Wednesday, September 13, 2017

तुम तो सब जानते हो!

"तुमको क्या कहना!
तुम तो सब जानते, समझते हो।"
अदभुत है ये अनुभूति, जब संपर्क और संबंध में साम्यवाद हो, एक विचित्र बराबरी। शबरी ने बेर खाकर खिलाए... प्रभु ने बेहिचक खा लिए। बात यही तो थी... "तुम तो सब जानते हो।"

श्रीकृष्ण ने सदैव यही तो किया था। ये उनका सहज स्वभाव था... 'सब जानना', अंतर्यामी होना। इसी से वे 'भगवान' थे।

अंतर्यामी होना... सबके बूते की बात नहीं। कोशिश सब कर सकते हैं, करते भी तो हैं हीं, पर 'सब जानना'; सबसे संभव नहीं। क्योंकि ये कोई हुनर या सबक नहीं कि सिखाया जा सके या सीख ले कोई आदमी। 'सब जानना' तभी ही संभव है, जब व्यक्ति का स्व मिट जाए। संपर्क में, संबंध में शामिल व्यक्ति या वस्तु, स्व को मिटा, एकाकार हो जाएं...  'सब जानना' तभी मुमकिन है।


बिजली, तारों में दौड़ती है, तो धातु के इसी -  'सब जानने' के गुणों से, धातुओं के आपस में जुड़ते ही एकाकार हो जाने के गुणों से। सुचालक होना, दरअसल विद्युत उर्जा के लिए एकाकार हो जाने का गुण है। तो 'सब जानना' दरअसल, अस्तित्व के साम्यवाद की स्थिति है।

दावा सब करते हैं, 'सब जानने' की; कोशिश भी। लेकिन अपने स्व को छोड़ ही नहीं पाते, तो 'सब जानना' मुमकिन ही कैसे है उनके लिए। अहं, वजूद, अपने होने का भान, और गुमान यानी अहंकार... ही सूचना और ज्ञान की प्राप्ति में बाधक हैं। 'सब जानना', दरअसल सूचना के अदृश्य सार्वभौमिकता में  सदैव, सर्वत्र उपस्थित रह पाने के हुनर से मुमकिन है। ये गुण तो ईश्वर का है, इसी से हमने उसे अंतर्यामी कहना शुरू किया। पर इस तरह सर्वत्र सबकुछ से एकाकार हो लेना केवल ईश्वर के ही बूते की बात नहीं। व्यक्ति भी ऐसा एकाकार हो पाता है... जब वो स्व से मुक्त होता है।

स्व से मुक्ति का प्रयास ही तो साधना है, तपस्या है, योग है। ये अजीब है कि आप जितना ही अपने स्व से मुक्त होंगे, आपका स्व, उतना ही व्यापक होता जाएगा, फैलता और बड़ा होता जाएगा। ये फैलना ही तो एकाकार हो जाना है।

दो व्यक्ति, अपने-अपने स्व को खत्म कर एक हो गये, अब दोनों के दोनों ही एक दूसरे में हैं, दोनों में हैं। इसी तरह वे फैल तो गये ना। ऐसे ही तो 'सब जानने' की स्थिति बनती है... कि आपका स्व जितना विलोपित होगा, आप उतना ही व्यापक होंगे और आपकी अंतरयामिता उतनी ही विस्तृत होगी।
ईश्वर ने खुद से एक बूंद निकाला और उसमें स्व की जबरदस्त चेतना भर दी, भीषण अस्तित्व भाव भर दिया। और उसका नाम दिया - जीवन। जीवन में भरी ये स्व चेतना और अस्तित्व भाव, अपनी पराकाष्ठा पर हुआ तो वो इंसान हो गया।

तब ही तो कहते हैं कि जब व्यक्ति नष्ट होता है, उसका जीवन खत्म होता है, तो वो ईश्वर में विलीन हो जाता है। वो ईश्वर हो जाता है। हर उसी जीवित व्यक्ति ने ईश्वर का अनुभव किया, उसकी संज्ञा पायी है, जिसका स्व, जीते जी विलुप्त हो गया।

हर व्यक्ति के लिए ईश्वर होना मुमकिन है, उसका अंतर्यामी होना संभव है, शर्त है वही... अस्तित्व से मुक्ति। कम से कम उनके साथ तो हम ईश्वर हो ही सकते हैं, जो लोग हमारे साथ हैं, जिनसे हम प्रेम करते हैं।

लेकिन ईश्वर ने अस्तित्व-भाव और स्व-बोध को जीवन से संलग्न कर दिया है, उसे जीवन की अनिवार्यता कर दी है। अब 'स्व' इतना जरूरी है कि 'स्व' का खात्मा, मौत का अनुभव है। 'स्व' नहीं, तो जीवन ही नहीं।
भौतिक जीवन का होना, स्व के होने से ही संभव है। इसी से हर जीवित व्यक्ति के लिए स्व से मुक्ति असंभव है। स्व-बोध उसके अस्तित्व में इस तरह बुना हुआ है कि वो निकाल ही नहीं पाता है।

पर उसे अक्सर अपने स्व-मुक्ति, अस्तित्वहीनता का अनुभव होता है। ईश्वर ने इसकी व्यवस्था की है।

एक गहन परस्पर सुखद रति के चरमोत्कर्ष में व्यक्ति जो परम्-आनंद का अनुभव करता है, वो स्व मुक्त होने का ही तो अनुभव है।  लोग अभिव्यक्त नहीं कर पाते सेक्स के उस चरमोत्कर्ष को, तो कहते है कि ऐसा लगता है जैसे 'कुछ भी नहीं हैै', 'सब गायब', 'एकदम हल्का', 'खुद को उड़ता सा लगता है।

यही तो है स्व से मुक्ति। रति के चरम में क्यों है ये स्वमुक्ति...  क्योंकि वो सृजन की प्रक्रिया है। सृजन की प्रक्रिया में सृजक की स्वमुक्ति आवश्यक तो है ही। सृजक खुद को नहीं छोड़ेगा, तो कुछ और रच ही कैसे पाएगा। इसी से हर कलाकार, सृजनशील, सृष्टा, क्रिएटिव व्यक्ति... आपको संतुष्ट, शांत और प्रसन्न दिखेगा। कि वो लगातार ही रति के चरमोत्कर्ष जैसा स्वहीनता अनुभव करता है।

प्रेमरत दो व्यक्ति, जब स्वहीनता का अनुभव करते हैं, तो उस अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ हो कहते हैं... बड़ा ही अजीब, अदभुत, गजब, कमाल... पता नहीं कैसा! पर बहुत ही अच्छा लग रहा है। स्वहीनता, अस्तित्व के गायब हो जाने की अनुभूति ही, प्रेम का सर्वोच्च अनुभव है। यही असल में दैविक, ईश्वरीय प्रेम है। क्योंकि अस्तित्वहीनता ही ईश्वरीय अनुभूति है। 

केवल प्रेम ही नहीं... हर भौतिक सुख या मानसिक खुशी, या आध्यात्मिक आनंद, दरअसल स्व मुक्त अस्तित्वहीनता का अनुभव है।

गौर करें तो पता चलता है कि बेहद गहन, बहुत ही भावपूर्ण चुंबन हो या प्रेमभरी गहन रतिक्रिया, उसका चरमोत्कर्ष हो या उन्मादपूर्ण कोई हिंसा हो, या कोई कलाकारी, कला का सृजन, संगीत, शिल्प, पाककला (कुकिंग) या फिर विज्ञान में सूचना की खोज, आविष्कार, या कि साधना और तप से ज्ञान की प्राप्ति... सब स्वहीनता का ही अनुभव हैं।

कभी विचार किया कि चुंबन में वो क्या खास बात है, जो गजब का अनुभव है। वे कुछ क्षण वही तो हैं, जिसमें अपने अस्तित्व और स्व को विलोपित कर देना है। गहन आलिंगन, गले लगने में भी वही बात है... स्व का भूल जाना।

हर व्यक्ति, क्षणिक रूप में ये स्वहीनता अनुभव करता ही है। और जब उसका समस्त स्व, सदैव के लिए खो जाता है तो वो मर जाता है।
खिलखिलाकर हंसने में भी तो वही बात है, उन क्षणों में हमको अपना अस्तित्व पता नहीं चलता। हम भूल जाते हैं स्व को।

सुख, खुशी, आनंद... दरअसल क्षणिक स्वहीनता का अनुभव है। स्वहीनता एकाकार करती है। कुछ नहीं होना ही, सबकुछ हो जाना है। यही स्थिति, सब कुछ जान लेना मुमकिन कर देती है।

सर्वत्र और सदैव जो हो, वही सर्वज्ञ हो सकता है। और स्वहीन व्यक्ति ही, सर्वत्र और सदैव हो सकता है... इस तरह, वही सर्वज्ञ भी हो सकता है।
"तुम तो जानते हो! तुमको क्या कहना!" ये अवस्था, एक दूजे में अपना स्व विलीन कर चुके, स्वहीन व्यक्तियों के बीच ही मुमकिन है।

मथुरा और द्वरिका में, द्वारिकाधीश वासुदेव श्रीकृष्ण के सामने खड़ा हो मैंने, यही अनुभव किया था। मां और बाबूजी की जलती चिताओं के सामने भी यही अनुभूति थी।

...और भी कई अवसर हैं... जब अस्तित्वहीन हो जाने का ऐसा अनुभव होता है मुझे। हर सृजन, गहन लेखन के दौरान, ऐसी ही स्वहीनता की अनुभूति होती है।

और जब ऐसा होता है, तब मैं सब जानता हूं। सदैव, सर्वत्र होने सा भान होता है। ये एकदम ईश्वरीय अनुभव है। खुद को खो देना कमाल की फीलिंग है। हर व्यक्ति को, संबंध और संपर्क में अपना स्व खो, विलीन हो जाना चाहिए, प्रेम तभी फैलता और फलता-फूलता है।।

हर व्यक्ति जब, अपना स्व खो, समाज में विलीन हो जाएगा है, ये संसार तभी सुंदर हो सकता है। पर ये सबसे मुमकिन ही कहां है!...  तो समाज और संसार में बदसूरती और कुरूपता बनी रहेगी और व्यक्ति का उससे संधर्ष जारी रहेगा। ये कुरूपता दरअसल अहंकार है... अति अस्तित्वबोध।
अहंकार और अति अस्तित्वबोध ही हमारी तमाम समस्याओं का मूल है। इससे हमारा संघर्ष ही हमारी चुनौती और बाधा है।

हम नहीं थे, हम नहीं होंगे...
मतलब अतीत में हम नहीं थे, भविष्य में हम नहीं होंगे। ना होने से फिर ना होने के दरम्यान 'होने का' ये जो तीव्र और सशक्त अनुभव है, वो ही जीवन है और वो ही इसकी तमाम मुसीबतों की वजह भी है।


भ्रष्टाचार, हिंसा, बेईमानी, धोखा... जैसी सारी मुसीबतें, तीव्रता और गहनता से अति-स्व और परम-अस्तित्व की अनुभूति का नतीजा हैं।

तो इस तरह, तकलीफों और समस्याओं से मुक्ति पाने और 'सब जानने' के लिए, स्व को छोड़ना जरूरी है, अति-स्व को तो सबसे पहले।

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