा लगूंगा। आपको भी नहीं लगूंगा अपरिचित।"

----- अब आगे अपनी बात...

हां! मेरे लिए कुछ भी नया नहीं, ना ही मैं हूं किसी के लिए भी नया। इसका विचित्र असर है... कि मैं प्रभावित करने के, और प्रभावित होने के, प्रयासों से अप्रभावी रह जाया करता हूं।

बरसों पहले... जब विचार उठा कि विवाह होना चाहिए मेरा, तो ख्याल आया कि एक प्रस्ताव हो सकता है एक लड़की को। सो उस लड़की के परिवार के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति से बात की। जिज्ञासा, बस यही की मैंने; कि क्या ऐसा विचार संभव है। ना! ना! उस लड़की से मेरी कोई गहरी पहचान नहीं थी। ना ही कोई पसंद थी, पर ऐसा भी नहीं था कि एकदम अपरिचित थी वो।

किसी विवाह में, एक स्त्री का होना जरूरी है। अब खंभे या पेड़ से तो विवाह हो नहीं सकता! तो उस वक्त, जो भी ऐसा पात्र लगा, सबका चौखट खटखटाना था। ये भी, उनमें से एक दरवाजा था।

मेरी ये अनौपचारिकता, या परिचय भाव ये मेरा, मेरे ही विरुद्ध हो गया। संभावना की जिज्ञासा या संभाव्ययता की तलाश की एक सहज कोशिश के चलते...  मैं छिछोर, चरित्रहीन और बेगैरत समझा गया। बस एक औपचारिक संबंध की संभावना की बात पूछ लेने भर से, मैं बाजारू समझ लिया गया।

शायद अनौपचारिक परिचित लोग, अप्रभावी और प्रभावहीन दोनों होते हैं। 'शायद' इसलिए कह रहा कि अपनी बात तो मैं पुख्ता तौर पर कह सकता हूं, पर बाकियों के बारे में संदिग्धता वाजिब है। तो अपने अनौपचारिक परिचय के चलते अप्रभावी हुआ मैं, आगे बढ़ गया.. पर ये समझ नहीं पाया कि चूक कहां हुई।

अपरिचय जरूरी है क्या? अनजान दिखना या होना अनिवार्य है क्या? हर व्यक्ति, एक दूसरे से ऐसा ही वर्ताब करता है... अहंकारभरा अपरिचित जैसा व्यवहार। पर ये क्यों जरूरी है?

शायद इसलिए कि परिचय का ध्येय ही यहां, शोषण होता है। हर परिचय ही, कुछ पाने के उद्देश्य से होता है। जो, कुछ पाने का मकसद नहीं हो, तो व्यक्ति; परिचय करता ही नहीं। हर चीज, हर तत्व, हर कण के प्रति... मनुष्य का यही व्यवहार है। 

किसी पौधे से कोई लाभ नहीं हो तो मानव उसके बारे में जानना तक नहीं चाहता। कोई पत्थर, अगर भविष्य नहीं बदलता हो, तो उसकी तरफ देखना तक... जरूरी नहीं समझता।

पर प्रकृति तो ऐसी नहीं है।
जीवन का ध्येय तो... उन तारों के बारे में जानना है, जिससे हमारा कोई लाभ नहीं। जिंदगी का मकसद तो, उन पौधों और जीवों से भी दोस्ती है, जो हमारा भोजन नहीं हैं। 

जीवन तो व्यापक है...फैला हुआ... क्षैैैतिज। वो अंतरिक्ष से उतरा है, पता नहीं कहां जाने के लिए। जीवन की यात्रा का ये विस्तार, इसी से है संभव है कि यहां सब कोई, सबकुछ से परिचित हैं। हमारी कोशिशकाओं के केंद्र में, जो धातु के अवयव हैं... वो तारों से आये हैं। आकाश की तरफ देखते हुए, अगर हमको वहां सबकुछ, चिरकाल से परिचित नहीं दीखता तो हमारे बदन के निर्जीव ढांचे में कहीं, जीवन की कमी है। कसर है। 

अपरिचय, जीवनहीनता का परिचायक है। इसी से अहंकार सदैव अपरिचय भरा होता है, और इसी से वो जीवनरहित भी होता है। मेरी आस्था; जीवन में है, उसकी व्यापकता में है तो मुझे कुछ भी अपरिचित नहीं लगता। ना ही मैं किसी को अनजाना लगता हूं।

मैं सब जानता हूं! सबकुछ
ये अहंकार नहीं, सरलता है। विनम्रता है ये अनुभूति कि सबकुछ ही मेरा है, जैसे मैं सबका हूं।

लेकिन संसार में बहुत अहंकार है और बहुत लोग भी हैं... जिनके लिए अपरिचय अस्त्र है... हथियार, सत्ता का हथियार। और जिनके लिए परिचय, शोषण का ध्येय है।

अजीब है, कि किसी परिचित का शोषण, मुझसे नहीं हो पाता और कोई मुझसे परिचय बढ़ाकर मेरा शोषण करना चाहे तो धोखा और दगा जैसा अनुभव करता हूं। उससे विमुख हो जाता हूं। दुर्भाग्य ये है कि ये बातें मुझको व्यर्थ और अनुपयोगी बनातीं हैं।

तो उसने कहा कि मुझे किसी अपरिचित से बात करनी थी...
लेकिन बात ये है कि मैं किसी का भी अपरिचित हूं ही नहीं। उससे भी अजीब बात ये है कि जिनसे भी मेरा जितना परिचय होता है, वे मुझको उतना ही अपरिचित लगते हैं। अगर किसी को मैं एकदम आत्म परिचित पाना चाहता हूं, तो उससे अनजान हो लेता हूं। जितना अनजान होता हूं, वो उतना ही मेरा परिचित होता है। अजीब है ना, पर ऐसा ही है।

अनुभव ये पाया है कि गहन परिचित तबतक वही रहा किया, जिससे जबतक परिचय नहीं था। ज्यों ही उससे गहरा परिचय हुआ कि वो एकदम अपरिचित हो गया। 

ऐसा हो सकता है कि ऐसा होता है। ये उल्लू जैसी स्थिति है कि रोशनी होते ही, वो अंधा हो तो जाता है। तो वैसे ही... एकदम संभव है अपरिचय से भी परिचित रहना और गहन परिचय होते ही हो जाना अपरिचित।

Monday, April 23, 2018

सटाक! सटाक!

मित्र संजीव सिन्हा, श्रधेय फादर के. टी. थॉमस के साथ सेल्फी लेते

"ईसाई मिशनरीज देश को खंडित कर रहे हैं" महान भारतीय राष्ट्रवादी राजनीतिक पार्टी के एक सासंद ने दो दिन पहले कहा। अजीब है कि फिर भी दाखिलों के वक्त, देशभर में लोग, मिशनरीज के स्कूलों को ही प्राथमिकता देते हैं। सबसे पहले लाईन वहीं लगायी जाती है।

1979-80 था। गांव के मिड्ल स्कूल में सातवीं में पढ़ता था मैं। उस साल जनवरी में पास होकर पास के कस्बे के हाईस्कूल में आठवीं में दाखिला होना था।

पांचवी से ही बढ़िया समझे गये तरह-तरह के स्कूलों - नेतरहाट, सैनिक स्कूल, रामकृष्ण मिशन स्कूल... में दाखिले के इम्तिहान दिलाये जाते रहे। पर कहीं कुछ भीषण अयोग्यता थी मेरी। पांचवी से आठवी में जाने का वक्त आ गया और किसी अच्छी जगह दाखिला नही हो सका मेरा। ए कदम ही मूर्ख और बेकार विद्यार्थी था मैं। अभ्यास से सीखी गयी किसी भी विद्या में, आजतक यही दशा है मेरी। 

जब आठवीं में जाने का वक्त था, तो उत्तर बिहार के सबसे बढ़िया स्कूल  के.आर. हाई स्कूल, बेतिया में दाखिले के लिए ले गये बाबूजी। सांतवीं में दाखिल कराने का इम्तिहान था। गांव के मास्टर और स्विडन और कनाडा के फादरियों की अपेक्षाओं में फर्क तो होगा ही। सो प्रश्नपत्र अंग्रेजी में था। हम तो छठी में ABCD ही लिखना सीखे थे। कुछ समझ नहीं आया। 

परीक्षा खत्म होने पर खूब रोया मैं, उसी स्कूल की कैंटीन में बैठ। क्या स्वादिष्ट आलूचाप और पकौड़िया थीं उसकी। बाबूजी और दादा (बड़े भैया) साथ थे। दादा ने मुझे रोते से चुप कराते हुए, रोने का कारण पूछा तो मैंने निराशा से सिसकते हुए कहा, कि यहां मेरा एडमिशन नहीं हो सकेगा।

संजीव सिन्हा, श्रधेय फादर के. टी. थॉमस के साथ 
ये स्कूल मुझे बहुत पसंद आया था और मेरी इच्छा यहीं पढ़ने की थी। पर दाखिला संभव नहीं था। 


बाबूजी के एक मित्र थे, पश्चिमी चंपारण (बेतिया) जिले के पुलिस के खुफिया विभाग के डीएसपी।उनको साथ ले, बाबूजी ने उस वक्त के हेडमास्टर, फादर के. टी. थॉमस से बात की। फादर ने साफ मना कर दिया कि बहुत ही कमजोर है... नहीं पढ़ सकेगा। फिर भी हठ करने पर फादर ने सुझाव दिया कि पांचवी में दाखिला करा दीजिए... सांतवी तक आते आते ठीक हो जायेगा। 

मुझे रोते देख बाबूजी और दादा(बड़े भैया) को ममता हो आयी थी। वो मेरा दाखिला उस स्कूल में करा ही देना चाहते थे। इस तरह आठवीं में जानेवाला बच्चा, पांचवी में चला गया। इसका दुष्प्रभाव या कुप्रभाव तो बहुत हुआ... पर वो सुप्रभाव से ज्यादा ना हो सका।

एक लड़का था,  पांचवी में हमसे सीनियर था, लेकिन छठी में फेल कर शायद हमारा सहपाठी हो गया, नरेंद्र ध्वज सिंह। उससे बेतिया शहर में, डीक्रूज सर के हॉस्टल में रहने के चलते, जानपहचान सी थी। स्कूल का अपना बोर्डिंग था, लेकिन सातवीं कक्षा से ही उसमें रहने की सुविधा थी सो। स्कूल के बाहर, कई हॉस्टल थे। मैं डीक्रूज सर के हॉस्टल में रहता था। नरेंद्र ध्वज सिंह का वहां आना जाना था। इसी के चलते उससे परिचय था।

आज के बच्चे प्रैंक खेलते हैं, लेकिन शायद मैं तब भी अपने वक्त से आगे था। एक दिन मैंने एक पन्ने पर लिखा...
"मुझे क्यों उठाया तूने? 
कितना बढ़िया जमीन पर पड़ा था। 
शर्म नहीं आती तुम्हें,
किसी भी स्थिर चीज को हिलाते? 
मैं एक सादा पन्ना... 
कितनी शांति से सोया था। 
तेरी जिज्ञासा ने खलल डाल दी। 
मुझे उठाकार साबित किया तुमने 
कि तू एकदम गधा है।"

फिर इस पन्ने को मोड़ जेब में रखा और छोटे टिफिन के लिए निकल गया। हमारे स्कूल में, दो छोटे और एक बड़ा, तीन टिफिन होते थे। मेरी योजना थी कि पन्ने को छुट्टी के वक्त कहीं गिरा कर, छुपकर देखूंगा कि इसे पढ़नेवाले की क्या प्रतिक्रिया होती है।

लेकिन होना तो हादसा था। टिफिन में वो पन्ना मेरी जेब से स्कूल के बरामदे में गिर गया, ठीक मेरी छठी कक्षा के सामने ही। मेरे पीछे नरेद्र ध्वज सिंह आ रहा था। उसने पन्ना उठाया, पढ़ा और सीधा हेडमास्टर के पास चला गया।

हेडमास्टर थे वही श्रधेय फादर के. टी. थॉमस। उन्होंने नरेंद्र ध्वज से मुझे बुलाने को कहा। और खुद अपने दफ्तर से बाहर बरामदे में आ गये। नरेंद्र मुस्कुराता हुआ मुझे बुलाने आया। मैं घटना से अनजान निकल कर फादर के सामने खड़ा हो गया। फादर के एक हाथ में एक छड़ी थी, और दूसरे में वो पन्ना। उन्होंने पन्ना मेरी तरफ बढा़ते हुए पूछा - "ये तुमने लिखा है? मैंने ईमानदारी से स्वीकार ली गलती। लेकिन "क्यों लिखा ?" - उनके इस सवाल का जवाब, मेरे पास नहीं था। अगला कमांड था हाथ निकालो... सटाक! सटाक! सटाक! लगातार सात छड़ी पड़ी थी हथेली पर... प्राण निकल गये थे।

श्रधेय फादर के. टी. थॉमस 
आदरणीय फादर के. टी. थॉमम का उसी साल ट्रांसफर हो गया। लेकिन उन्होंने नरेंद्र ध्वज सिंह से मेरा परिचय करा दिया। स्कूल के अनुशासन और छात्रों की समझदारी और अपनी समझ का बड़ा फर्क बता गये।

के. आर. एलमुनाई, पुराने छात्रों के मिलनोत्सव में 38 साल बाद फादर के.टी. थॉमस का आना हुआ। मैं इस सम्मिलन समरोह में जा ना सका लेकिन मित्र संजीव सिन्हा ने जब फादर की तस्वीरे साझा की, तो लगा जैसे अतीत अचानक सामने आ खड़ा हुआ हो। और जैसे कल ही की बात हो। 

फादर को देखते पहली प्रतिक्रिया थी - कंपकंपी आ गयी, डर गया... एकदम वही अनुभूति, ठीक जैसे कोई मिड्ल स्कूल का छात्र अपने हेडमास्टर और उनकी छड़ी से डरा करता था।

अनुशासन बहुत महान सबक है, और वो जीवन में बहुत से लोगों के योगदान से आता है। आदरणीय फादर  के.टी. थॉमस उनमें एक हैं... बेहद अहम। जिन्होंने गंवार देहाती, कृष्णानंद को तमीज और संयम का सबक दिया। जिनकी छड़ी से ये सबक मिला कि लापरवाही नहीं चलेगी, और मजाक बेहद उच्च बौधिकता की बात है। 

आज पाता हूं कि फादर का दिया सबक कितना अहम था। आज पूरा देश नरेंद्र ध्वज सिहों से भरा पड़ा है भसड़ मची है, उनकी। 

अगर फादर के. टी. थॉमस, के.आर. हाई स्कूल में मुझे दाखिला नहीं लेते तो मैं एकदम कुछ और ही होता। जो हुआ या हो सका वो उससे तो एकदम अलग और कमतर ही होता।

Tuesday, January 23, 2018

नेताजी : नारे जो झूठ साबित हो गए।


तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा

ये पूरा नारा ही झूठ साबित हो गया। आजादी मिल तो गई, लेकिन वो खून के रास्ते नहीं मिली। इस नारे का एक भी शब्द आजादी मिलने का तरीके और रास्ते में नहीं जुड़ पाया। ये नारा और इसके पीछे के विचार को ही सच साबित करने का मौका, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को नहीं मिल पाया। अगर मिल भी पाता तो शायद सही नहीं होता कि उनका ये नारा... उस वक्त के हालात में कारगर साबित नहीं हो रहा था, वो इस नारे को सच साबित करने की कोशिश भी करते तो कामयाब नहीं हो पाते। अब ये वक्त की और भाग्य का लेख था कि ऐसा नहीं हआ और सुभाष चंद्र बोस...  आजाद भारत में भी नेता जी सुभाष चंद्र बोस रह गए। ये अलग बाद है कि उन्हें इससे ज्यादा और राष्ट्रीय सम्मान के साथ जगह मिलनी चाहिए थी।

आपको क्या लगता है, काग्रेस ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़कर देश आजाद करवाया?
दुनिया का इतिहास देखिए, किसी भी देश में ये मुमकिन नहीं हुआ है। गुलामी से छुटकारा मालिक की मर्जी से ही मुमकिन है। उनसे बातचीत करके, बतियाके। तभी एक गुलाम व्यवस्था, अपने पैरों पर खड़ा स्वतंत्र गणतंत्र बन सकता है।

हर ट्रांसफर-पोस्टिंग में चार्ज हैंडओवर-टेकओवर होता है।
ये एक व्यवस्था को दूसरे के हाथ सौंपने का तरीका है। अब मान लीजिए एक थानेदार अपनी बदली के बाद उत्तराधिकारी के आये बिना ही अपना बोरिया बिस्तर समेट चला जाए। अब जब नया थानेदार आएगा तो वो क्या करेगा, वो कर ही क्या लेगा। उसे हालात समझने में दो साल लगेंगे तबतक थाने के इलाके में गुंडों का राज चलेगा।

व्यवस्था से उग्रता से लड़कर, दुश्मनी भरी खूनी संघर्ष करके, आजादी पाना दरअसल, स्वतंत्रता नहीं, स्थापित व्यवस्था पर कब्जा करना है, जिसे तख्तापटल कहते हैं। हमलावर और विजयेता यही करते हैं। तख्तापटल के तरीके से जब भी कोई सत्ता परिवर्तन हुआ है,  नतीजे में एक अराजक, शासनहीन व्यवस्था ही स्थापित हुई है। जिसका आखिरी नतीजा गणतंत्र नहीं, तानाशाही हुआ है। उग्र तानाशाही से शांत गणतंत्र तक यात्रा, एक बेहद तकलीफदेह और लंबी प्रक्रिया है।

तो कांग्रेस ने अंग्रेजों से आजादी के पहले के कई दशकों तक मित्रतापूर्वक विरोध जताया, बातचीत की। उन्हें देश छोड़ जाने के लिए मनाया, सहमत किया और आखिरकार बाध्य किया। खुद नेता जी इस प्रक्रिया में कांग्रेस के साथ थे। किसी भी देश के लिए, अपनी सत्ता खुद संभालने का ये सबसे सहज और जरूरी तरीका है। हमें अंग्रेजों से केवल आजाद नहीं होना था, उसने शासनकरना भी सीखना था।

परिवार में बंटवारा होता है। अच्छे परिवार में मालिकाना हक बातचीत से... साथ रहते, तय होता है और बदल जाता है।

बुरे परिवारों में रातों-रात दो भाई आपस में बांट लेते हैं। परिवार का मुखिया जो कि बाबा होते हैं, वो अपने पटिदारों को जमीन, कर्ज, खेती, संपत्ति के बारे में कुछ नहीं बताते, बांट देते हैं। रातोरात हुई ऐसी बांट बाद परिवार पर मुसीबत टूट पड़ती है। बांटनेवाले सभी लोगों को (बाबा को छोड़) सबकुछ फिर से शुरू करना पड़ता है। उत्तराधिकार जब ऐसे हस्तानांतरित होता है तो भाई भाई एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, हत्याएं होती हैं।

उत्तराधिकार के हस्तांतरण का सही तरीका है... उत्तराधिकारी को धीरे-धीरे सारी व्यवस्था समझा-बुझा, बतलाकर, सत्ता उसे सौंपकर कूच कर जाना।

तो आजादी के लिए, आखिरी के दस साल अंग्रेजों से मित्रवत बातचीत की गई, उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी।

अब नेताजी सुभाष चंद्र बोस...
वो सेना बनाके देश को आजादी दिलाना चाहते थे। अंग्रेजों पर चढ़ाई करके। इसके लिए वो दूसरे विश्वयुद्ध के ब्रिटेन के दुश्मन... जापान और जर्मनी के नेताओं से मिल चुके थे। वो अंग्रेजों के दुश्मनों से मिल रहे थे। मुश्किल बात थी कि हमें आजाद तो अंग्रेजों से होना था।

अंग्रेजों से भारत को आजादी दिलानी थी। जो बातचीत से ही मुमकिन थी। कहीं बातचीत का ये रास्ता बंद हो जाता और अंग्रेज जाने से मना कर देते, तो आजादी कुछ और बरसों के लिए टल जाती। कम से कम उस पीढ़ी में तो वो नहीं ही मिलती।

अंग्रेजों से बातचीत चल रही थी।
और नेता जी, उनके दुश्मनों से मिल रहे थे। बस यही दुविधा की स्थिति थी कांग्रेस के लोगों के लिए। वो अगर नेता जी के साथ साफ-साफ अपना रिश्ता रखते तो अंग्रेजों को ये धोखाधड़ी लगता कि हम स्वेच्छा से सबकुछ बढ़िया से सौंप कर जाना चाहते हैं और ये हमारे दुश्मनों से मिल रहे हैं.... जाओ नहीं करते हम आजाद!

इससे ऐसा नहीं होता कि हम आजाद नहीं हो पाते, आजादी आते-आते कुछ और दिनों से टल जाती। अंग्रेजों को फिर से मनाना पड़ता, बातचीत की पूरी प्रक्रिया फिर से दोहरानी पड़ती। इसे खेल बिगड़ जाना कहते हैं। 


हम अंग्रेजों से उनका भारत जीतना नहीं चाहते थे। उनको अपने भारत से भगाना चाहते थे। जब कोई समान, जगह आप लूटेंगे... तो उसका राजनैतिक और विधिक कानूनी हस्तांनांतरण नहीं करेंगे उसपर जबरन कब्जा करेंगे तो लूट के बाद उस पर दावेदारी के लिए मारकाट मच जाएगी और सब तहस नहस हो जाएगा। जो ताकतवर होगा उसका अधिकार होगा। लेकिन ये जनता का नहीं... विजेयता का शासन होगा। आजादी के बात विभाजन यही बात थी... देश की लूट। लेकिन अगर वो समझौतापूर्ण और विधिवत नहीं होकर, युद्ध से होती तो देश की केवल विभाजन का दंश ही नहीं झेलना पड़ता। अंग्रेजों पर विजय की कीमत देश की बर्बादी होती। हम खुद ही इसे नेस्तनाबूत कर देते कि हमको स्वशासन का अनुभव ही नहीं था।

हम अपनी ही इंसानी फितरत पर गौर करें तो...
तो अगर किसी सरकारी दफ्तर में या कोई व्यक्ति आपसे काम करवाना चाहता हो। काम आपके कब्जे में है, आप उसका काम कर देने के लिए तैयार भी हैं। इसी बीच वो आदमी किसी बड़े अधिकारी, जिससे आपकी बनती नहीं, उस अधिकारी की सिफारिश लेकर आ जाए। या वो आपके दुश्मन से मिलकर आप पर दवाब डालने की कोशिश करे, ब्लैकमेल करने का प्रयास करे तो क्या करेंगे आप? उससे डर कर उसका काम फौरन कर देंगे या खींजकर उसका काम करने से मना कर देंगे और कहेंगे कि अब जब होता तब होगा तुम्हारा काम?

विचार कीजिएगा... ईमानदारी से.... इंसान की सामंतवादी सोच ऐसे ही काम करती है। दबाव और ब्लैकमेलिंग से वो खीज उठता है और जो काम वो करनेवाला होता भी होता है, उसमें भी अड़ंगा लगा देता है। हमारी भ्रष्ट व्यवस्था में ये बात खूब होती है। रिश्वतखोरी की हर कोशिश में हम इस बात का ध्यान रखते हैं का काम बिगड़े नहीं।

तो कांग्रेस बात कर रही थी और नेता जी अंग्रेजों के दूसरे विश्वयुद्ध के दुश्मनों से मिल रहे थे।


ऐसे में नेताजी का रुख कांग्रेस के लिए मुसीबत खड़ी कर रहा था। सो उसने नेता जी से अपनी दूरी बना ली. नरम-दल, गरम-दल याद तो होगा ही। अब दिक्कत ये हो गई आजादी के बाद भी ब्रिटेन के साथ कांग्रेस की नरमी बनी रही। जो स्वभाविक भी था। अच्छा मकान मालिक, अपने पुराने किरायेदारों से भी रिश्ता बढ़िया बनाए रखता है। बुरा मकान मालिक... मौजूदा किरायदार से भी टंटा किए रहता है।

अब आजादी के बाद भी कांग्रेस, अंग्रेजों से जुड़ी रही, मजबूरी सत्ता से संचालन में मदद की होगी। मजबूरी जो भी हो, लेकिन उसे आजादी के बाद उसे नेता जी को नकारना नही चाहिए था। यही उसने मूर्खता की।

नेता जी का तरीका चाहे जो भी हो, वो लड़ना इस देश के लिए ही चाह रहे थे। उनका तरीका उस समय के लिहाज से उचित भले ना हो, लेकिन उनकी मंशा एकदम दुरुस्त और सही थी। तो कांग्रेस को... आजादी के बाद नेता जी को जोड़ लेना चाहिए था। लेकिन उसने जापान और जर्मनी से उनके रिश्ते और ब्रिटेन से अपने रिश्ते को ही अहम मान-समझ लिया। ये बात सही नहीं हुई।

भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके सहयोगियों के साथ भी, ऐसा ही किया गया। ये सही नहीं था।
आजाद देश को एक आजाद देश की तरह व्यवहार करना चाहिए। देश से ये भारी चूक हुई।

रामेश्वरम में सेतु बनाने में श्री राम ने गिलहरी के योगदान का भी आदर किया, भले ही वो प्रभावकारी नहीं था। पर श्रीराम ने उस छोटी गिलहरी की कोशिश का मजाक उड़ानेवाले और उसे खारिज करनेवाले वानरों को डपटा था।

उस वक्त नेता जी ने ऐसा क्यों किया? कांग्रेसियों ने ऐसा क्यों किया?
इसकी सफाई समझाने उनमें से कोई भी यहां नहीं है। तो हम उनकी विवशताओं, और विचार का केवल अंदाजा ही लगा सकते है।