Saturday, December 12, 2015

हिन्दुस्तान के दो 'मुसलमान' !

सीवान शहर के हर दुकान में इस आदमी की तस्वीर होनी जरूरी थी। एकदम राजा कि तरह फूलमाला के साथ, गणेश-लक्ष्मी हों या ना हों... इसकी तस्वीर जरूरी थीं। छोटे शाहब यानी शाहबुद्दीन... जिस दुकानदार ने श्रदधा सहित इस आदमी की तस्वीर नहीं लगाई, उसकी खैर नहीं।

आईबी अगर सही से काम करती नेपाल के रास्ते, इस आदमी को अलकायदा तक खोज निकालती।

सीवान और आसपास जिले में ये छोटे शहाब, मौत और दहशत का नाम था।
प्रतापगढ़ के कुंडा के रघुराज प्रताप सिंह, (राजाभैया) की तरह ये भी 'न्याय' करता था । थाने और पुलिसवालों को अपने घर बुला दरबार लगाता था। इसके लोग
AK-47  से ताबड़तोड़ गोलियां चला, पुलिसबल का सामना करते थे। भारत में गैरकानूनी AK-47 कहां से और कैसे आते हैं, कोई भी इसकी खोजबीन करे तो वो सेना के रास्ते अलकायदा तक पहुंच जाएगा। आईबी अगर ठीक से काम करती तो यहां भी वो हिजबुल और अलकायदा तक पहुंच जाती।

प्रकाश झा के अपहरण का तबरेज आलम, शाहबुद्दीन ही हैं, वो काल्पनिक किरदार, दरअसल कई सच्चे जीते-जागते लोगों का मेल है, सबसे ज्यादा उसमें शाहबुद्दीन ही हैं।  

 

पूरा सीवान जानता है कि उन दो लड़कों पर तेजाब उढ़ेलनेवाला कौन था? उनके पिता तो जानते ही हैं। उन्होंने तो अपनी आंखों से देखा है ये सब होते कि कैसे उनके तीसरे बेटे को उनके सामने ही गोली मार दी गई। यही तो था उस खौफनाक करतूत का गवाह। गवाह क्योंकि अपहरण इसका भी  हुआ था, लेकिन ये कैसे भी अपनी जान बचा भाग निकला, अपने भाईयों की दर्दनाक मौत देखने के बाद। पिता ने पुलिस से शिकायत भी की है कि पिछले साल उनके तीसरे बेटे को उनकी आखों के सामने शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा ने गोली मारी। पर जानने और देखने से क्या होता है?

सच तो सब जानते हैं पर मानते कहां उसे? दरअसल वो जिसे मानना चाहते हैं, वही तो उनका सच होता है। और उनका मानना उनके व्यक्तिगत तात्कालिक स्वार्थ से तय होता है। स्वार्थ बड़ा विचित्र
चीज है, अगर आपके पास दिमाग और बुद्धि हो तो... ये हर वो काम करवाता है जो गैरकुदरती है।

तो जानने और देखने से क्या होता है
?
कानून तो सबूत से न्याय करता है। जज जानता है कि न्याय क्या है, पर वो कर नहीं सकता कि उसके पास इसके लिए पर्याप्त वजह नहीं हैं, होते ही नहीं।

शहाबुद्दीन के खिलाफ जंग में, अपने तीनों लड़को को खो चुकनेवाले पिता मानते हैं कि न्याय तो हुआ पर वैसा साफ नहीं, जैसा उसे होना चाहिए... उनके मुताबिक शहाबुद्दीन को फांसी दे देनी चाहिए। पर न्याय व्यवस्था ये नहीं मानती। वो मानती है कि दो हत्याओं में दोषी साबित होने पर भी ये आदमी उम्रकैद की सजा से रिफॉर्म हो जाएगा, सुधर जाएगा। पर उन दर्जनों हत्याओं और दूसरे मामलों का क्या, जो दर्ज ही नहीं हुए? या जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला या रहने नहीं दिया गया?

न्याय...
!
यमराज को हत्याओं के लिए फांसी हो तो ये अन्याय हो जाएगा। हत्याएं तो उनका पेशा है। और यमराज का पेशा तब तो और भी क्षम्य है, जब वो आकाओं के लिए काम कर रहा हो। यमराज तो शिव के लिए काम करते हैं, शिव ही तो संहार के देवता हैं।

भाई आमिर साहब! देखिए.... भारत में कितनी धार्मिक सहिष्णुता है। आपके आरोप के जवाब में इस समाज ने क्या किया है? शहाबुद्दीन का धर्म इस्लाम है, वो मुसलामान हैं।

एक और
मुसलमान हैं इस देश में... सलमान खान। तस्वीर शहाबुद्दीन की भी लगाई जाती थी, तस्वीर सलमान खान की लगाई जाती है, वजह अलग-अलग है। तो सलमान नाम के इस मुसलमान के मामले में चश्मदीद गवाह की मौत हो जाती है, उसे भीख मांगने पर मजबूर कर दिया जाता है, उसे जेल जाना पड़ता है, वो तड़प-तड़पकर बेहद गरीबी और लाचारी में, बीमारी की हालात में जीते जी नरक भोगते मर जाता है। वो बीमारी उसे कहां से मिली, इसकी जांच कौन करेगा? उसकी हत्या हुई या वो यूं ही मर गया? उसकी हत्या ऐसे हुई कि लगे एकदम सामान्य मौत है? ये तो सलमान खान के फिल्म के किरदारों की कहानी है,
जिसमें ताकतवर खलनायक, एक सच्चे आदमी को पागलखाने भेज देते हैं और जहां उसे सचमुच में पागल बना दिया जाता है। कहानी फिल्मी होती है तो वो पागल ठीक होकर अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेता है।

पर सचमुच में फूलनदेवी कहां होती हैं हमेशा
?  लोग एक बार टूट जाने के बाद दोबारा कहां खड़ा हो पाते हैं?
वो नष्ट हो जाते हैं, खत्म हो जाते हैं। न्याय और अन्याय से ऊपर उठ वो भाग्य को अपना कर्ता मान... सब स्वीकार कर लेते हैं। भले ही उनके तीन बेटे मारे क्यों नहीं गए हों। वो भी एक दुकान के झगड़े में... कि एक बाहुबली उनकी दुकान ले लेना चाहता था। शहाबुद्दीन को जिस हत्या की सजा मिली है, उसकी जड़ में एक दुकान पर कब्जे का संघर्ष है, दुकान मारे गए लड़कों के पिता की थी।

हिट और रन केस का वो चश्मदीद... मारा जाता है, आप इसे
मर जाता है ही पढ़ लीजिए। वो मरते दमतक अपने बयान पर कायम रहता है, जिसके मुताबिक सलमान खान दोषी थे, उन्हें सजा मिलनी चाहिए। पर उसके दोषी कहने से क्या! दोषी तो अदालत करार देती है, सजा भी अदालत ही देती है। सच्चाई पर गीता की कसम के बूते भरोसा करनेवाली भारतीय न्याय व्यवस्था को ये भी तो भरोसा करना चाहिए कि मरता हुआ आदमी झूठ नहीं बोलता। उसकी बात, गीता पर हाथ रख कही बात से ज्यादा सच्ची होती है। पर इसमें गीता पर हाथ रख के कसम खानेवाली नाटकीयता कहां है?

पर नहीं, ये तो बात ही आदर्शवाद की है... आदर्श, तो एक संकल्पना है। बस सोच।


एक गैरकानूनी हथियार रखने के अपराध की सजा पांच साल और दो युवकों पर तेजाब उढ़ेल मार डालने की सजा बस बारह साल (चौहद साल की कैद करीब बारह साल में खत्म हो जाती है)... आमिर खान साहब, यहां कोई असहिष्णुता नहीं है, सरकार और समाज ने आपको ये दिखाने के लिए साबित किया है... इसमें कोई पार्टीगत मतभेद भी नहीं है...

सरकार को अपनी छवि ठीक करनी है, और इसके लिए सलमान से बेहतर ब्रांड एम्बैस्डर कौन हो सकता है। भले ही इसके न्याय और अन्याय के बीच की लकीर मिट जाए। न्याय और अन्याय तो कानूनी विचार है। नैसर्गिक न्याय की अवधारणा तो ईश्वर जानता है, वो ही जाने, सरकार और समाज को इससे क्या!

मरते दम तक अपना बयान नहीं बदलनेवाला गवाह मर जाता है, या मार डाला जाता है। आतंक और दबदबे के प्रयाय के साम्राज्य के लिए जो अपने बेटे को उत्तराधिकारी बना रहा हो... सामने ऐसा हो रहा हो। स्पष्ट हो, पर उसे दोबारा समाज में शामिल होने की सुविधा मिलनेवाली हो। ऐसे में कोई अगर किसी बुजुर्ग दंपत्ति को सरेबाजार पीट दे तो किसी को क्या पड़ेगी। और क्यों वो सही, उचित और सत्य का साथ देगा।

समाज.. दब्बू, कमजोर, मतलबी और कायर एक दिन में नहीं बनता, इसकी एक लंबी प्रक्रिया है। उसे सजग रखने के लिए आपको लगातार कोशिश करनी पड़ेगी। उसे दब्बू बनाए रखने के लिए उसपर कायरता की परत भी लगातार चढ़ाई जाती रहती है।

Wednesday, December 9, 2015

स्व-तंत्र देश के फरियादी और शासक

 
हम राजाओं से शासित राज्य ही हैं।
फरियाद हमारी फितरत है। अधिकार मिलने के बाद, कर्तव्य नहीं करने की अपनी आदत के चलते, हमेशा ही हम अधिकारों की ऐसी की तैसी कर देते हैं। और वापस अपनी औकात पर आ जाते हैं। हमारी हैसियत दरअसल एक फरियादी से एक बाल भी ऊपर नहीं है, इसीलिय तो अधिकारों का तिया-पांचा कर हम वापस उसी औकात पर आ गिरते हैं। याचक, फरियादी, विनयशील भिखारी की औकात पर। 
 
न्याय का मतलब ही घंटी है
सुनते हैं कि जहांगीर ने अपने महल के बाहर सोने की एक घंटी टांगी थी। कोई भी, किसी भी वक्त अपनी फरियाद ले वहां आ सकता था और जिसने भी घंटी बजा ली,  न्याय रेंग कर, घुटनों के बल घिसटते हुए, उस तक पहुंच जाता था। उसके साथ न्याय होता ही होता था।
 
और जो घंटी ना बजा पाए, उसके न्याय का क्या? जाहिर है उसे न्याय नहीं मिलता होगा।
 
तो न्याय का मतलब ही घंटी है... अब इस घंटी तक पहुंच रखने के लिए कितने अन्याय हुए होंगे इसका कोई ब्योरा नहीं है। राजा को ये समझ आया कि घंटी बजी तो ही न्याय जरूरी है। वो बज गई तो राजा ने उसका न्यायकर राजधर्म का सही-सही पालन किया। घंटी नहीं बजी है, तो राज्य में न्याय की जरूरत ही नहीं है। सब ठीक है... पर राजा ने ये नहीं सोचा कि घंटी बजने का मतलब ये होना चाहिए था कि राज्य में अन्याय इस हद तक है कि उसे पाने के लिए घंटी बजाने की जरूरत आन पड़ी है।

प्रजातंत्र के नाम पर राजतंत्र
प्रजातंत्र के नाम से चलने वाले इस देश को राजशाही की आदत है, यही इसका चरित्र है। ये देश प्रजातंत्र के तरीके से दरअसल एक राजा चुनता रहा है। इस देश को तंत्र और स्व तंत्र में एकदम ही भरोसा नहीं। स्व तंत्र... इस देश में काम नहीं करता, भले ही देश, अंग्रेजों से इसी स्व-तंत्र के लिए लड़ा था। 

इस फरियादी, फरियाद और बादशाह की कहानी में सोशल मीडिया खूब साथ दे रहा है। एक वक्त ऐसा भी आ सकता है कि जब फरियादी, बादशाह और सोशल मीडिया भर रहेगी और शासन चला करेगा।

फिर तंत्र का क्या काम? अपने आप से खुद पर शासन करनेवाला तंत्र तो और भी बेकार होगा।

'स्व' या 'पर' ? तंत्र काम ही नहीं कर रहा
ट्रेन में एक यात्री को, अचानक बीमार हो गई अपनी पत्नी के लिए त्वरित मदद की जरूरत है। जीवन का कोई मोल नहीं समझनेवाले इस समाज में, आपात मदद देने की व्यवस्था हो ही क्यों, क्यों जरूरी हो। तो ऐसे समाज में इस तरह की आपात स्थिति में मदद की कोई व्यवस्था होती नहीं, सो उस पत्नी को भी नहीं मिलती। दरअसल मदद का इंतजाम ही नहीं है। चिकित्सा मदद नहीं मिलने पर अपनी पत्नी की मौत से व्यथित वो यात्री, इसकी फरियाद, इसकी शिकायत सीधा प्रधानमंत्री कार्यालय को कर देता है। उसकी मजबूरी है ऐसा करना... क्योंकि बीच का तंत्र काम ही नहीं करता।
 
शासक और जनता के बीच जो तंत्र स्वत:स्फूर्त काम करना चाहिए, वो काम कर ही नहीं रहा, वर्ना ऐसी नौबत ही नहीं आती। उसी तरह की एक और ट्रेन में कुछ बच्चों को खाना नहीं मिलता, तो वो इसकी फरियाद सीधा रेल मंत्री से कर देते हैं। फरियाद हो और राजा अमल नहीं करे तब राजा कैसा। सो रेल मंत्री व्यक्तिगत रुचि लेकर बच्चों को बढ़िया खाना उपलब्ध करवाते हैं।

लेकिन उन बाकी यात्रियों का क्या, जिन्हें बढ़िया खाना नहीं मिला पर उन्होंने फरियाद नहीं की। मतलब उनको बेहतर खाने का हक नहीं।

पैरवी और सिफारिशकारों का समाज
पैरवी, सिफारिश से ही काम हो सकने की हमारी आदत, और बिना बांस से खोंचारे, काम नहीं करने की हमारे तंत्र की फितरत ने हमें यहां पहुंचा दिया है।  


तो क्या रेल में साफ कंबल नहीं मिले, खाना नहीं हो, पानी नहीं हो, टॉयलेट साफ नहीं हो... दवा नहीं मिले... ऐसी हर बात के लिए हमको रेल मंत्री या प्रधानमंत्री से ही मदद मांगनी पड़ेगी, फरियाद करनी पड़ेगी? तभी वो सुविधाएं मिलेंगी, जो पहले ही अनिवार्य रूप में मिल जानी चाहिए थी?

ये क्या तरीका विकसित हो रहा है इस देश में!
तंत्र का काम खुद ही अपनी जिम्मेदारी निभाना है। ये हो नहीं रहा है। भ्रष्टाचार का ये आलाम है कि ये हो ही नहीं रहा है। हर बात के लिए प्रधानमंत्री को ही अपील करनी पड़ती है। वो ही ऐसा करते हैं। अब हर समस्या के लिए जनता सीधा प्रधानमंत्री से ही शिकायत करेगी... जो करेगी उसे तो सुविधा मिलेगी, और जो नहीं करेगी उसे... और सवा अरब लोग अगर फरियाद ही करने लगें तो...

तय तो कुछ और हुआ था...
जबकि तय तो हुआ था ऐसा तंत्र का बनना है कि जिसमें हर व्यक्ति को सुविधा मिलेगी। एक स्वतंत्र राष्ट्र के गठन के वक्त यही तो तय हुआ है। उसके लिए ही तो एक तंत्र का गठन, उसकी स्थापना की गई है कि ये सिस्टम खुद ही जवाबदेह होगा, उत्तरदायित्व निभाएगा। ऐसा हो नहीं रहा है और एक नई व्यवस्था जन्म ले रही हैं, जहां बादशाह आदेश देगा, तो ही उसके लोग फौरन फरियादी तक सुविधाएं पहुंचा देंगे।  

बच्चों के खाने के लिए रेल मंत्री का हस्तक्षेप हो तब ही उन्हें खाना मिले, ये सही नहीं। बच्चों को बेहतरीन भोजन मिलना चाहिए, इसके इंतजाम के लिए रेल मंत्री को हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। इस तंत्र को खुद ही इतना समर्थ और ऑटोमेटेड होना चाहिए। बात तो ऐसे ही स्वाधीन भारत की हुई थी।

राजा की तरह हर बात अब शासक के मुंह से कहलवाई जा रही है। छोटी से छोटी, बेहद जरूरी बात भी। ऐसी बात भी जिसके लिए देश और जनता को कहने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए, पड़नी भी चाहिए तो तंत्र ही खुद उसकी पहल कर ले...

स्व-तंत्र एक कुदरती व्यवस्था है
गाल पर मच्छर बैठा हो तो उसे मारने के लिए दिमाग से निर्देश नहीं आते हैं। मच्छर की खबर दिमाग तक पहुंचती ही नहीं। वो तो थप्पर से चोट जरा जोर की लग जाए तो दिमाग जान पाता है कि ये कार्रवाई मच्छर को मारने की हुई है। पैर में कुछ चुभे तो वहां से फौरन पैर हटा लेने का काम दिमाग के आदेश से नहीं होता है।
 
सामने से पत्थर आ रहा हो तो सिर झुकाकर बच जाने का काम दिमाग के निर्देशों से नहीं होता... एक स्वभाविक संतुलन और समन्वय होता है हमारे शरीर के अंग तंत्र में, शरीर के हित के लिए काम करने के लिए जिसे दिमाग के निर्देशों की जरूरत नहीं पड़ती है। फेफड़े को सांस खींचने केलिए दिमाग का निर्देश नहीं मिलता।

खतरनाक है ये...
बरसों से लेकिन हमारे स्व-तंत्र देश में हर बात एक केंद्रीय नेतृत्व से कहलवाई गई है... और अब तो ये और भी मुखर हो गया है। सफाई के लिए प्रधानमंत्री कहेंगे तभी देश में सफाई होगी।

ये बात केवल प्रधानमंत्री ही नहीं. केजरीवाल जी भी ऐसा ही कर रहे। वो भी हर बात खुद ही करना चाह रहे हैं। बादशाह की तरह केजरीवाल भी हर बात खुद ही अपनी प्रजा से कहते हैं। सम विषम नंबर का कारें वाला तरीका हो या दिल्ली को कूड़ा मुक्त करने का अभियान... हर स्कीम की सूचना और अपील केजरीवाल साहब खुद ही प्रजा से करते हैं, या निर्देश देते हैं।

तो तंत्र में एक जनसंपर्क विभाग का क्या काम है? या जनता इतनी असंवेदनशील हो गई कि राजा के आदेश से नीचे से उसका अंग हिलता ही नहीं। लेकिन तंत्र के प्रति उदासीन हो गई जनता तो एक दिन राजा के आदेशों के प्रति भी उदासीन हो जाएगी... फिर...तब क्या होगा?

व्यक्ति का तंत्र से बड़ा होना सही नहीं...
किसी को लग सकता है कि ये तो सीधा जनता से जुड़ाव है... बेशक लग ऐसा ही रहा है। पर इससे एक स्वचेतन तंत्र का विकास नहीं होगा। इस तरह तो तंत्र से ज्यादा जरूरी और बड़ा एक व्यक्ति हो जाएगा।

व्यक्ति नहीं रहेगा, नहीं होगा तो तंत्र क्रियाशील ही नहीं रहेगा। पर प्रजातंत्र तो स्व-तंत्रता की बुनियाद पर टिकी व्यवस्था है। जब उस तंत्र का स्व ही जहां काम नहीं करेगा, वो स्वत: ही काम नहीं करेगा तो ये व्यवस्था प्रजातंत्र कैसे होगी।

व्यक्ति का तंत्र से बड़ा होने की मिशाल वो सरकारी विज्ञापन रहे हैं, जो पिछली सरकार, और उससे भी पिछलों सरकारों ने और उसके भी पहले की सरकारों ने छपवाए थे, और खूब छपवाए थे। जिसमें नेता, पार्टी अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, मंत्री, राज्यमंत्री, उत्तराधिकारी जैसे लोगों की तस्वीरें छापीं जातीं थीं। चूहे मारने की दवा की जरूरत जैसी दो लाईन की सूचना में, दस लोगों की तस्वीरें, वो भी पद समेत होती थीं। अजीब बात थी... सरकार जनता को सूचना दे रही है, इसमें किसी मंत्री-संतरी के तस्वीरों का क्या काम।

हर होर्डिंग में ‘बड़े’ नेता की तस्वीर होती थी। अब भी देख सकते हैं आप कि किसी भी क्रांग्रेसी बैनर और पोस्टर या होर्डिंग में सोनिया, राहुल, के साथ-साथ प्रियंका वाड्रा की भी तस्वीरें होती हैं। ये खतनाक रवैया था, नतीजा तो हम भोग ही रहे हैं।

मोदी जी के मामले में तो बात, दो कदम और आगे है कि वहां मोदी जी के अलावा और किसी की तस्वीर होती ही नहीं। ये भी घातक है। हर जगह हर मामले में केवल मोदी जी दिखते हैं... तो जाहिर है फरियाद भी सीधा मोदी जी से ही होगी। ये एक तरह की राजशाही की तरफ देश बढ़ रहा है। राजशाही में सब से जरूरी बात होती है उत्तराधिकार...

पुत्रप्रेमी धृतराष्ट्र लालू का समाज को धोखा

लालू यादव ने अपने नालायक बेटों को सिंहासन पर बिठा दिया। ये राजशाही और साम्राज्य की स्थापना के प्रयास की हद है। वैसा साम्राज्य जब एक राजा का नालायक बेटा भी, उसका उत्तराधिकारी हो सकता था। उत्तराधिकारी भी, विचारों का नहीं, पद, सत्ता और साम्राज्य का। लेकिन प्रजातंत्र तो एक विचारधारा है। लालू जी ने राज्य के साथ धोखा किया है... वो तब शानदार नेता होते अगर अपनी पार्टी में अपने से भी ज्यादा काबिल नेता विकसित करते और उसे आगे बढ़ाते... देश-भक्ति ये है, समाज सेवा ये है। अपने से काबिल लोगों के हाथों देश और समाज को सौंप कर जाना।

कांसीराम ज्यादा सही थे?
इस मामले में कांसीराम ज्यादा सही व्यक्ति थे, अब आप कांसीराम की मायावती के साथ की मजबूरी का हवाला देंगे तो जयललिता भी तो वैसे ही विकसित हुईं... । भारत क्या, दुनिया भर में ही राजशाही में राजा की रखैल की बेटी भी महारानी हो सकती है, होती रही है।

बरगद ने नीचे कुछ और नहीं पनपने देना
विडंबना ये है कि खुद ऐसे तरीके से, बिना किसी पृष्ठभूमि के अपनी काबीलियत (चाहे वो जैसी भी हो) के बूते आगे बढ़नेवाले लोग, इतने असुरक्षित हो जाते हैं कि वो अपने आगे और किसी को पनपने ही नहीं देते। वो अपने चरित्र से जानते हैं कि जैसे उन्होंने उत्तराधिकार पर कब्जा किया, वैसे ही कोई पनप गया व्यक्ति भी कर लेगा।

इंदिरागांधी ने ऐसा किया, इसी से राजीव गांधी जैसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनना पड़ा। सोचिए मायावती कल नहीं रहें तो दलित आंदोलन का नेतृत्व कौन करेगा? लालू मर गए तो आरजेडी का क्या होगा? राहुलबाबा के अचानक नहीं रहने पर कांग्रेस क्या करेगी? जयललिता के नहीं रहने पर क्या होगा, उस राज्य के अभी पक्ष का कभी विपक्ष की भूमिका का? हर राजनीतिक पार्टी में टीम और दल के काम करने का सिस्टम ही खत्म हो गया है।

ये तरीका ठीक नहीं है... ये देश और समाज के साथ धोखाधड़ी है...

हमारे देश का हर नेता ऐसा ही कर रहा है... करता रहा है... ये रवैया बेहद खतरनाक है... इससे हमारा तंत्र खत्म हो जाएगा और आनेवाले वक्त में हम एक घोर राजशाही के गिरफ्त में होंगे। जो बेशक वैसी राजशाही नहीं होगी जैसी राजशाही के बारे में हम अपने इतिहास से जानते हैं या जैसी हमने अपने इतिहास में भोगी है।

तंत्र को जिम्मेदार बनाने की कोशिश हो...
लगता होगा, और सही ही लगता होगा कि जनता और शासक में सीधा बातचीत होने से अफसरशाही और लाल फीता शाही में व्याप्त भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी। जनता को निजात मिलेगी उससे। लेकिन सही ये है कि यही लालफीता शाही... सरकार है। यही देश का शासन चलाती है, यही तंत्र है। उसका मूल्य और निष्ठा से भरा, स्वविवेकी होना, बेहद जरूरी है। कोशिश उसमें मूल्य स्थापना की होनी चाहिए कि वो खुद ही स्व-निर्णय ले... और सबके हित में, राष्ट्र हित में फैसले ले।

लेकिन लालफीता शाही से बच जाने के लिए ये जो केवल ‘मैं, मेरा और मेरे अलावा और कोई नहीं; कि  व्यवस्था स्थापित हो रही है, वो तंत्र का सर्वनाश कर देगी।

अगर हम किसी की लाठी से ही तंत्र को काम करने का आदी बना देंगे तो वो स्व तंत्र नहीं रह जाएगा... हम हर अधिकारी कर्मचारी को सेवा में आने से पहले शपथ दिलाते हैं... वो शपथ ही तो तंत्र के प्रति निष्ठा का मूल्य है... पर ये काम नहीं कर रहा तो इससे काम करवाने के तरीकों पर गौर करना होगा। 

सेवक को शासक नहीं होने देना चाहिए...
जो तरीका बन रहा है, उससे हमारा सेवक, हमारा शासक बन जाता दिख रहा है। बाकी लोगों की तो छोड़िए... केजरीवाल साहब तक अपने संबोधनों में ‘मैं और मेरे मंत्री’ का इस्तेमाल करने लगे हैं। लालू, मायावती, ममता, और जयललिता जैसे लोग तो हैं ही। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री... प्रजा का शासक नहीं, उसका सेवक होता है। लेकिन प्रजा ही उसे मालिक के रूप में ना केवल स्थापित करने लगी है बल्कि उससे ऐसा ही व्यवहार भी करने लगी है। 

ऐसा बहुत दिनों से हो रहा है, बौधिक विकास का सिधांत ये कहता है कि इसे कम होना चाहिए था... पर ये तो बढ़ रहा है।इस देश को इसपर नियंत्रण के लिए कोई इंतजाम करना पड़ेगा।

पर सिफारिशों के बूते ही हर काम करवानेवाले इस समाज को ये और ऐसा होता दिखेगा ही नहीं। उसे बात तो एकदम सहज और वाजिब लगेगी। पर ये बात स्व-तंत्र राष्ट्र के खिलाफ है... और ऐसा करने से उसकी स्वतंत्रता टिकेगी नहीं...

हजारों साल के इतिहास वाले देश में सत्तर साल कोई बहुत बड़ा समय नहीं होता।

Sunday, December 6, 2015

मंदिर तो वहीं बनना चाहिए...



 
राम मंदिर बनना चाहिए... बिलकुल वहीं बनना चाहिए, जहां श्री राम का जन्म हुआ था, उनकी ही जन्म-भूमि पर। अब सवाल है कि राम जन्मे कहां थे?

राम की जन्मभूमि के बारे में जानने से पहले भी एक और सवाल है। हर वो आदमी, जो राम की जन्म
-भूमि के बारे में जानने का दावा करता है, पहले अपनी जन्म भूमि के बारे में खोज करे। वो एकदम ठीक-ठीक बता पाए कि उसका जन्म, धरती में इस अमुक जगह हुआ था, ये जो दस मीटर का गोला है, यही वो जगह है, जहां उसने पहली सांस ली थी।
 
ऑपरेशन थियटर में जन्मे लोग भी अब चालीस साल के हो चुके होंगे। वैसे अब भी वैसे लोग जिंदा होंगे ही, जिनका जन्म ऑपरेशन थियटर की टेबल पर नहीं, धुएं भरी एक अंधेरी स्याह कोठरी में, जमीन पर सोयरी(सोहर) में हुआ होगा। पक्का दावा है कि महज तीस चालीस साल पहले जन्मे हम-आप, अपने जन्म स्थान के बारे में निश्चितता से नहीं कह सकते। ना तो उस टेबल की पहचान कर सकते हैं, जहां और जिसपर दुनिया में बाहर निकल हमने पहली सांस ली। ना ही वो जमीन पहचान सकते हैं, जहां किसी दाई मां ने हमको-आपको इस जमीन पर उतारा होगा।

हमको जन्म देनेवाले माता-पिता ने भी उस जन्म स्थान की इतनी अहमियत नहीं समझी कि उसे चिह्नित कर दें, जबकि हम, उनके जीवन की सबसे महान उपलब्धि और वरदान रहे थे। अपने ही जन्मस्थान के बारे में हम-आपको कोई सूचना नहीं, जबकि ये ज्यादा पुरानी बात भी नहीं, बस पच्चीस से चालिस साल पहले की बात होगी, तो फिर राम कहां पैदा हुए इसके बारे में कौन तय करेगा?

रामायण में श्री राम का जन्म कौशल्या के गर्भ से हुआ। लेकिन राजा दशरथ तो केकई के हाथों की कठपुतली थे। फिर उन्होंने कौशल्या की संतान के जन्म-स्थान को चिह्नित करने का काम तो किया ही नहीं होगा। उनके मृत्यू के बाद, एक सौतन, ईर्ष्या में गले तक डूबी एक सौतन, क्या अपने पुत्र भरत के रास्ते के कांटा, राम के जन्म स्थान के सारे चिह्न् मिटा नहीं देगी जबकि उसने तो, उसी भरत के लिए राम को चौहद साल वनवास भेज दिया था।


राम की अनुपस्थिति में उसका ही बेटा अवध का राजा रहा और वो राज माता रही होगी। चौहद साल में भारत की जनता को कुछ याद रहता है, जो अवध की जनता को रहा होगा।

चौहद साल राम अयोध्या से बाहर रहे। इस बीच अयोध्या की दशा क्या रही, इसका कहीं कोई ब्योरा नहीं है। रामायण की कथा तो राम के साथ चलती जाती है, और भरत जिस अयोध्या के राजा थे, रामायण... भरत के शासन काल की उस अयोध्या की चर्चा तक नहीं करती।

केकई और मंथरा तो राम के वनवास जाने के बाद भी अयोध्या में ही थीं। आपको लगता है वो इन चौदह बरसों में वो और उसके समर्थकों का एक पूरा दल, बेकार बैठा रहा होगा
?
दुष्टता और कपट कभी बेकार और निष्क्रिय नहीं बैठते हैं। उनकी फितरत अनवरत काम करते रहने की है।

अयोध्या के बाद लव-कुछ के वंशज क्या अयोध्या के ही राजा रहे?

कृष्ण की मथुरा तो राम के छोटे भाई, शत्रुघ्न की बसाई हुई थी। तो वो भरत, जिनके नाम पर भी शायद इस उपमहाद्वीप का नाम भारत रखा गया हो, शकुंत्ला के बेटे भरत के नाम पर तो भारत का नाम भारत रखा ही गया। तो वो भरत जिनके नाम से इस देश का नाम भारत रखा गया... वो भरत, क्या पराक्रमहीन पुरुषार्थहीन राजा थे
या वो श्री राम के गुलाम थे?

जैसे शत्रुघ्न ने मथुरा बसाई, लक्ष्मण ने क्या किया? भरत ने क्या किया? और खुद राम ने क्या किया
?

चौदह बरस में तो जमीन भी अपना पूरा स्वरूप बदल लेती है, अगर आदमी का बास हो, तब तो वो पूरा का पूरा ही बदल जाती है। जो लोग गंगा के किनारे रहते हैं, वो बता सकते हैं कि कैसे नदियां अपना पूरा रास्ता बदल लेती है। सरजू भी तो नदी ही है।

तो दुनिया बदल जाती है पर अयोध्या वैसी ही रही, जैसी राम के जन्म के वक्त में थी
नहीं क्या?
ऐसा तो रामायण भी नहीं कहती। राम के जन्म से लेकर उनके अयोध्या वापसी तक, रामकथा लगातार बदलाव की ही बात करती है। व्यावहारिकता ये है कि संपत्ति के लिए दो सगे भाई, एक दूसरे की हत्या करवाते रहे हैं, फिर सौतेले भाई कैसे प्यार से रह सकते हैं।

और जैसे केकयी ने दशरथ से अपने बेटे के लिए काम करवाया, वैसे ही तो भरत और लक्ष्मण की पत्नियां होंगी। शत्रुघ्न की पत्नी और बच्चे होंगे, वो क्या अपने बच्चों के लिए कौशल्या और केकई की तरह फिक्रमंद नहीं होंगी
? या उन्होंने ने नशा पी लिया होगा?

चित्रकूट में जब भरत अपनी सेना को लेकर राम से मिलने आते हैं तो लक्ष्मण और राम दूर से ही उन्हें देखते है। सेना और अयोध्या की ध्वजा देख वो विचार करते हैं कि लगता है भरत सेना लेकर हमारा वध करने आ रहा है, वो भरत से युद्ध करने की तैयारी करने लगते हैं। जी सौतेले भाई भरत से, मर्यादा पुरुषोत्तम राम और साथियों की ऐसी उम्मीद थी।

व्यवहारिक होकर सोंचे तो समझ आएगा कि लंकाविजय के बाद राम जब अयोध्या लौते तो भरत को राज वापस करना पड़ा क्योंकि, राम ने भारतवर्ष के सबसे प्रतापी और अजेय राजा, रावण का वध किया था। किष्किंधा के मंत्री हनुमान उनके मित्र थे। रावण को पराजित करने में मध्य-भारत के जंगलों में रहनेवाली जनजातियों और कबीलों ने राम की मदद की और वो उनके मित्र थे। राम के पास रावण से जीती गई आधुनिक तकनीक वाले वाहन, विमान और हथियार थे।

महाभारत तो रामायण के बाद की चीज है... वहां भी जब पांडव लौटे तो उनका कोई स्वागत नहीं हुआ। उन्हें युद्ध करना पड़ा। जबकि महाभारत काल, रामायण काल से ज्यादा जटिल और विकसित काल रहा था। तो राम जब लौटे होंगे तो उन्हें भरत ने बस यूं ही सत्ता सौंप दी
? नहीं क्या?

मनुष्य के व्यवहार करने के तरीके को कोई भी व्यक्ति अगर समझता हो वो इसे बस एक आदर्श और उच्च मूल्य की स्थापना की कोशिश में रचि कहानी बतलाएगा। मनुष्य हमेशा ही विजय दिवस मनाता है। अयोध्या, भरत का राज्य था
और जीत का जश्न राम का मनाया जाएगा? विचित्र नहीं है क्या
?

चलिए मान लेते हैं कि राम के प्रति भरत की जबरदस्त निष्ठा थी। तो एक सवाल है कि ये निष्ठा क्यों थी, इस निष्ठा की वजह क्या थी। क्यों होगी राम के प्रति भरत की निष्ठा, ऐसा क्या किया था राम ने भरत के लिए कि वो राम के प्रति एकनिष्ठ हो गए? पूरी रामायण में,
राम में भरत की अटूट निष्ठा की स्थापना के लिए कोई वजह नहीं बताई गई है। तो लिखनेवाले ने ये बात छोड़ दी... या मिटा दी।

लिखनेवाले ने भरत और राम के युद्ध की बात भी छोड़ दी.... या मिटा दी।

तो राम कथा कि सच्चाई की ये दशा है कि इसमें कल्पनाएं ही अब सच हो गईं है। और काल्पनिक सच्चाई का कोई भी ऐहितासिक साक्ष्य नहीं होता

दरअसल वक्त, चीजों को ऐसे और इतनी दफा बदल देता है कि उसकी कोई मौलिकता रह ही नहीं जाती है। चीजों की मौलिकता वही होती है, जहां से हम उसे जानना शुरू करते हैं।

हिमालय का पहाड़, करोड़ों साल पहले चीन और भारत के बीच समुद्र था। पर हम उसे पहाड़ मानते हैं क्योंकि हम यही जानते हैं।

तो राम का मंदिर वहीं बनना चाहिए जहां राम
पैदा हुए थे। राम पैदा कहां हुए थे’? इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण मुमकिन नहीं, लेकिन जहां और जब से हम ये जानना शुरू करते हैं कि राम यहीं पैदा हुए थे,
तो राम का मंदिर वहीं बनना चाहिए। बिना किसी मतभेद के।

इसे मुसलमानों को अपनी देखरेख में, अपने सहयोग से बनाकर हिन्दुओं के दे देना चाहिए। ये कहते हुए कि लो और खत्म करो ये सब
!

उनको ऐसा इसलिए नहीं करना चाहिए कि वो कमजोर हैं, या हार जांए। नहीं! लड़ाई और संघर्ष की, हार या जीत की  बात ही नहीं यहां, बात तो यहां, देश और राष्ट्र की बेहतरी के लिए है... देश को आगे बढ़ना चाहिए।

देश हित में इसे खत्म होना चाहिए, और इसके अलावा इसके खात्मे का कोई और तरीका फिलहाल मुमकिन नहीं दीखता।

राम का मंदिर बनाना चाहिए कि वो भारत के मुसलमानों की पहचान की भी बात है। पहले भी थी,  अब भी है, और आगे भी यही धरती... उनकी जमीन रहेगी, जैसे ये, इस धरती के हर पेड़-पौधे और व्यक्तियों की है।

ईसा यहां नहीं थे। मोहम्मद साहेब भी यहां नहीं थे। लेकिन दुनिया राम और कृष्ण को भारत से ही उत्पन्न जानती है।


मूर्ति पूजा से तौबा कर लेने से पहले भारतीय मुसलान, उसी विष्णु की और शिव की पूजा करते रहे होंगे। जैसे अब भी वो अपने गांवों में ग्राम देवताओं और कुल देवताओं की पूजा करते हैं। मजारों, पीर और फकीरों की करते हैं। ये अरबों का नहीं, भारत का संस्कार है।

भारत से बाहर उन्हें भी केवल मुसलमान नहीं, भारतीय मुसलमान के रूप में पहचाना जाता है। इस जमीन का कोई भी आदमी, कहीं जाए वो अपने खून से भारत को हटा नहीं सकता क्योंकि यही उसका इतिहास है।

मोहम्मद साहब में आस्था दुरुस्त है... लेकिन फर्ज कीजिए खुदा ना करें, उसी मोहम्मद साहेब की मक्का में अरब और भारतीय मुसलमानों की जंग छिड़ जाए तो भारत के हिन्दू किसकी तरफ होंगे? उन्हें किसकी फिक्र होगी, वो किसका साथ देंगे?

तो ये देश, यहां के हरेक बाशिंदे का है... यहां अमन चैन रहे और ये वास्तविक रूप सें सबको साथ ले तरक्की करे, इसके जरूरी है कि फालतू चीजों में ना उलझा जाए।

वो क्या है कि बहकावे में आ गये व्यक्ति को समझा सकना, मुश्किल ही नहीं, ना मुमकिन है। यही राम का जन्म स्थान है... ये बहकावा इतना गहरे पैठ चुका है कि इसे मिटा सकना अब तो करीब-करीब असंभव ही है। दुनिया भारत को ही राम के देश के रूप में जानती है तो वो कहीं ना कहीं तो पैदा हुए ही होंगे... जिसे मान लिया गया, उसे ही मान, उसे एक सम्माजनक स्थान दे, राष्ट्र का सिर ऊंचा कर लेना कोई अधर्म तो नहीं।

लड़ाई... दो व्यक्तियों, समूहों, संगठनों, पार्टियों की....जिस जमीन पर वो रहते हैं... उसकी साख खराब करती है, उसे बेइज्जत करती है। भारत के हिन्दू और मुसलमान संघर्ष करें तो इससे भारत बदनाम होता है, उसकी इज्जत जाती है। और भारत की इज्जत जाती है तो इसके हरेक कतरे की इज्जत जाती है....

ये हमारी गरिमा, सम्मान, रुतबे और साख की बात है।