Monday, May 9, 2016

मां तो मां होती है.


"वो भी तो मां ही है और देखों तो मां क्या होती है।" - मेरी मां ने इशारा करते कहा।

1972-73 की बात होगी। बहुत छोटा रहा होऊंगा मैं, पांच छह साल का। समस्तीपुर के बंगालीटोला में एक बहुत बड़े से मकान में रहते थे हम। किन्हीं दो सिख भाईयों का था मकान, जिसका उन्होने आंगन के बीचोबीच, ईंट की एक ऊंची दीवार खड़ी कर बंटवारा कर, लिया था। मकान फिर भी बड़ा था और दोनों तरफ बहुत बड़े-बड़े दो आंगन अब भी थे। उस आंगन के एक तरफ, तो बंटवारे की दीवार थी. बाकी तीन तरफ बरामदे थे। उनसे लगी आठ या नौ कोठरियां थीं। 

बंटवारे की दीवार मकान के ठीक बीचों-बीच खड़ी हुई थी सो वो आंगन के साथ-साथ छत पर जानेवाली सीढ़ी यानी जीने को भी बांटती थी।

एक दिन सीढ़ी के ठीक सामने के बरामदे में मां बैठी थी। वहां गलियारा था, गर्मियों में वहां हमेशा ही हवा बहती थी। इसी से मां वहीं बैठा करतीं थी। बंटवारे की दीवार में जगह-जगह छेद रह गए थे, दीवार बनाने में लगाए गए बांस के मचान की वजह से ये छेद रह गए थे। ऐसे ही दो छेदों में गिलहरियों के दो घोंसले थे। 

चुकुर्रर्रर्रर्रर्र... चुकुर्रर्रर्रर्र... पूरे दिन गिलहरियां धमाचौकरी मचाए रखतीं थीं। गर्मी की दोपहरियों में जीवन की सबसे शानदार आवाज गिलहरियों की ही होती है।

तो हुआ क्या कि मां बरामदे में बैठीं थी। मैं भी पास में खेल रहा था। अचानक थप्प! की आवाज हुई और एक गिलहरी जोर-जोर से चुकुर्रर्रर्रर्रर्र, चुकुर्रर्रर्रर्र का शोर मचाने लगी। गिलहरियां ऐसा शोर अक्सर बिल्ली को देख कर ही मचातीं हैं। मैं इधर-ऊधर देख बिल्ली को खोजने लगा, लेकिन मां की नजर दीवार पर ही थी। 

उन्होंने मुझे अपनी गोद में खींच लिया और दिखाया कि ऊपर दीवार के बीच जो ईंट नहीं होने से जगह बनी थी, उसमें से मुंह निकाले एक गिलहरी चीख-चीख कर एकदम पागल हुई पड़ी है। मां ने सीढ़ी पर दिखाया कि जमीन से दो तीन जीने ऊपर गिलहरी का एक बच्चा गिरा था। तो धप्प की आवाज उस बच्चे के गिरने से हुई थी। वो बच्चा घोसले से गिर गया था।

मां पूरा वाकया बताने लगी - "देखो तो उसका बच्चा गिर गया। मां का दिल तो मां का ही होता है। कैसे बेचैन हैं। हम बैठें है तो डर भी रही है। नीचे से बच्चा अपने आप ऊपर घोसले में जा भी नहीं सकता है। मां बेचैन है। देखो तो, क्या करती है। पांच साल का मैं, बच्चे को देखने सीढ़ी पर जाने केलिए उठा तो मां ने खींच के बिठा दिया।

कुछ देर के बाद दीवार पर शोर मचाती गिलहरी, डर डर कर नीचे उतरी। नीचे से बच्चा भी चीख कर जान दिए हुए था। वो दीवार से छत पर गई फिर जीने दर जीने नीचे बच्चे तक आई। खूब बेचैन रही इस बीच। बीच-बीच में दोनों मां और बच्चे की बातचीत लगातार जारी रही। कुछ देर बच्चे के चारों तरफ घूमने के बाद, उसने बच्चे को मुंह से उठाया और बड़े जतन से सीढ़ियां चढ़ती दीवार तक पहुंच गई। फिर बीस से तीस फीट सीधी खड़ी दीवार पर रुक रुक कर चलती हुई उसे अपने घोसले में ले गई।

उसके जतन से मां के चेहरे पर क्या संतोषजनक मुस्कान आई थी। मां का वो चेहरा मुझे अब भी याद है। उसे देखते हुए मां बोलते जा रही थी।...

"देखो, ये होती है मां। डर लग रहा था हमसे, लेकिन बच्चे के लिए जान जोखिम में डालने से चूकी नहीं। ऐसी होती हैं माएं। दीवार पर बच्चे के साथ चलते वक्त ऊपर से गिर सकती थी, लेकिन फिक्र नहीं, अपने बच्चे के लिए कुछ भी कर सकती हैं। बच्चा भी मां का कहा मान रहा है ना। बच्चे मां की बात मानते हैं, तभी उन्हें चोट नहीं लगती है।"

- एक साथ कितनी चीजें समझा रही थीं मां! मां की जिम्मेदारी, उनकी भूमिकाएं, बच्चों को उनकी मदद करने का दायित्व। मां का कहा मानने का धर्म। मां जो कुछ भी कह रही थी मैं, उनकी बात का अर्थ उस वक्त समझा नहीं था पर ये समझ आया कि मां की बात माननी चाहिए नहीं तो गिर सकते हैं। मां छोड़ती नहीं है।

बरसों बाद मां की उन सारी बातों का गूढ़ अर्थ समझ आया। ऐसा ही तो होता है, हमें घटनाएं याद रहतीं हैं, पर उनका मतलब बरसों बाद समझ आता है। कई बार तो अर्थ समझ ही नहीं आता कभी।

वहां दो मांए एक साथ, अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए फिक्रमंद थी। कैसे वो दूसरे में अपनी छवि देख रहीं थीं।


उसके बाद से जब भी मां की बात होती तो वो गिलहरी की उस जतन की याद जरूर दिलाती थी। और अपना ध्यान रखने को जरूर कहतीं।

10-15 मिनट का ये मामूली सा वाकिया चालीस साल बाद भी वैसे ही दिखाई देता है, तो कुछ तो बात होगी ही इस साधारण से वाकिये में। पांच छह साल का ही था मैं।