Friday, October 30, 2015

झूठे नारे... झूठे लोग... इकबाल


मैं एक भी बात नई नहीं कह रहा...
इस पर पचास बरसों से भी ज्यादा वक्त से बहस चल रहा है... तो इसे नई बात और सोच, नहीं समझा जाए।
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सारे जहां से अच्छा हिन्दूस्तां हमारा...
– इतिहास के सबसे महान झूठ में एक है ये नारा। ये भाव ही झूठ है। इतिहास में कई चीजें झूठी और धोखधड़ी हैं। जिस आदमी ने भारत को दुनिया में सबसे अच्छा बता, उसके सम्मान में गजल लिख दी।

जिसने भारत के लिए लिखा
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दीं है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।
उस आदमी के दिमाग में ही, एकीकृत भारत के टुकड़े कर देने का पहला विचार आया। सर मोहम्मद अल्लामा इकबाल... “सारे जहां से अच्छा...” लिखनेवाले यही शायर थे, जिनके दिमाग में सबसे पहले ये विचार आया था कि भारत और पाकिस्तान दो मुल्क हों। आजाद भारत नहीं, भारत और पाकिस्तान हो। उन्होंने ही पाकिस्तान के जन्म के विचार और सोच की बुनियाद रखी थी।

उन्होने लिखा...
मजहब नहीं सिखाता, आपस में वैर रखना...
और उसी मजहब के नाम पर वैर पैदा कर दो मुल्क बना दिए। विचित्र विडंबना है। ये पूरा गाना जिस वक्त, जिस भारत के लिए- जिस आदमी ने लिखा था, वो आदमी ही इस गाने के खिलाफ खड़ा हो गया और इसके एक-एक मिसरे की धज्जियां उड़ा दी। नहीं क्या?

इकबाल दुनिया के सबसे महान झूठे लोगों में से थे। जिन्होने कहा कुछ और किया कुछ और। जिसने अपनी ही कही बात को झूठा साबित कर दिया।

उन्होने लिखा...
लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द ।
सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द ।

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द ।

राम को भारत की पहचान बताया लेकिन किया ठीक इसके विपरीत, अपने इसी विचार के विरुद्ध कई नए विश्वास खड़े कर दिए।
उनके दादा स्वर्गीय सहज स्प्रू कश्मीर के ब्राह्मण थे। तो राम के लिए इकबाल की श्रद्धा अनुचित और झठू भी नहीं थी। वो झूठी तब साबित होती है जब उनकी श्रद्धा ही बदल जाती है।

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बेशक उन्होने पाकिस्तान नाम का अलग मुल्क नहीं चाहा था, उनकी संकल्पना एक अलग सूबे की थी। लेकिन पाकिस्तान की अवधारणा का जन्म ही उस सूबे के विचार से हुआ। वो सूबा मजहब पर आधारित ही तो था। जिन्ना ने उनकी इसी सूबे की अवधारणा की बुनियाद पर अपने मनसूबे की इमारत खड़ी कर दी।
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जब भी बच्चे ये गीत गाते हैं, तो मोहम्मद इकबाल, जन्नत से भारत के लोगों की विडंबनापूर्ण मूर्खता पर मुस्कुराते होंगे कि देखो इन बेवकूफों को... जिस गाने की सारी सच्चाई का मैं, उसे लिखनेवाला ही, सत्यानाश कर चुका हूं, वो इसी गाने को जीवन गान बनाए झूम रहे हैं। आप ये ना समझें कि इसमें उनको खुशी होती होगी। दुर्भाग्य कभी भी खुशी नहीं देता।

लेकिन हम बचपन से 'सारे जहां' 'मजहब नहीं सिखाता', गाते आए हैं और हमें ताउम्र इसे गाते रहना चाहिए... अपने बच्चों को सिखाते रहने के साथ ही...। इस गीत या गजल की सच्चाई पर कोई सवाल नहीं। इंसान को 'मजहब नहीं' वाली बात सच साबित करने की कोशिश करते रहनी चाहिए। और हर भारतीय को सारे जहां वाली सच करनी चाहिए। लेकिन जिस आदमी ने इस विचार को जीवन गान बना दिया, उसने ही इसे झूठा साबित करने का काम कर दिया। ये सच्चाई इस गीत की सत्य-निष्ठता खत्म कर देती है।

एक नियम, एक रास्ता जो आप निश्चित करते हैं और खुद ही उस पर नहीं चलते। उसपर अमल नहीं करते। संसार को एक पथ दिखलाते हैं, आपके कहे से लोग उसपर चलने भी लगते हैं और खुद ही वो रास्ता छोड़ देते हैं। तो या तो गलती से आपने सही रास्ता बता दिया। या गलत रास्ता बता, आप सही राह निकल लिए और लोग अब भी आपके गलत बताए रास्ते पर चल ही रहे हैं।

इकबाल साहब के जबरदस्त शायर होने पर कोई शुबहा नहीं। कोई शक नहीं। उन्होने इस्लाम के सुधार के लिए महान और जोखिम भरा, साहसपूर्ण काम किए... ये तो सच ही है।

लेकिन ये सब उन्होने इस्लाम केलिए किया, हिन्दुस्तान के लिए नहीं किया, वो हिन्दुस्तान जो उनके मुताबिक सारे जहां से अच्छा था। इस्लाम के लिए उनकी निष्ठा, उनका काम करना गलत नहीं है। उन्होने बिलुकल ही दुरुस्त किया। कुरीतियों के खिलाफ बोलने, तरक्की और बेहतरी के लिए संघर्ष करने के उनके साहस की तारीफ की औकात मेरी तो है नहीं। ये सीखने वाली बात है, आत्मावलोकन के लिए इस कदर जोखिम उठाने का साहस होना चाहिए... ये सीखनेवाली बात है कि इस रास्ते से हटना नहीं चाहिए, भटकना नहीं चाहिए।

लेकिन उनकी शुरूआती निष्ठा-परिवर्तन, विश्वास में बदलाव, दुर्भाग्य पूर्ण विडंबना, और मौका-परस्ती... एक विचित्र गफलत पैदा करती है। कि शायर ने जिसे सही कहा, या जिसे गलत कहा... उसपर भरोसा मत कीजिए, खुद अपना विवेक इस्तेमाल कीजिए। क्योंकि वो जो बोल रहा है वो झूठ भी हो सकता है। वो खुद ही उससे पलट भी सकता है।

इकबाल के दादा श्री सहज सप्रू ब्राह्मण थे, जवाहर लाल नेहरू भी ब्राह्मण ही थे..,
तो किसी 'मुसलमान' को ये सवाल इकलाब का और मुसलमान का अपमान लगें तो उनका दोष है, क्योंकि मैंने इकबाल को मुसलमान माना ही नहीं है। जिनको वो मुसलमान दिख रहे, वैसे लोगों के विचारों की जिम्मेदारी उनकी खुद की है। मेरे लिए इकबाल जबरदस्त शायर और विचारक थे... वैसे लोगों में से एक, जो समाज को दिशा दिखाते हैं...

समाज के लिए दिशा तय करनेवाले लोगों से उम्मीद ये की जानी चाहिए कि उनके विचार, आचार और आचरण में एकरूपता हो... इनके बीच आपस में ही कोई विरोध ना हो। इससे समाज भ्रमित हो जाता है। इसकी उसे बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।

हुम्म्म ! सयाने लोग

एक गांव की बात है। उस गांव के सारे-के-सारे लोग समझदार थे, जबरदस्त ज्ञानी। उनको कुछ भी जानने की जरूरत नहीं थी। वो एकदम पर्याप्त थे, सम्पूर्ण समझदार। सो ना तो वो कुछ समझते, न कुछ सुनते। दुनिया की किसी भी बात का उन्हें पता ही नहीं होता था, जरूरत ही नहीं थी कि उनको सबकुछ मालूम जो था।
वे सबकुछ जानते थे, इसी से किसी को पहचानते भी नहीं थे।

अब एक बार की बात, बरसात का मौसम था। तालाब में कहीं से एक मेंढ़क आ गया। अपने पूरे जीवन में गांववालों में से किसी ने भी मेंढ़क नहीं देखा था। पूरा गांव ही उसे देखने के लिए वहां पर जमा हो गया। सब-के-सब आंखे फाड़-फाड़कर देखने लगे। उसमें से किसी को भी पता नहीं था कि आखिर यह है क्या। सब-के-सब सोचते रहे। फिर उनमें से एक बोला, “यह है हिरण।”

तो दूसरे ने विरोध किया, “अरे भाई! ये तो बगुला है, बगुला। तुम्हें कुछ पता भी है?”
इसपर तीसरे ने समझदारी दिखाई, बोला, “अरे भाई!  बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल देते हो। यह तो भई सियार है। बरसात के दिन हैं ना, इसलिए जंगल से निकलकर इधर आ गया है।”
इस बीच चौथे ने अपनी टाँग अड़ाई, “अरे झगड़ते क्यों हो? अपने गाँव में एक है ना सयाना। वही सबसे अकलमंद है। वही बताएगा कि यह क्या है। हम कहाँ समझ पाएंगे इसे।”
अब सबमिल कर सयाने को बुलाने गए। सयाने को गांववालों के आने की वजह पता चली तो वो नाचता गाता तलाब के पास पहुंचा और लगा सबको डाँटने, “अरे तुम सब-के-सब जीवन भर मूरख ही बने रहोगे। कुछ तो सीखने की भी कोशिश किया करो कभी!”

अब जी, सयाना आया मेंढ़क के पास और अपनी आँखों पर हाथ रखकर उसे ध्यान से देखने लगा। ध्यान से देखने के बाद बोला, “अरे इसमें क्या है!  देखते नहीं, इसकी चपटी नाक? यह या तो चकवा है और अगर चकवा नहीं तो, मोर तो पक्का ही है।” सबको सच्चाई पता चल गयी और सब अपने-अपने कामों में लग गए।
इसी गांव में एक छोटा सा किला था और उसमें था एक दरवाजा।

एक बार की बात, रात के समय कहीं से एक हाथी आया और किले के आँगन में पसर गया। सुबह हुई तो सबने आंगन में इतना बड़ा जीव देखा। सब हैरान हो गए, लगे सोचने, “अरे! यह क्या!”
हालाँकि सवेरा हो गया था लेकिन आंगन में अभी भी अँधेरा ही था। अब किसी ने समझदारी दिखाई और बोला, “हो न हो, यह तो भैंस का पाड़ा है?“

किसी दूसरे ने ज्यादा सयानापन दिखाते कविता की। बड़ी अक्लमंदी से उनके कहा, “नहीं, नहीं, यह तो बादल की परछाई है।“  उसकी बात सुनकर सभी आकाश में बादल देखने लगे, वहां काले बादल थे, तो सबको लगा ये कवि सही ही बोल रहा है। तभी हवा चली और बादल छंट गए और धूप निकल आई। हाथी जहां था वहीं पड़ा रहा तो ये बात किसी की समझ नहीं आई कि बादल चले गए और परछाई क्यों छूट गई।

तभी किसी ने कहा, “अरे, बुलाओ ना अपने सयाने को। वही तय करेगा कि यह क्या है।“ सब सयाने के घर गए.. पर वो, वहाँ था नहीं। सबने एक साथ सयाने को आवाज लगाई तो पता चला कि सयाना जो है वो एक बेहद ऊंचे पेड़ की फुनगी बैठा, आसामान की तरफ देख रहा है। लोगों ने जानना चाहा कि वो ऊपर पेड़ पर क्या कर रहा है। सयाने से बताया कि वो आसमान ठीक कर रहा रहा है।

सही में उसके हाथ कुछ ऐसी चीजें भी थीं जिससे कोई कुछ ठीक कर सकता है। सयाने ने आगे समझाया कि कल रात की बारिश में उसका छप्पर टपक रहा था, सो उसने सोचा कि कहां हर साल अपना छप्पर ठीक करता रहूंगा, आसामान ही ठीक कर लेता हूं। सब उसकी समझदारी से बहुत खुश हुए।

तो नई चुनौती सामने आने की बात सुन, नाचता-गाता सयाना आया और अपनी आंखों पर हाथ रखकर हाथी को ध्यान से देखने लगा। चारो तरफ से काफी गौर से देखने के बाद वो बोला, “अरे इसमें क्या है! देखते नहीं, यह तो रात का अंधेरा आसमान से धरती पर उतर आया है। ये दो निशान देख रहे ना? ये जगमग करते  निशान? इनमें से एक चांद है, दूसरा सूरज।“

“हुम्म्म्म” - समझदारी भरी एक लंबी हुंकार गूंजी। सब-के-सब समझ गए,  समझते हुए सिर हिलाया और अपनी राह चल पड़े।
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ये गांव, वो वाला गांव नहीं था, जहां रात को हाथी गुजरा तो सुबह में लाल बुझक्कड़ ने गाया था...
लाल बुझक्कड़ बूझिया, और न बूझा कोय.
पैर में चक्की बांधके, हरि ही कूदन होय
वो तो गांव ही अलग है, लालबुझक्कड़ का गांव, एकदम ही अलग है।
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कहानी परम आदरणीय स्वर्गीय गिजुभाई बधेका की है। 1885 में गुजरात में जन्मे गिजुभाई  सैंकड़ों लोगकथाएं एकत्रित कीं और बच्चों के लिए 200 से ज्यादा किताबें लिखी। शिक्षा के लिए नया तरीका अपनाने के लिए गिजुभाई, दुनिया पर में सम्मानित हैं।
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कहानी को रोचक बनाने के लिए कुछ संपादकीय स्वतंत्रता लेने के लिए क्षमा याचना.

Thursday, October 29, 2015

छत-विछत... या कुत्ते की मौत !


 

छत-विछत... या कुत्ते की मौत... बोलना और उसका सही मतलब जानना दोनों अलग बाते हैं। सुबह खराब करने के लिए क्षमा, ये तस्वीरें पुरानी हैं... पर हादसा किसी सुबह का ही है। अखबार में सड़क दुर्घनाओं में मौत की सच्चाई दरअसल ऐसी ही होती है। वो मौतें होती ऐसी ही हैं।

कल कहीं ये तस्वीरें दिखीं तो मन खराब हो गया।
नहीं, नहीं लाशें देख कर नहीं... लाशें ऐसी ही होती हैं, और लाशे सच हैं... कोई भी व्यक्ति लाशों से भाग नहीं सकता है।  पर लाशें इस तरह क्यों?

चार बच्चे, एक तो अनजन्म बच्चा, जिसकी पैदाइश ही लाश हो जाने के लिए हुई। चार बच्चे, दो मोटर साइकिल और एक ट्रक या बस...
किसी से सिर पर हेलमेट नहीं। सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं।

मोटरसाइकिल डिजाइन ही की जाती है दो लोगों के बैठने के लिए। किसी दूधमुंह बच्चे के सवार होने के लिए उसमें कोई व्यवस्था ही नहीं है। पर हाइवे पर, बिना किसी सुरक्षा इंतजाम के, एक बाइक पर चार लोग सवार हुए, आपको पूरे देश में दिखेंगे। लोग ऐसी तस्वीरों को भारत की महान संस्कृति का नारे के साथ, बांट-बांट... खुश भी होते मिलेंगे पर उन्हें इस संस्कृति के पीछे छतराई ये लाशे नहीं दिखतीं...

जिस बाइक को सवा सौ किलों के लिए बनाया गया है, उसपर तीन सौ किलो का वजन होगा तो वो कैसे नियंत्रण में रहेगी। सवा सौ किलोग्राम के वजन पर हर बाइक का एक गुरुत्व केंद्र तय किया जाता है CG.. center of gravity... डिजाइन के जितने करीब ये गुरुत्व केंद्र होता बाइक उतना ही नियंत्रित और संतुलित होती है।

पर देश हमारा...  चलता है,
जैसे चलती हवा,
जैसा बरसता है पानी
जैसे बहती है नदी...
वैसे ही देश हमारा चलता है...
पर इन सबों के चलने के पीछे एक कुदरती कायदा है, सख्ती पालन किया गया भौतिकी का नियम। कुदरत कभी भी विज्ञान से नहीं भटकती है।

पर आदमी को वैज्ञानिक कायदों से कोई सरोकार नहीं...

वो इस्तेमाल करता है विज्ञान पर आधारित चीजें पर इसके लिए टीका और माला पर भरोसा करता है। यहां गाड़ी चलाने आना चाहिए, चलाने मतलब बस चलाने, सड़क पर चलाने आना नहीं, बस चलाने आना चाहिए और लाइसेंस मिल जाता है, गांवो में तो लाइसेंस मिलने की भी जरूरत नहीं होती। कायदे और रूल्स ना तो जानने और सीखने की चीज हैं ना ही पालन करने की चीज।

ट्रैफिक का सम्मान, कायदो का पालन जरूरी नहीं, फालतू के सरकारी बंदिश हैं... ये सोच पूरे समाज का है। सड़क पर करीब-करीब हर वाहन चालक इसी रवैये से चल रहा है। तो चला करे.. फिर जिंदा आदमी ऐसे ही बीच से भुरकुस बन लाशों मे बदलता रहेगा। ठीक-ठाक इंसान दो हिस्सों में ऐसे ही कटता रहेंगा। बच्चे की लाशें, ऐसे पेट फाड़ के सड़क पर छितराई रहेंगी।

देखिए और डरिए कि सड़क पर मरनेवाला हर आदमी, ऐसे ही मरता है।

जिंदगी हमारी है, तो उसका दायित्व सामनेवाले वाहन का नहीं, हमारा है। पर ऐसा होता नहीं है, जिसकी जिंदगी है उसे फिक्र नहीं होती, उसको छोड़. बाकी सबको, उसकी जिंदगी बचाते रहने की कोशिश और फिक करनी चाहिए। भारत में सड़क का यही कायदा है। हर बाइक सवाल और अब तो कार चालक भी ऐसे ही चल रहा है। शहर हो या हाइवे... सब जगह यही नियम लागू है कि कोई नियम लागू नहीं है।

जीवन मिलते ही, मौत की कोशिश मार डालने की होती है। गर्भ से ही... ताउम्र, जबतक मौत मार नहीं डालती, तब तक ऐसा होता रहता है। जिंदा बचे रहने की कोशिश आपको खुद करनी होती है। हर चीज, हर वक्त आपको मार डालने के लिए तैयार मिलेगी। उनसे बचने की जिम्मेवारी आपकी है।
 
गर्भवती महिला, हाईवे पर, क्यों बाइक पर चढ़ेगी... पर हमारे यहां जीवन की कोई कीमत ही नहीं।

सड़क पर लापरवाही के पक्ष में आप जो भी तर्क दीजिए उसका मतलब ये लाशें हैं। लापरवाही की सफाई का मतलब है कि लोगों, बच्चों और औरतों का यही हाल होते रहना चाहिए। जारी रहे इंसानों को कुत्ते की तरह मरते रहना... आमीन।

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Sunday, October 25, 2015

हरामखोर


बपचन के मित्र ने बताया कि जबसे शिकार पर पाबंदी लगी तब से बंद हो गया, लेकिन पाबंदी से पहले उनके यहां जंगली सूअरों का शिकार कर, उसका मांस खूब खाया गया है। बेहतरीन खस्सी से भी उम्दा होता है जंगली सूअरों का गोश्त... बेहद स्वादिष्ट!

शिकार मेरी समझ से बाहर की चीज है। हम खेतिहर लोग हैं। हमारे इलाके में जंगल नहीं रहा कभी। विकास से पहले वो पूरा इलाका... गंगा, गंडक, कोसी, करेह के जलामय इलाकों में था। पानी में डूबी जमीन में मछली तो मारी जा सकती है, वनैले सूअरों का शिकार मुमकिन ही नहीं।

लेकिन बाबा के मुंह से सुना करता था... कि कभी-कभी गाछी में बनैले सुअर दिख जाया करते थे। उनकी कहानी में ये अनुभव भी था, वो बताया करते थे "वनैला सूअर एकदम नाक की सीध में, निशाना बनाकर चलता है। जो कभी वो तुम्हारे पीछे पड़ जाए, तो तुम्हें टेढ़ा-मेढ़ा भागना चाहिए, तब वो तुम्हें नहीं पकड़ पाएगा।"

मतलब ये कि हमारे इलाके में जंगली सूअर, देखकर भागने की चीज थे, मित्र के इलाके में पीछा कर मार दिए जाने की चीज। उनका इलाका जंगल के पास है, हिमालय की तराई में, अब वहां टाइगर रिजर्व है। तो वहां शिकार का चलन रहा और खूब रहा है।

तो वनैले सूअर का मांस, मेमने के मांस से भी बेहतर और उम्दा होता है।

उन्होने बताया कि चम्पारण जिले के उनके शहर में अब एक पूरा बाजार ही विकसित हो गया है जहां, वनैला तो नहीं लेकिन देसी सुअर का गोश्त खूब बिकता है। लोग झोला-भर-भर खरीद ले जाया करते हैं। देसी मतलब, अक्सर ड्रेनेज और काले कीचड़ में लोटे रहनेवाला काला सूअर। खरीददारों में कैथलिक ईसाई तो हैं ही, उनसे ज्यादा संभ्रांत और उच्च जाति के हिन्दू हैं।

सूअर... हराम है, और हराम को खाना, हरामखोरी।

पटना में राजेंद्र नगर के पास कुछ झुग्गियां बनी थी, पैंतीस साल पहले की बात है। एक दिन वहां से गुजरते देखा कि एक दो तीन लोग सूअर को पकड़े हुए थे और एक व्यक्ति उसे लोहे के मोटे रॉड से पीट रहा हैं, एक व्यक्ति उसके शरीर में गरम एक रॉड गोंध रहा है... वो सूअर किसी हाथी से भी ज्यादा तेज आवाज में चीख रहा था। लौटते वक्त देखा कि वो सूअर दो खूंटे पर टंगा है और नीचे आग जल रही है।

अब मित्र के शहर में...
सूअर का मांस खरीदनेवाले ज्यादातर लोग हिन्दू हैं... मतलब कि पोर्क खाने का चलन, जो सूअर पालनेवाली कुछ जातियों तक सीमित था, वो फैल गया है। दशहरा के बाद खस्सी के बजाए कुछ इलाकों में पोर्क भी जमकर खाया जा रहा है।

पोर्क... ये हैरानी की बात नहीं है हमारे लिए। क्रिश्चन मिशनरी के बोर्डिंग में रहते, पहली बार सफेद विलायती सूअर देखने का मौका मिला। अंग्रेज पादरियों की तरह ही एकदम सफेद सूअर। अजीब लगता और अच्छा भी कि नालियों में लोटे नहीं, एकदम साफ-सुथरे बाड़े में बंद रहते थे। जब भी पादरियों को उनका मांस खाना होता तो, वो उनकी हत्या, जिबह या बलि नहीं करते, उन्हें गोली मार देते थे।

जब भी अहाते में गोली की चलने की आवाज गूंजती तो हम समझ जाते, आज रेक्टर हाउस के मेस में पोर्क बननेवाला है।  

इसके करीब दस साल बाद...
दीरांग जाना हुआ एक फिल्म के सिलसिले में। दीरांग जिला है, अरुणाचरण प्रदेश में...चीन से सटा इलाका है। तो उसका प्रभाव भी है। तब दिल्ली में मोमोज इतनी सहजता से नहीं मिलते थे। चाणक्य सिनेमा के पास कुछ स्टॉल थे जो मोमोज परोसते थे।

मोंपा जनजातियों का इलाका था। लेकिन दीरांग में हर जगह मोमोज मिल रहे थे। विचार हुआ कि मोमोज खाया जाय। वो भी नानवेज मोमोज... कीमत पूछी गई और परोस देने को कहा गया। मैंने जैसे ही पहला निवाला काटा कि ध्यान आया कि ये नानवेज मोमोज; इतना सस्ता क्यों बेच रहे हैं? (नानवेज का मतलब हम चिकन ही समझते रहे थे।) अचानक से दो दिन से इलाके के मोंपा गांवों का दौरा करते सारे नजारे कौंध गए।

पहाड़ी इलाके के गांव में खंभो पर बने हर घर के नीचे... सूअर पाले गये थे... घर की सारी गंदगी, जिसमें बच्चों का मल-मूत्र तक भी था, घर से उसी बाड़े में गिरती थी और सूअर उसमें डूबे मस्त रहते थे। उसी गांव में एक जगह एक कत्ल-खंभा भी दिखा, (नाम नहीं याद आ रहा उसका), पूछने पर पता चला कि वहां मवेशियों खासकर गाय और याक को काटा जाता है। मोंपा जनजाती का वो पूरा इलाका याक की पूजा भी करता था।

मुंह में मोमो का कौर(निवाला) था वो भी नॉनवेज और नॉनवेज का पूरा मतलब ध्यान आ गया। मैंने दुकानदार जो कि एक बेहद खूबसूरत औरत थी, से पूछा कि इसमें क्या भरा है, पोर्क या बीफ?  उसने एकदम सहजता से कह दिया पोर्क है.... बीफ हमेशा नहीं मिलता है।

मैले में लोटे हुए सूअर का मांस मेरे मुंह में था... सोचिए कैसी दशा हुई होगी मेरी? उल्टी नहीं की, बाकी सारा कुछ हो गया। साथ के सहयोगी ने कहा, अरे मुंह में चला ही गया तो अब घिन कैसी... मांस निकाल दीजिए और मैदा खा लीजिए... मुझसे तो नहीं हुआ, पर उन्होने ऐसा किया।

पोर्क के लिए मची मारा-मारी के बारे में मित्र ने जब बताया तो लगा विचित्र है हमारा समाज भी... 

मेरे दीरांग गए बीस साल होने को हैं... तब लेकर अब तक हालात बहुत बदल गए हैं। पोर्क के गोश्त के लिए हिन्दू मारा-मारी करने लगे हैं। मोमोज और समोसे में कोई फर्क ही नहीं रहा अब। फिर भी लोग...
ऐसा कैसे हो सकता है कि हम आगे-पीछे दोनों तरफ, एक साथ बढ़ पाएं,  विकास भी करें और पिछ़ड़ेपन को भी दांत से पकड़े रहे, ये तो मुमकिन ही नहीं है।

ब्रह्मांड में कुछ भी आगे और पीछे दोनों तरफ नहीं चलता है।

उनकी जिम्मेदारी लिखने की है...


गुलजार ने कहा है कि साहित्यकारों का विरोध जताने का इकौलाता उपाय पुरस्कार और सम्मान लौटाना ही है।
तमगे तो वापस हो भी जांए, पैसे भी.. सम्मान कैसे वापस किया जाए? कैसे मुमकिन है वो? साहित्यकारों के पास समर्थन जताने का तरीका तब क्या है? चालीसा लिख देना... यही तो है ना?|

जब समर्थन लिखकर होता है, तो विरोध भी लिख कर होना चाहिए। नहीं क्या? साहित्यकार, वक्त को दस्तावेज में दर्ज करते हैं। उन्हें इस काले-समय को भी निर्भीक हो, दस्तावेजों में दर्ज कर देने की जरूरत है।  तमाशा करना, अपनी जिम्मेदारियों से हट राजनीति करना है।

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साहित्यकारों का काम अपनी रचनाओं में खून बहा देना है।

कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगानेवाली,
दिल ही नहीं दिमागों में भी आग लगानेवाली,

तो क्या आधुनिक साहित्यकारों का अपनी कलम की ताकत पर से भरोसा उठ गया है? ये मान लिया जाए कि कलम अब चूक गई है और बदलाव, आन्दोलन और सुमाज सुधार का इकौलाता तरीका सड़कों पर जमा हो
सनसनी मचाना ही बचा है। पर उसका असर तो अस्थाई होता है।

रे रोक युधिष्ठि को ना यहां, जाने दे उसको स्वर्गधीर,
पर फिरा हमें गांडिव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर...

ये दिनकर ने लिखा था... वो विरोधी थे हमेशा ही सविनय अवज्ञा के, विनम्रता के.. उनकी कई रचनाएं इसी विरोध की वजह से लिखी गईं थी कि उन्हें लगता था कि अति विनम्रता युवाओं को भीरू बना देगी तो उन्होंने काव्य रचनाएं की। उनकी रचनाओं का असर हुआ। जिसे लोग वीर रस करते हैं, समझते हैं, दरअसल अति-विनम्रता और गांधी जी के हमेशा ही झुके रहनेवाले विचार का उनका विरोध था। उनका विरोध कारगर भी था... कि उनकी रचनाओं से रगों को आग दौड़ने लगती है।

ये है साहित्यकार...जो वक्त का सामना, भविष्य में करता है।
वो मौजूदा वक्त से हो रहे नुकसान को भांपता है और भविष्य में उसके असर को निरस्त करने की योजनाओं पर काम करने लगता है... क्योंकि कवि दूरदर्शी होता है...वो जानता है कि मौजूदा वक्त का असर भविष्य में होने वाला है, तो वो भी उसी भविष्य की तरफ अपना ब्रह्मास्त्र चलाता है। ये आधुनिक युद्ध की तरह है, जहां मिसाइल को उसके समानांतर ही दूसरी मिसाइल चला कर टारगेट पर पहुंचने के ठीक पहले नष्टकर दिया जाता है।

अभी जो हालात है, ये सबूत है कि भूतकाल के इन साहित्यकारों ने सही काम नहीं किया। उन्होंने समाज को सही दिशा नहीं दी। अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाई। जो अपनी ही करतूतों का नतीजा सामने हो, तो उसका विरोध कैसा? जैसे समाज की रचना में.. आपने योगदान दिया, वैसा समाज अब सामने है तो उसे नकार कैसे सकते हैं आप? ये महान-दृश्य... आपकी ही करतूत का नतीजा है। ये आपकी अदूरंदेशी या स्वार्थी हो जाने का, समाज के साथ आपकी धोखाधड़ी का खामियाजा है... और इसकी कीमत समाज को चुकानी पड़ेगी। क्योंकि आपने अपना काम ठीक से नहीं किया। अब भी आप वही कर रहे हैं...

आप वर्तमान में जी रहे हैं...
भविष्य फिर से और अब भी खतरे में है....
कि साहित्यकारों का काम भविष्य पर नजर रखना है... आप प्रतिरोधी रचनाएं नहीं, राजनीति कर रहे हैं।
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लेखकों का तरीका बस लेखन ही हो सकता है। लेखक बंदूक लेकर युद्ध में शामिल हो जाए तो वो लेखक नहीं, योद्धा हो रहा है। फिल्मकारों का तरीका फिल्में हो सकती हैं। फिल्मकार बम गिराने लगे तो वो विनाशक हो रहा है।

आप ये नहीं कह सकते हैं लेखक भी युद्ध में शामिल हुए। दरअसल जिस वक्त एक लेखक ने लेखन के अलावा दूसरा कोई रास्ता अपनाया, तो वो लेखक रहा ही नहीं।

Tuesday, October 20, 2015

तुम्हारी नज़र से...


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उस दिन...
जितना तुम संवर सकती थी, संवर कर आई।
बुलाया
मुझे... दरवाजे के पास...

कि देखूं मैं तुम्हें कि कैसी दिखती हो तुम.
तो देखा मैंने तुम्हें और बहुत प्यार आया तुमपे,
इसलिए नहीं कि तुम बहुत सुंदर लग रही थी...
वो तो देखा ही नहीं मैंने...
देखी मैंने तुम्हारी कोशिश, तुम्हारा प्यार, उसकी एकाग्रता
,
कि तुम खुद को मेरी आंखों से देखने की कितनी कोशिश करती हो..

वो सारा संवरना तुम्हारा
... मेरे लिए था,
कि सुन्दर लगो तुम मुझे,
अच्छा लगे मुझे
,

उस दिन भी कहा था
और जब भी याद आता है वो दिन
कहता हूं हर बार
कि मुझे तुमसे प्यार है।
बेहिसाब प्यार...

हर बार, जब भी तुम्हें लगता है
कि तुम सुंदर दिखती हो,
कि ये तो मुझे पसंद है
कि ये तो एकदम वैसा ही है
, जैसा मैं बतियाता हूं...
तो तुम्हारी आंखे
, मेरी हो जाती हैं,
और तुम खुद को ही देखने लगती हो, मेरी नजर से...

बेहद ललचाई,
मुग्ध और गरिमामय नजर से खुद को निहारना तुम्हारा,
मुझतक पहुंचता है.
और मैं देख लेता हूं तुमको...
तुम्हारी नजर से!

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अपने संवाद संग्रह 'मेरे तुम' से
आनंद के क़ष्ण

Monday, October 19, 2015

किताब नहीं, कचरे के व्यापारी...


साहित्यकारों ने सम्मान वापस कर दिया...

हंगामा काहे हो रहा है? सही तो कर रहे... उनको सद्बुद्धि आई है कि वो तो सम्मानित किए जाने लायक थे ही नहीं। समाज, सरकार से गलती हुई।
सरकार भूंजे की तरह पुरस्कार बांटने लगी है जैसे टीवी पर टैलेंट की बाढ़ है। भाई, सच बात तो ये है कि हमारे टैलेंट का स्तर ऊंचा हो गया है। एक बेहद टैलेंटेड व्यक्ति भी अब किसी लायक नहीं। वैसे में औसत टैलेंडेट को सम्मानित करेंगे तो यह तो होगा ही।


ये लोग तो उसके लायक ही नहीं थे।
भारत में जितनी कहानियां लिखी जा चुकी हैं, जितना काव्य हो चुका है... वो इतना विस्तृत और विशाल है कि अब और किसी कहानी और कविता की जरूरत नहीं। हजारों साल पहले लिखी कविताएं और कहानियां ही पढ़ ली जाएं तो आपको अपने भाव-अभिव्यक्ति के लिए हर चीज लिखी मिल जाएगी। आपको अपने भाव नए लगेंगे ही नहीं।

लेकिन आदमी ठहरा अहंकारी... और मूर्ख भी...
घटना उसके साथ घटी नहीं है, तो हुई ही नहीं। अगर भावना उसमें आई, तो ही वो सर्वव्यापी है, तभी वो वैलिड है। किसो को प्यार हुआ तो उसके मुताबिक उसके पहले प्यार था ही नहीं, वो पहला व्यक्ति है, जिसे प्यार हुआ है। वो प्यार का एक्सपर्ट बनने की कोशिश करेगा, जैसे उसकी बात ब्रह्मवाक्य और पहली बार कही गईं है। दरअसल वो अपने पहले हुए असंख्य प्यार से अनजाना है, इसी से उसको अपना हुआ प्यार नायाब और महान लग रहा है।

बच्चे रोज पैदा होते हैं, सड़कों पर बिलबिलाते रहते हैं... लेकिन जब किसी युवा-युवती को अपना बच्चा होता है तो वो ऐसे व्यवहार करते हैं कि इससे पहले बच्चे हुए ही नहीं थे, संसार में मां-बाप बस वही बने हैं। दरअसल वो अंधे हैं... उन्हें अपने पहले के उन अनगिनत माता-पिताओं का पता नहीं है।

जेफरी आर्चर, बिकाऊ लेखक हैं.... खूब बिकी उनकी लघुकथाएं।
लेकिन अगर आपने लघुकथाएं पढ़ रखी हों तो आप जान जाएंगे कि यह महान लेखक दरअसल, मोपांसा, मोम, चेखव, ताल्सताय की कहानियां दोहरा रहा है। इतनी बेशर्मी से दोहरा रहा है कि वो उसे अपना तक बता,उसकी रॉयली ले रहा है। भारत में भी यही दशा है...

पिछले पचास बरसों में ज्यादातर बकवास साहित्य की रचना हुई है। ये लोग साहित्य के कारोबारी थे...धंधेबाज। इन लोगों ने साहित्य की सेवा नहीं की, धंधा किया है उसका। कहानी कहने की कला को बाजार बना देने का बहुत महान काम किया है इन लोगों ने। इन्हें पुरस्कार भी इसी काम के लिए मिला है।

हां, पचास बरसों से साहित्य के क्षेत्र में केवल कूड़े का योगदान हुआ है... वो केवल दोहराव है।
कॉर्बन कॉपी करने के लिए पुरस्कार या सम्मान मिलना ही नहीं चाहिए था।  सम्मानित किए जाने का ये कारोबार ही बंद होना चाहिए.... चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो...

भारत रत्न, राहित्य रत्न, श्रेष्ठतम अभिनेता, महान गायक.... ये सब बकवास और फालतू के चोंचले हैं। ये साहित्य, काबीलियत को प्रोत्साहन के लिए था, लेकिन जब साहित्य, काबीलियत यू ही बह रही है तो उसे प्रोत्साहन की जरूरत ही क्या है?

जो लोग महान हैं, उन्हें किसी परिचय और पारितोषिकी की जरूरत नहीं। वो बस महान है... उनकी महानता का परिचय ईनाम से मुमकिन नहीं होग... वो परियच इतिहास खुद खोज लेगा।

Sunday, October 18, 2015

बच्चों के बलात्कारी हम !

ढाई साल की बच्ची का बलात्कार। पांच साल की बच्ची का गैंग रेप। सात साल की बच्ची का स्कूल में रेप। किरायदार ने छह साल की बच्ची का बलात्कार किया। टीचर ने किया स्कूल में बच्ची से बलात्कार। वैन ड्राइवर ने बच्चे से जबरन अप्राकृतिक यौन संबंध बनाया।

ऐसी हर घटना में दो चीजें कॉमन हैं, बच्चे और बलात्कार। हर घटना में बलात्कारी की शख्ल बदल जाती है लेकिन बच्चे और बलात्कार... वैसे ही रहते हैं।

दो और चीजें कॉमन रहतीं हैं... एक तो है तरीका कि...
अंकल ने बैलून लेने के लिए बुलाया। भैया बुलाकर ले गए। अंकल ने कहा मिठाई दूंगा. वगैरह, वगैरह, वगैरह।

और सबसे कॉमन जो चीज है वो है, अनदेखी, अवहेलना, लापरवाही।
उन लोगों की लापरवाही, उन माता-पिता की... जो घटना के बाद सरोकार से लबरेज, कुछ भी कर गुजरने के लिए बेचैन दिखते हैं कि ....
 
माता-पिता और रिश्तेदारों ने रोष में सड़क जमा किया, घेराव किया। गुनाहगारों को पकड़ने सजा देने के लिए आंदोलन कर रहे।
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छोटी बच्चियों के मामले में गुनाहगार कौन है?
 
शायद वो बच्चियां...
उन्होंने अश्लील कपड़े पहने थे? उन्होंने भडकाऊ ड्रेस पहन रखा था? जीन्स और हॉट पैंट में घूम रहीं थी? हां वो बच्चियां ही जिम्मेदार है...
या फिर बलात्कारी? जिसकी मानसिकता खराब थी। जो मनोविकार का शिकार था... नहीं क्या? ये बलात्कारी ही दोषी था।
 
लेकिन मां-बाप... उनके दोष का क्या?
असल अपराधी तो ये लोग हैं... सजा इन्हें मिलनी चाहिए।
बच्चे इनकी अनदेखी, इनकी लापरवाही, इनकी अवहेलना से भेड़ियों और गिद्ध के हाथों पड़ जाते हैं।

चूहे के बच्चे को कौवा ले गया। मेमने को भेड़िया उठा ले गया। खरगोश के बच्चे को चील ले उड़ी। इन सबमें कौवा, भेड़िया और चील जिम्मेदार है? या कौवे की मां, खरगोश की मां और मेमने की मां जिसने बच्चों को अकेला इस दशा में छोड़ दिया कि उनका शिकार कर लिया जाए।
 
तो बच्चों के इस दशा में पहुंचाने का रास्ता बनानेवालें इन मूर्ख माता-पिताओं का क्या किया जाना चाहिए...जो अपने जीवन में गोबर के चोत की तरफ ऐसे पसरे हुए हुए रहते हैं कि उन्हें बच्चों की सुरक्षा की परवाह ही नहीं रहती। वो अपनी ही दुनिया में ऐसे मस्त रहते हैं कि सुरक्षा के लिए दिए गए बच्चों के इशारों को भी उनकी जिद और बचपना समझते हैं। समाज, ऐसे चंठों से भरा पड़ा है, जो अपने बच्चों को असुरक्षित छोड़ अपने पडोसियों से चोचलेबाजी में मशगूल रहते हैं। अपनी दुनिया में वो ऐसे खोये रहते हैं कि बच्चों की सुरक्षा की जरा भी परवाह नहीं रहती उनको।

बच्चे ही जीवन की सबसे जरूरी प्राथमिकता हैं... उनकी सुरक्षा हर जीव की पहली और इकलौती कुदरती जिम्मेदारी है। उनके प्रति ऐसी लापरवाही.. कि कोई उनको फुसला ले जाए, उनका बलात्कार कर ले और मां-बाप को उनकी लाश मिले।

इसकी सजा तो मां-बाप को मिलनी चाहिए ना...?
 
हां, बच्चों के साथ हुई किसी भी अनहोनी में.. सबसे ज्यादा दोषी ये मां-बाप हैं। हर बार जब भी कोई मां-बाप छोटी बच्ची-बच्चे के साथ ऐसे अपराध की शिकायत लेकर आए तो उनसे पूछिए... आपको पता चलेगा कि शुरूआत उनकी लापरवाही से हुई थी।

तो उन्होंने अपनी मस्त दुनिया में मशगूल रहकर अपने बच्चों को बलात्कारी के हवाले कर दिया कि जा मजे कर। ये रवैया ठी नहीं है।

बच्चों की ये दशा उनके अभिभावकों की अनदेखी और लापरवाहियों के वजह से ही हो रही हैं, होती हैं। सजग, और चौकस माता-पिता के बच्चे कभी भी ऐसे हादसों के शिकार नहीं होंगे। बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी बच्चों की खुद नहीं, उनके मां-बाप की है। अगर बच्चे असुरक्षा के शिकार होते हैं, सबसे पहला और सबसे बड़ा अपराधी उनके माता-पिता और अभिभावक हैं। सजा उन्हें भी मिलना चाहिए और बहुत की कड़ीसजा, बलात्कारियों से भी ज्यादा कड़ी सजा। तभी बच्चे जनमा कर उसे शोषकों के हवाले करनेवाले ऐसे मूर्ख और स्वार्थी माता पिता को अक्ल आएगी

ऐसे हादसों के शिकार बच्चों पर दया आती है, सहानुभूति होती है, अफसोस होता है कि ईश्वर ने इन्हें किस अपराध की सजा दी कि ऐसे मां-बाप के यहां पैदा किया जो इनका ध्यान नहीं रख पाए। जिन्हें इन बच्चों की जरूरत ही नहीं थी...

...तभी तो अभी जब किसी भेड़िए ने मासूम को चीड़ दिया तब हंगामा कर रहे हैं लेकिन भेड़िए को ऐसा मौका किसने दिया? किसने वैसे असुरक्षित अवसर पैदा किए कि कोई भेड़िया बच्चों को उठा ले जाए। किसने अपने मासूमों को उनके हवाले किया?

बच्चों के साथ यौन अपराध और बड़ों के साथ यौन अपराध देखने में एक सा लगता हो, दोनों की बुनियाद में ही बड़ा फर्क है, बाकी चीजों में तो है ही।

चोरी के लिए जितना चोर जिम्मेदार होता है, उतनी ही जवाबदेही पहरेदार की भी होती है।

Friday, October 16, 2015

औरत की जगह, यहां मेरी जांघ पर है !


औरत की जगह यहां मेरी जांघ पर है...
...दुर्योधन ने कहा था। फौलादी शरीर होने के बाद भी, वो उसी जांघ के टूटने से मारा गया, जिसे उसने औरत को अ्पमानित करने के लिए ठोंका था।

रुद्रमादेवी के खलनायकों का विचार भी यही है...
कमाल ये कि ये खलनायक कोई एक व्यक्ति नहीं, पूरा समाज, पूरा देश है, पूरा सामराज्य है।

"औरतों का काम क्या है? उसे तो भगवान ने मर्दों का दिल बहलाने के लिए बनाया है, अपने बदन से और अदाओं से सज संवरकर उनकी सेवा करने, उन्हें खुश करने के लिए।"

शुरू में एक बच्ची के जन्म पर, शुरूआती इस टिप्पणी का जवाब ये देना था कि ऐसा नहीं है”.
 
बस तीन अक्षर के इतने से जवाब के लिए एक बड़ी लंबी और शानदार कहानी कही गई। कहानी शानदार थी। बहुत बढ़िया, लेकिन उसका प्रस्तुतिकरण... कमजोर और उबाऊ था। बाहूबली के इल्लायाराजा यहां भी थे लेकिन पता नहीं चला कि इल्लाराजा हैं।

कहानी सचमुच दमदार थी, पर लगता है बाहूबली के बाद जल्दीबाजी में इसे जारी कर देने की कोशिश की गई। इसी से फिल्मांकन, स्क्रीनप्ले, कैमरा, लाइट, एनीमेशन, स्पेशल इफ्फेक्ट तमाम तकनीकी पक्ष कमजोर रह गए। सबसे बुरा तो है कि अभिनय पक्ष को भी नजरअंदाज कर दिया गया। इतनी जल्दीबाजी क्यों. इन कमजोरियों पर हावी होने केलिए फिल्म को थ्रीडी बना दिया। भाई जब लोग मार्शियन्स, ट्रांसफार्मर जैसी फिल्में थ्रीडी में देख रहे हैं तो एकदम बचकाना एनीमेशन वाली सस्ती थ्रीडी उन्हें क्यों भाएगी।

सरकार की तरह काहे व्यवहार करते हो?
जिससे पैसा लेते हो उसे ही मूर्ख समझते हो, अजब है यार!

मैं कई बार कहूंगा कि कहानी बहुत अच्छी थी। दुर्गापूजा के वक्त के लिए इससे बेहतर कहानी हो नहीं सकती। निर्माताओं को भी इसे पूजा से जोड़कर जारी करना चाहिये था। प्रचार में अगर वो रुख रखा होता तो लोग देखते... वो रिलेट कर सकते थे, दुर्गा मां को...

कहानी ऐतिहासिक है। एक विलक्षण वीरांगना... साम्राज्ञी की कथा है। जिसके जनमते है पिता को सत्ताच्युत हो जाना था कि उनके घर वारिस नहीं, बेटी पैदा हुई है। आगे की पूरी कथा वही थी कि कैसे एक बेटी, उस समाज में वारिस होती है, जो स्त्री के द्वारा शासित होने का विरोध ही नहीं करता। इसके विरुद्ध विद्रोह कर देता है।

आज भी तो ऐसा है कि जिस घर परिवार में केवल बेटी है उसे असुरक्षित और अरक्ष्य (जिसका कोई रक्षक नहीं समझा जाता है) समझा जाता है। बेटियों का केवल मन से ही नहीं तन से भी मजबूत बनाये जाने की जरूरत है। अंगद की तरह कि वो जहां पांव जमा दें वहां से उन्हें हटाना मुमकिन ही ना हो। तभी ऐसा होगा कि उनकी रक्षा करने की जरूरत से ऊपर उठ, वो दूसरों की रक्षा कर सकने के लायक हो सकेंगी। भाई ही क्यों रक्षा करेगा बहन की? बहन क्यों नहीं भाई की रक्षा करेगी?। ताउम्र पिता ही क्यों रक्षा करता रहेगा, माता-पिता के बुढ़ापे में बेटी इतनी ताकतवर क्यों नहीं होगी कि वो उस आदमी की गर्दन तोड़ दे, जो उसकी मां या पिता को बूढ़ा समझ धक्का दे रहा हो। बेटियों को शारीरिक रूप से ताकतवर और समर्थ होने की जरूरत है इस समाज में।

ये मेरा मानना है...
वैसे बेटियों को जूते के नीचे रखने के विचार वाले लोगों की कमी तो है नहीं... तो मेरा कथन उनके लिए नहीं है। वो यहां बहस ना करे... कहीं और जाएं।

फिल्म की कहानी ऐसी ही थी। एक राजकुमारी... समाज के दवाब के चलते राजकुमार की तरह पली, बढ़ी और शासन किया... शौर्य, वीरता, विवेक और कुशलता से। लेकिन जब उसके लडकी होने का खुलासा हुआ तो प्रजा विद्रोह पर उतर आई... फिर उसी राजकुमारी ने मूर्ख प्रजा (भारत की प्रजा आज से मूर्ख नहीं है) की दुश्मनों से रक्षा करती है।

बढ़िया कहानी... बकवास प्रस्तुतिकरण...
बढ़िया कहानी के लिए अगर आप बकवास प्रस्तुतिकरण को झेल सकते हैं तो देख लेना चाहिए ये फिल्म...

फिल्म में अल्लू अर्जुन देखने लायक हैं... वैसे वो कभी भी देखने लायक ही होते हैं। अनुष्का शेट्टी के हाव-भाव तो बढ़िया है, लेकिन एक्शन में वो नफासत नहीं लाया जा सकता है। एक्शन फिल्म है लेकिन स्टंट कंपोजर एकदम सस्ता, फूहड़, अनुभवहीन लग रहा है। निर्माता को कम से कम उसपर ज्यादा पैसे खर्च करना चाहिए था। किया होता तो ये फिल्म माता दुर्गा के अवतार वाली फिल्म साबित होती। फिल्म पर जल्दीबाजी का असर दिखता है।  
 

एक चिट्ठी में चिट्ठी...


ये मुश्किल आम हैं...
जब से आप मेरे जीवन में आईं हैं, तभी से लगता रहा है आपको कि आप खूबसूरत नहीं हैं। आपको छोड़ संसार की हर औरत खूबसूरत है, बस आप खूबसूरत नहीं है। हर बार... और कितनी ही बार, मैंने ये गलतफहमी दूर करने की कोशिश की... पर नाकाम रहा हूं।

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आज एक चिट्ठी पढ़ी तो लगा इसमें तो वही बात है, जो मैं लगातार आपसे कहता रहा हूं... पर आपको समझा नहीं पाया।

विक्टोरिया कैरोलाइन... अमेरिकी फोटोग्राफर हैं, एक दिन उनके ईमेल में उन्हें एक चिट्ठी मिली।

हुआ ये कि अमेरिका के टैक्सस के उपनगर San Antonio के होटल Gorgeous में मिसेज बैंक नाम की एक महिला एक दिन विक्टोरिया से मिलने आईं। वो महिला किसी महरानी सी खूबसूरत थीं। बेशक उनका वजन ज्यादा था, आप उन्हें मोटी पुकार सकते हैं, लेकिन वो बला की खूबसूरत लग रही थीं। इतना खूबसूरत होने के बाद भी मिसेज बैंक, विक्टोरिया से अपना प्रोफाइल बनवाने आईं थीं। उन्होंने विक्टोरिया से अपनी कुछ तस्वीरें खींचकर, उन्हें फोटोशॉप या कम्प्यूटर ग्राफिक्स से ठीक करने की विनती की। वो चाहती थीं कि विक्टोरिया उनकी तस्वीरों से उनके स्ट्रेच मार्क्स मिटा दें। उनकी कमर पतली कर उनकी उम्र कम दिखा दें। त्वचा की झुर्रियां हटा दें। अधेड़ उम्र के चलते कुल्हे और जांघों पर आ गए, गड्डे, दाग-धब्बे और खुरदुरापन ठीक कर दें।

विक्टोरिया ने वैसा ही कर दिया। मिसेज बैंक ने अपनी उन तस्वीरों का अलबम अपने पति को भेंट कर दिया। कुछ दिन बाद विक्टोरिया को एक ईमेल मिला। मेल उस भद्र महिला मिसेज बैंक के पति मिस्टर बैंक की तरफ से था।

मेल में लिखा था...
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प्रिये विक्टोरिया,

मैं मिसेज बैंक का पति फलां हूं। मैं आपको  इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि हाल ही मुझे एक अलबम दिया गया है, जिसमें मेरी पत्नी की वो तस्वीरें हैं, जो आपने ली थीं।

मेरी मंशा आपको निराश या उदास करने की कतई नहीं। लेकिन मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं। मैं और मेरी पत्नी 18 साल की उमर से साथ-साथ हैं। हमारे दो प्यारे बच्चे हैं। तब से लेकर आजतक, इन बरसों में हमने साथ-साथ जीवन के कई उतार चढ़ाव देखे हैं।

दरअसल मैं जानता हूं कि मेरी पत्नी ने ये तस्वीरें क्यों बनवाई। उन्होंने ये तस्वीरें इसलिए बनवाई हैं कि वो मेरे लिए कुछ चटकारेभरा, मसालेदार, कुछ मजेदार कर पाएं।  उन्हें अक्सर लगता है कि वो मेरे लिए आकर्षक नहीं रहीं हैं। वो मानती है कि इसकी वजह से, अगर मैं किसी कम-उम्र औरत के चक्कर में पड़ जाऊं तो इसमें मेरी कोई गलती नहीं होगी। वो दोष उनका होगा कि वो मुझे रिझा नहीं पा रही हैं, क्योंकि वो अब खास आकर्षक नहीं लगतीं हैं।

मैंने जब आपकी ली हुई तस्वीरों वाला अलबम खोला, तो मेरा दिल बैठ गया। ये तस्वीरें यकीनन अदभुत हैं, बेजोड़... आप बेशक कमाल की फोटोग्राफर हैं। मुश्किल ये है कि बेहद खूबसूरत ये तस्वीरें, मेरी पत्नी की तस्वीरें नहीं हैं। ये तो मेरी पत्नी हैं ही नहीं...

आपने इन तस्वीरों में उनकी सारी खूबियां हटा दीं। वो खूबियां... जिन्हें आपने दरअसल त्रुटि समझा है, उन सबको गायब कर दिया है। बेशक उन्होने ही आपको ऐसा करने के लिए कहा होगा। लेकिन इन तस्वीरों में से वो सारी चीजें गायब हैं..., इनसे वो सारी चीजें छीन लीं गईं हैं, जिनके सहारे हमारा जीवन खड़ा हुआ है।


मैं आपको चोट पहुंचाना नहीं चाहता, बस जैसा फील कर रहा हू, वो बता रहा।
आपने उनके पेट से सारे स्ट्रेचमार्क्स हटा दिए, ऐसा करके दरअसल आपने हमारे बच्चों के पैदाइश के सारे सबूत और उनके होने के दास्तावेजों को नष्ट कर दिया। आपने उनकी झुरियां हटाईं तो दरअसल आपने दो दशकों के हमारे साहचर्य, साथ-साथ जी गईं हमारी हंसी और परेशानियों की निशानियां मिटा दीं। आपने उनके पैरों और जांघों के दाग और मांसल गड्डे मिटाए तो आपने बरसों से खीर और मिठाई पकाने के उनके अनुभव और साथ मिल उनका अदभुत स्वाद लेने के हमारे सुख की सारी यादें, सारे चिह्न पोंछ डाले।


मैं ये सब आपसे इसलिए नहीं कह रहा कि आपको बुरा लगे। आपने तो बस अपना काम किया और कमाल का किया है। मैं बस आपका आभार व्यक्त करना चाहता हूं कि इन तस्वीरों को देखकर मुझे लगा कि शायद मैं अपनी पत्नी को ठीक से बता नहीं पाया हूं कि मैं उन्हें कितना प्यार करता हूं। और वो जैसी भी हैं, मैं दीवाना हूं उनका। वो शायद ही कभी मेरे मुंह से ये सुन पाती हैं... और इसी से उन्हें लगता है कि ये तस्वीरें ही हैं वो चीजें, जो मैं उनमें खोजता हूं।

ये जानते हुए कि उनकी तमाम अपूर्णताओं के साथ मैं बाकी जीवन उनके साथ जश्न मनानेवाला हूं, मुझमें जबरदस्त सुधार की जरूरत है। इसका ध्यान दिलाने के लिए आपका आभार।

भवदीय
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ये तो मिस्टर बैंक की बातें हैं।

मैंने भी न जाने कितनी ही बार ये बातें आपसे कहीं हैं। कहा है कि नहीं कि आप दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत हैं?

आपके बदन के सारे दाग, सारे धब्बे मेरी वजह से हैं कि आपने हमको दो प्यारे बच्चे दिए। आपने उन्हें अपना दूध पिलाया है... आप मां है... मेरे बच्चों की मां... आपके बदन की हर रेखा यही तो बताती है कि आपने अपना जीवन हमें दिया है।

हमारा एक परिवार है. आपने बाबूजी, मां.... हमारे पूरे खानदान के गुणसूत्रों को आगे बढ़ाया है। हम सबों ने साथ मिलकर एक शानदार जीवन जिया है। सारे बच्चे,एक साथ मिलकर...

साथ बिताए वक्त से बनी ये रेखाएं, उस वक्त का आप पर असर... इन सबमें हमारा स्नेह, प्यार नहीं है क्या?  आप जैसी भी हैं, दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत हैं! मुझे आकर्षित करने के लिए, रिझाने के लिए आपको कोई कोशिश करने की जरूरत नहीं कि मैं तो पहले से ही आपके लिए पागल हुआ पड़ा हूं।
 

Thursday, October 15, 2015

प्रतिकार


यहां कुछ अश्लील शब्दों से आपका सामना हो सकता है। जो आपके मुताबिक अश्लील होंगे, पर मेरे लिए नहीं हैं वो अश्लील। मेरे लिए अश्लीलता - भूखे नंगे बच्चे हैं। बेसहारा बुजुर्ग हैं। सूखे पेड़ हैं। स्याह काला पानी है। कालिख भरी जहरीली हवा है। बिकती औरत हैं... बंजर जमीन है, मरता किसान और गरीब है। मेरे लिए ये सारी चीजें अश्लीलता हैं, पर आपका विचार कुछ और हो सकता है...

शाम को वॉक करते वक्त देखा कि एक साठ-पैंसठ साल का एक आदमी, एक युवक के पैर पकड़ रहा था। ध्यान आया कि जिस जगह वो ऐसा कर रहा था, वहीं पर वो अपनी चाय की दुकान चलाता है। रोजाना सुबह- शाम उसे वहां देखा जा सकता है।

पास ही कुछ कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है, एक दिन हमलोग जब उसकी चाय की दुकान के पास से गुजर रहे थे कि उसी वक्त हमारे बगल से सड़क की दूसरी तरफ से दो औरतें गुजरीं। उस व्यक्ति ने उनकी तरफ कुछ फब्तियां फेंकी। एक औरत जो थोड़ा युवा थी, वो उस आदमी की टिप्पणी से मुस्कुराई, लेकिन जिसकी उम्र ज्यादा थी वो एकदम गंभीर बनी रही, और वहां से गुजर गई।

हमने आपस में बात की। मैंने कहा - "देखा इस कमीने को... उन औरतों के ना चाहते हुए भी इस हरामखोर ने उनका मजा ले लिया।"

अब वापस पैर पकड़जाने वाली घटना वाली जगह पर – युवक उसको समझा रहा था। लेकिन वो आदमी उसके पैर छोड़ ही नहीं रहा था। युवक पढ़ा लिया किसी, कहीं अच्छी जगह काम करनेवाला लग रहा था। वो छुटकारा पाने के लहजे में उस आदमी को टालने की कोशिश कर रहा था। हम उन्हें वहीं छोड़ आगे बढ़ गए।

अगली चक्कर में वो युवक और वो आदमी... दोनों वहां नहीं थे। हमारी रुचि इसलिए थी कि वो आदमी जिस भाषा में बात कर रहा था, वो जानी पहचानी बोली थी। बीस कदम आगे बढ़े तो देखा कि एक औरत एक बड़े बांस से उस आदमी को पीटे जा रही है। वो आदमी बार-बार कह रहा है - "और मारो, और मारो.. जोर से मारो... और जोर से मारो..."

उस औरत के हाथ में जो बांस था, वो इतना बड़ा था कि उससे संभाले नहीं संभल रहा था। लेकिन वो किसी तरह उस आदमी को मारे जा रही थी। साथ में एक लड़की भी थी, जो मार तो नहीं रही थी लेकिन वो मारनेवाली के साथ थी। पास ही चार पांच सात साल के दो तीन बच्चे भटक रहे थे। एक छोटा बच्चा उस लड़की की गोद में भी था जो मारनेवाली औरत का था।

किसी ने दूर से कहा – “अरे क्यों मारती है... इसके हाथ-पैर बांध दे” ये सुनना था कि वो लड़की जोर-जोर से बोलने लगी। - “हरामखोर बाप है हमारा, कहता है चोदेगा हमको। मना करने पर मारपीट करता है।“ उस लड़की के आरोप, और उसकी स्थिति से मन खिन्न हो गया... अब आगे बढ़ गए।

दोबारा लौट आए तो बांस से मारने वाली औरत दूर खड़ी थी। वो लड़की भी अपनी उससे कुछ कदम दूर अंधेरे में खड़ी थी, लेकिन वो आदमी नहीं दिख रहा था। लगा... चलो अश्लीलता खत्म हुई।

लेकिन अगली बार लौटे तो देखा कि पास ही घूम रहा छह-सात साल का बच्चा उस लड़की के हाथ में एक डंडा पकड़ा रहा था। औरत भी वहीं खड़ी थी, जो कह रही थी कि वो आदमी कोई नहीं लगता है उसका। हाथ में डंडा आने के पहले से ही लड़की बिना रुके लगातार बोले जा रही थी - “मैं यहां चोदवाने आई हूं, जो तू मुझे चोदेगा। अब... दिखा चोद के मुझको। मुझे यहां इसीलिए लेकर आया था... अब हाथ तो लगा”। यही बात दोहराते हुए वो लगातार उसे पीटे जा रही थी। जवाब में उस आदमी ने भी उस लड़की को दो तीन चांटे लगाए, बदले में लड़की ने भी पलट कर जोर से धक्का दिया, फिर लगी डंडे से पिटाई करने।

आपको इसमें अश्लीलता दिख रही होगी। लेकिन हमको इसमें स्पष्टता दिखी। उस लड़की की स्पष्ट समझ और उसके स्पष्ट अभिव्यक्ति उसके अधिकार के लेकर उसकी सजगता बता रहे थे।

वो आदमी, पति ना सही पर उस औरत का मर्द था, चाहे कुछ ही दिनों से, कुछ ही दिनों के लिए हो। वो लड़की उस आदमी की ही बेटी थी या नहीं पर उस औरत की बेटी जरूर थी। लड़की, दोनों में से किसी की बेटी नहीं भी हो, और गांव से उनके पास काम के खातिर आई हो, लेकिन एक बात साफ थी वो लडकी अपने अधिकार और स्वतंत्रता के बारे में बखूबी जानती थी। उसकी प्रतिक्रिया में निर्लज्जता नहीं, स्पष्टता थी... स्थिति की स्पष्टता कि और सब तो ठीक है लेकिन कोई मेरी मजबूरियों का लाभ ले मुझे चोद नहीं सकता। (इस शब्द के बदले बदतमीजी, यौनाचार, अश्लील हरकतें, शोषण वैगेरह, सभ्य समाज के कई शालीन शब्द मुमकिन है लेकिन वो अस्पष्ट और दुविधापूर्ण शब्द हैं। अधिकार और हक की लड़ाई में हमारे विचार साफ होने चाहिए।)

सामने पिता था, जो यौन शोषण कर रहा था या करना चाहता था... वो लड़की अपना यौनशोषण नहीं होने देने के लिए अपने ही पिता के खिलाफ खड़ी थी। उस आदमी के ही मुखालिफ जो उसे रोटी दे रहा था, जो उसे छत दे रहा था, वो भी बेहद मुखर और स्पष्ट विचार के साथ।

बाल यौन शोषण के विरुध हम बच्चों को जागरूक करने का काम करते हैं। अपने इस अभियान में हम बच्चों को यौन शोषण की स्थिति में चुप नहीं रहकर बोलने, मना करने, ना कहने, निडर रहने और किसी के डर से कुछ नहीं छुपाने की बात सिखाते हैं। इस लड़की ने तो उससे भी दो कदम आगे का रास्ता बता दिया।

ये साहस देश की ज्यादातर पढ़ी लिखी महिलाएं भी नहीं कर पातीं हैं। पर वैचारिक स्पष्टता होनी ऐसी ही चाहिए, अधिकार और सुरक्षा साफ-साफ समझ आना चाहिए। आवाज कहां तक उठाई जा सकती है, ये भी स्पष्ट समझा जाना चाहिए।

Sunday, October 11, 2015

दधीचि

Amitabh Bachchan​... लोगों के लिए इस नाम का मतलब एक महान अभिनेता होता होगा। लेकिन मुझे जाननेवालों के लिए अमिताभ बच्चन का मतलब... मैं होता हूं।  गलत तो नहीं कहा ना दोस्तों?

अमिताभ बच्चन नाम के हाड़मांस के सचमुच के आदमी से सचमुच में मिलने के कई मौके मिले, मुलाकत भी एक फैन की तरह नहीं, कि वो मुझे ऑटोग्राफ दें और मैं मुग्ध सा उन्हें देखता रहूं। हर मौका था, बेहद सम्मानजनक मुलाकात का मौका, जहां वो दाता नहीं होते और मैं याचक नहीं होता।

लेकिन एकदम मेरे निजी वजहों से मैंने ऐसे कई मौके हाथ से जाने दिए। केवल इसलिए कि बचपन से जिस अमिताभ बच्चन को जानता हूं, वो अमिताभ बच्चन हाड़मांस का अमिताभ बच्चन नहीं, रोशनी का अमिताभ बच्चन है।

वो हरिवंश राय बच्चन के सुपुत्र अमिताभ बच्चन नहीं।
वो प्रकाश मेहरा की नजरों से, सलीम खान के सीन में जावेद अख्तर की लिखी लाइनें... बोलने वाला अमिताभ बच्चन हैं। वो मनमोहन देसाई के सीन में, महमूद भाई के सिखाए भाव-भंगिमा अपना कर, सचिन भौमिक की लिखी लाइनों को कादर खान के अंदाज और लहजे में बोलने वाला अमिताभ बच्चन है। वो प्रकाश मेहरा, एन सिप्पी, यश चोपड़ा.. और भी कितने निर्देशकों के नजरिए से, कादर खान के लिखे, कादरखान के ही लहजे में लाइने बोलनेवाला अमिताभ बच्चन है।

जिसने पैर और हाथों में महमूद भाई, भगवान दादा के लय का साफ असर और प्रभाव है। जो कादर खान की मदद से दिलीप कुमार की तरह आधी लाईने मुंह में ही चबा जाता है। जो मोतीलाल और बलराज साहनी की तरह सहज रहने की कोशिश करता रहता है। जिसकी दुबली-पतली बांहों में एमएस शेट्टी( रोहित शेट्टी के पिता) की करामात से इतनी ताकत आती है कि वो दस लोगों को चित कर दे। मैं उस अमिताभ बच्चन को जानता हूं, जो अकेला नहीं, एक भीड़ है।

वो अकेला है तो उसका कोई अर्थ नहीं...!

अमिताभ बच्चन से मिलने के लिए मुझे इतने लोगों से एक साथ मिलना पड़ेगा। ऐसी मुलाकात की सही जगह, उस अंधेरे कमरे का चमकता पर्दा ही है। अगर कहीं मैं इनलोगों के बिना अमिताभ बच्चन से मिलता हूं, तो मैंने बचपन से जिस अमिताभ बच्चन को मन में बसाया हुआ है, वो एक झटके में छिन जाएगा, लुट जाउंगा मैं तो। अमिताभ बच्चन का कुछ नहीं बिगड़ेगा, मेरी दुनिया, मेरे सपने तबाह हो जाएगे। सो नहीं मिला अमिताभ बच्चन से।

मुझे नहीं मालूम कि मैं ये क्यों कर रहा हूं...
लेकिन मुझे लग रहा है कि मुझे ये बात आज ही कहनी चाहिए तो कह देना जरूरी है कि पता नहीं ये स्थिति फिर कभी मुमकिन हो या नहीं।

बेशक, वो अदभुत इंसान होंगे। लेकिन उनके लिए, जिनके साथ वो काम करते हैं। वो बेहतर सहयोगी होंगे, लेकिन अपने सह अभिनेताओं के लिए। वो बेहतर और सहज अभिनेता होंगे, लेकिन अपने निर्देशकों के लिए, जिन्हें उनसे काम लेना आसान लगता होगा। इस जीवन में कभी मौका मिले उनके साथ काम करने का (जो कि अब नामुमकिन ही है) तो शायद मैं उन्हें एक व्यक्ति के रूप में जानना चाहूंगा कि मुझे तब अमिताभ बच्चन नाम के व्यक्ति के साथ काम करना पड़ेगा। जो अब संभव नहीं दीखता। तो जिस अमिताभ बच्चन से मुलाकात जरूरी नहीं उससे मिलने की जरूरत ही क्या, सो मैं नहीं मिल पाया उनसे।

मैं उन्हें पर्दे के उस तरफ से नहीं जानता, एक दर्शक के तौर पर उन्हें पर्दे पर जानता हूं, जिसमें वो निर्देशक के दिमाग से दिखते और बोलते हैं। लेकिन मैं जिस अमिताभ बच्चन को जानता हूं, वो मुमकिन हाड़मांस के एक व्यक्ति के चलते हो पाया। वो व्यक्ति, आज ही पैदा हुआ है, तो ये मेरे लिए जश्न की बात है।

मुझे कभी अमिताभ बच्चन की शिद्दत से जरूरत होगी तो, वो मुझे मिल ही जाएंगे। लेकिन तब वो, इस तरह हाड़मांस का जीवित व्यक्ति नहीं होगा। पर्दे पर वो मेरा अमिताभ बच्चन(भीड़वाला अमिताभ बच्चन) ही दिखेगा, लेकिन उस तरह का कोई जीवित व्यक्ति होगा नहीं। हम उसे गढ़ लेंगे। मेरा अमिताभ बच्चन, बिना सचमुच के हाड़मांस के अमिताभ बच्चन की जरूरत के, पर्दे पर दिखेगा। बाकी सारी चीजें वैसी हीं होगी, जैसी अभी है। अगर मुझे अमिताभ बच्चन की जरूरत पड़ी तो...

मैं अगर मिलना चाहूंगा... तो मिलना चाहूंगा,
बलू से, बगीरा से, ऐस्ट्रिक्स से, ओबेलिक्स से, टीमोन और पुंबा, मुफासा से, फैंटम से, बहादुर से, मोटू और पतलू से, घसीटाराम और डॉक्टर झटका से, मिस्टर बीन से, बिल्लू से, डब्बू जी से, चीकू से, डाकूपान सिंह से, छोटू और लंबू से, राजन-इकबाल से, 007 जेम्सबांड से... मैं मिलना चाहूंगा, सिंड्रेला से, बुद्धिमती वासिलीसा से
लेकिन ये किरदार सचमुच में हैं कहां? जो इनसे मिला जाए। तो विजय दीनानाथ चौहान भी सचमुच में कहां हैं!

लेकिन कादरखान के लहजे में संवाद बोलनेवाला, महमूद और भगवान दादा की तरह मुंह बनानेवाला और मोतीलाल और दिलीप कुमार की तरह सहज दिखनेवाला विजय... सामने दिखा... हाड़मांस के एक व्यक्ति की वजह से... जिसका नाम अमिताभ बच्चन है। इस आदमी की महानता बस इतनी है कि इसने दधीचि की तरह अपनी हड्डी दान कर दी, और काबिल लोगों की भीड़ ने उसे वज्र बना दिया, अपराजेय वज्र।

अब वज्र के बनने में हड्डी का योगदान बेशक ही महान है। वो महानता है इस हड्डी की उदारता, उसकी लचक कि वो काबिल लोगों की भीड़ के कहने के मुताबिक बहता गया करता गया, बिना कोई ईगो फंसाए। मेरा अमिताभ बच्चन... वहीं अमिताभ बच्चन हैं... सबकी मेहनत से बना वज्र।

तो इस वज्र के लिए अपनी हड्डी दान करनेवाले महादानी दधीचि को मेरा सादर चरणस्पर्श है।
उनके जन्मदिन पर उनके सेहतमंद रहने की शुभकामनाएं हैं।