मैं एक भी बात नई नहीं कह रहा...
इस पर पचास बरसों से भी ज्यादा वक्त से बहस चल रहा है... तो इसे नई बात और सोच, नहीं समझा जाए।
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सारे जहां से अच्छा हिन्दूस्तां हमारा...
– इतिहास के सबसे महान झूठ में एक है ये नारा। ये भाव ही झूठ है। इतिहास में कई चीजें झूठी और धोखधड़ी हैं। जिस आदमी ने भारत को दुनिया में सबसे अच्छा बता, उसके सम्मान में गजल लिख दी।
जिसने भारत के लिए लिखा
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दीं है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।
उस आदमी के दिमाग में ही, एकीकृत भारत के टुकड़े कर देने का पहला विचार आया। सर मोहम्मद अल्लामा इकबाल... “सारे जहां से अच्छा...” लिखनेवाले यही शायर थे, जिनके दिमाग में सबसे पहले ये विचार आया था कि भारत और पाकिस्तान दो मुल्क हों। आजाद भारत नहीं, भारत और पाकिस्तान हो। उन्होंने ही पाकिस्तान के जन्म के विचार और सोच की बुनियाद रखी थी।
उन्होने लिखा...
मजहब नहीं सिखाता, आपस में वैर रखना...
और उसी मजहब के नाम पर वैर पैदा कर दो मुल्क बना दिए। विचित्र विडंबना है। ये पूरा गाना जिस वक्त, जिस भारत के लिए- जिस आदमी ने लिखा था, वो आदमी ही इस गाने के खिलाफ खड़ा हो गया और इसके एक-एक मिसरे की धज्जियां उड़ा दी। नहीं क्या?
इकबाल दुनिया के सबसे महान झूठे लोगों में से थे। जिन्होने कहा कुछ और किया कुछ और। जिसने अपनी ही कही बात को झूठा साबित कर दिया।
उन्होने लिखा...
लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द ।
सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द ।
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द ।
राम को भारत की पहचान बताया लेकिन किया ठीक इसके विपरीत, अपने इसी विचार के विरुद्ध कई नए विश्वास खड़े कर दिए। उनके दादा स्वर्गीय सहज स्प्रू कश्मीर के ब्राह्मण थे। तो राम के लिए इकबाल की श्रद्धा अनुचित और झठू भी नहीं थी। वो झूठी तब साबित होती है जब उनकी श्रद्धा ही बदल जाती है।
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बेशक उन्होने पाकिस्तान नाम का अलग मुल्क नहीं चाहा था, उनकी संकल्पना एक अलग सूबे की थी। लेकिन पाकिस्तान की अवधारणा का जन्म ही उस सूबे के विचार से हुआ। वो सूबा मजहब पर आधारित ही तो था। जिन्ना ने उनकी इसी सूबे की अवधारणा की बुनियाद पर अपने मनसूबे की इमारत खड़ी कर दी।
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जब भी बच्चे ये गीत गाते हैं, तो मोहम्मद इकबाल, जन्नत से भारत के लोगों की विडंबनापूर्ण मूर्खता पर मुस्कुराते होंगे कि देखो इन बेवकूफों को... जिस गाने की सारी सच्चाई का मैं, उसे लिखनेवाला ही, सत्यानाश कर चुका हूं, वो इसी गाने को जीवन गान बनाए झूम रहे हैं। आप ये ना समझें कि इसमें उनको खुशी होती होगी। दुर्भाग्य कभी भी खुशी नहीं देता।
लेकिन हम बचपन से 'सारे जहां' 'मजहब नहीं सिखाता', गाते आए हैं और हमें ताउम्र इसे गाते रहना चाहिए... अपने बच्चों को सिखाते रहने के साथ ही...। इस गीत या गजल की सच्चाई पर कोई सवाल नहीं। इंसान को 'मजहब नहीं' वाली बात सच साबित करने की कोशिश करते रहनी चाहिए। और हर भारतीय को सारे जहां वाली सच करनी चाहिए। लेकिन जिस आदमी ने इस विचार को जीवन गान बना दिया, उसने ही इसे झूठा साबित करने का काम कर दिया। ये सच्चाई इस गीत की सत्य-निष्ठता खत्म कर देती है।
एक नियम, एक रास्ता जो आप निश्चित करते हैं और खुद ही उस पर नहीं चलते। उसपर अमल नहीं करते। संसार को एक पथ दिखलाते हैं, आपके कहे से लोग उसपर चलने भी लगते हैं और खुद ही वो रास्ता छोड़ देते हैं। तो या तो गलती से आपने सही रास्ता बता दिया। या गलत रास्ता बता, आप सही राह निकल लिए और लोग अब भी आपके गलत बताए रास्ते पर चल ही रहे हैं।
इकबाल साहब के जबरदस्त शायर होने पर कोई शुबहा नहीं। कोई शक नहीं। उन्होने इस्लाम के सुधार के लिए महान और जोखिम भरा, साहसपूर्ण काम किए... ये तो सच ही है।
लेकिन ये सब उन्होने इस्लाम केलिए किया, हिन्दुस्तान के लिए नहीं किया, वो हिन्दुस्तान जो उनके मुताबिक सारे जहां से अच्छा था। इस्लाम के लिए उनकी निष्ठा, उनका काम करना गलत नहीं है। उन्होने बिलुकल ही दुरुस्त किया। कुरीतियों के खिलाफ बोलने, तरक्की और बेहतरी के लिए संघर्ष करने के उनके साहस की तारीफ की औकात मेरी तो है नहीं। ये सीखने वाली बात है, आत्मावलोकन के लिए इस कदर जोखिम उठाने का साहस होना चाहिए... ये सीखनेवाली बात है कि इस रास्ते से हटना नहीं चाहिए, भटकना नहीं चाहिए।
लेकिन उनकी शुरूआती निष्ठा-परिवर्तन, विश्वास में बदलाव, दुर्भाग्य पूर्ण विडंबना, और मौका-परस्ती... एक विचित्र गफलत पैदा करती है। कि शायर ने जिसे सही कहा, या जिसे गलत कहा... उसपर भरोसा मत कीजिए, खुद अपना विवेक इस्तेमाल कीजिए। क्योंकि वो जो बोल रहा है वो झूठ भी हो सकता है। वो खुद ही उससे पलट भी सकता है।
इकबाल के दादा श्री सहज सप्रू ब्राह्मण थे, जवाहर लाल नेहरू भी ब्राह्मण ही थे..,
तो किसी 'मुसलमान' को ये सवाल इकलाब का और मुसलमान का अपमान लगें तो उनका दोष है, क्योंकि मैंने इकबाल को मुसलमान माना ही नहीं है। जिनको वो मुसलमान दिख रहे, वैसे लोगों के विचारों की जिम्मेदारी उनकी खुद की है। मेरे लिए इकबाल जबरदस्त शायर और विचारक थे... वैसे लोगों में से एक, जो समाज को दिशा दिखाते हैं...
समाज के लिए दिशा तय करनेवाले लोगों से उम्मीद ये की जानी चाहिए कि उनके विचार, आचार और आचरण में एकरूपता हो... इनके बीच आपस में ही कोई विरोध ना हो। इससे समाज भ्रमित हो जाता है। इसकी उसे बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।